Monday, September 27, 2010

पूर्णिमा वर्मन ---साक्षात्कार

इंटरनेट के माध्यम से कला-साहित्य-संस्कृति की दुनिया से जुड़े पाठकों रचनाकारों के लिये पूर्णिमा वर्मन जाना-पहचाना नाम है। देश दुनिया के कोने-कोने में अभिव्यक्ति एवंअनुभूति के माध्यम से साहित्य-संस्कृति के प्रचार-प्रसार में जुटी पूर्णिमाजी बताती हैं :- हिन्दी में शायद यह पहली पत्रिका होगी जहां संपादक एक देश में निदेशक दूसरे देश में और टाइपिस्ट तीसरे देश में हों। फिर भी सब एक दूसरे को देख सकते हों सुन सकते हों दिन में चार घंटे दो घंटे सुबह और दो घंटे शाम। वो भी तब जब एक की दुनिया में दिन हो और दूसरे की दुनिया में रात। हम आपस में अक्सर कहते हैं,"हम दिन रात काम करते हैं। इसी लिये तो हम दूसरों से बेहतर काम करते हैं"।
 
पीलीभीत की सुंदर घाटियों में जन्मी पूर्णिमाजी को प्रकृतिप्रेम एवं कला के प्रति बचपन से अनुराग रहा। फिर मिर्जापुर व इलाहाबाद में इस अनुराग में साहित्य एवं संस्कृति के रंग भी मिले। संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि,पत्रकारिता तथा बेवडिजाइनिंग में डिप्लोमा प्राप्त पूर्णिमाजी के जीवन का पहला लगाव पत्रकारिता आजतक बना हुआ है। इलाहाबाद के दिनों में अमृतप्रभात, आकाशवाणी के अनुभव आज भी ऊर्जा देते हैं। जलरंग, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से दोस्ती रखने वाली पूर्णिमाजी पिछले पचीस सालों से संपादन, फ्रीलांसर, अध्यापन, कलाकार, ग्राफिक डिजाइनिंग तथा जाल प्रकाशन के रास्तों से गुजरती हुई फिलहाल अभिव्यक्ति तथा अनुभूति के प्रकाशन तथा कलाकर्म में व्यस्त हैं।
पूर्णिमाजी जानकारी देते हुये बताती हैं कि अभिव्यक्ति तथा अनुभूति के अंश विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों एवं शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित है। महीने में चार अंक नियमित रूप से निकालने में तमाम चुनौतियां से जूझना पड़ता है लेकिन पिछले पिछले पांच वर्षों में कोई भी अंक देरी से नहीं निकला।
कहानी,कविता,बालसाहित्य,साहित्यिक निबंध ,हास्यव्यंग्य सभी में लेखन करने वाली पूर्णमा जी का मन खासतौर से ललित निबंध तथा कविता में रमता है। कविता संग्रह 'वक्त के साथ' तथा उपहार स्तंभ की कविताओं की ताजगी तथा दोस्ताना अंदाज काबिले तारीफ है तथा बार-बार पढ़े जाने के लिये मजबूर करता है। साहित्य संस्कृति के सत्यं,शिवं,सुंदरम् स्वरूप से आम लोगों को जोड़ने में सतत प्रयत्नशील पूर्णिमा जी को साधारण समझे जाने वाले जनजीवन से जुड़े रचनाकारों पर असाधारण विश्वास है। उनका मानना है कि बहुत कुछ लिखा जा रहा है आमजन द्वारा जो कि समाज को बेहतर बनाने काम कर सकता है। उसे सामने लाना हमारा काम है। हर शहर के जनप्रिय रचनाकारों की उद्देश्यपरक रचनायें सामने लाने के लिये सतत प्रयत्नशील पूर्णिमा वर्मन जी से विविध विषयों पर बातचीत के मुख्य अंश।

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आपने लिखना कब शुरू किया?
कविता लिखना कब शुरू किया वह ठीक से याद नहीं लेकिन बचपन की एक नोट बुक में मेरी सबसे पुरानी कविताएं 1966 की हैं।

अभिव्यक्ति निकालने का विचार कैसे आया?
1995 में शारजाह आने के बाद मेरा काफ़ी समय इंटरनेट पर बीतने लगा। तब अहसास हुआ कि हमारी भाषा में दूसरी विदेशी भाषाओं की अपेक्षा काफ़ी कम साहित्य (लगभग नहीं के बराबर) वेब पर है। उसी समय चैट कार्यक्रमों में बातें करते हुए पत्रिका का विचार उठा था पर इसको आकार लेते लेते तीन साल लग गए। शुरू-शुरू में यह जानने में काफ़ी समय लगता है कि कौन दूर तक साथ चलेगा। किसके पास समय और शक्ति है इस योजना में साथ देने की। अंत में प्रोफ़ेसर अश्विन गांधी और दीपिका जोशी के साथ हमने एक टीम तैयार की। साथ मिल कर अभिव्यक्ति और अनुभूति की योजना बनाते और उस पर काम करते हमें दो साल और लग गए। यहां यह बता दें कि हममें से कोई भी पेशे से साहित्यकार, पत्रकार या वेब पब्लिशर नहीं था। और हमने सोचा कि विश्वजाल के समंदर में एकदम से कूद पडने की अपेक्षा पहले तैरने का थोडा अभ्यास कर लेना ठीक रहेगा।
जब आप इलाहाबाद में थीं तो वहां का रचनात्मक परिदृश्य कैसा था?
रचनात्मक परिदृश्य काफ़ी उत्साहवर्धक था। हिंदी विभाग में 'प्रत्यंचा' नाम की एक संस्था थी जिसमें हर सप्ताह एक सदस्य अपनी रचनाएं पढता था। अन्य सब उसपर प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे। एक विशेषज्ञ भी होता था इस गोष्ठी में. उन दिनों हिंदी विभाग में डा जगदीश गुप्त, विजयदेव नारायण साही, डा मोहन अवस्थी, संस्कृत विभाग में डा राजेन्द्र मिश्र, डा राजलक्ष्मी वर्मा जैसे लोग थे, अंग्रेजी विभाग में भी कुछ नियमित हिंदी लेखक थे। मेयो कॉलेज में भी कोई न कोई हमें खाली मिल ही जाता था विशेषज्ञ का पद विभूषित करने के लिए। मनोरमा थी, अमृत प्रभात था, आकाशवाणी थी (वो तो अभी भी है) खूब लिखते थे। छपते थे। प्रसारित होते थे। थियेटर का भी बडा अच्छा वातावरण था। बहुत अच्छा लगता था।
उन दिनों तो इलाहाबाद सिविल सर्विसेस के लिया जाना जाता था। आपका इधर रुझान नहीं हुआ कभी?
नहीं, उन दिनों इलाहाबाद में उसके सिवा भी बहुत कुछ था। साहित्य, संगीत और कला की ओर ज़्यादा रुझान रहा हमेशा से. थियेटर का वातावरण भी काफ़ी अच्छा था उस समय।
आप सबसे सहज अपने को क्या लिखने में पाती हैं, कविता, कहानी, संस्मरण?
कविताएं, रेखाचित्र और ललित निबंध।
आपके पसंदीदा रचनाकार कौन से हैं?
कविताएं पढना काफ़ी पसंद है पर कोई एक नाम लेना मुश्किल है। सबसे पहले जो पसंद थे वे थे सुमित्रानंदन पंत। फिर जब आगे बढते हैं तो अलग-अलग कवियों की अलग-अलग विशेषताओं को पहचानना शुरू करते हैं और जाने-अनजाने हर किसी से बहुत कुछ सीखते हैं। काफ़ी लोगों के नाम गिनाए जा सकते हैं लेकिन इस तरह बहुत से नाम छूट भी जाएंगे जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है। 

आप लगातार अभिव्यक्ति के काम में लगी रहती हैं. आपका पारिवारिक जीवन पर इसका क्या प्रभाव पडता है?
मेरे परिवार में दो लोग हैं. मेरी बेटी और मेरे पति. दोनों महाव्यस्त। इस तरह पत्रिका के लिए काम करते रहना सबमें सामंजस्य बना देता है।


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भारत की तुलना में अबूधाबी में महिलाओं की, खासकर कामकाजी महिलाओं की स्थिति कैसी है? मेरा मतलब कामकाज के अवसर, परिस्थितियां और उनकी सामाजिक स्थिति से है।
शायद तुलना करना ठीक नहीं। यहां पारिवारिक दबाव कम हैं पर प्रतियोगिता ज्यादा हो सकती है। अगर काम के जितने परिणाम की कंपनी अपेक्षा करती है वह नहीं ला सके तो नौकरी खतरे में पड सकती है। बिना नौकरी के ज़िंदा रहना मुश्किल हो सकता है। पर साथ ही अंतर्राष्ट्रीय लोगों के साथ काम करना मनोरंजन और अधिक अनुभव वाला भी हो सकता है। शिक्षक, बिजनेस मैनेजमेंट, डॉक्टर, इंजीनियर सभी क्षेत्रों में महिलाएं हैं। विश्व के हर कोने से लोग यहां काम करने के लिए आते हैं। तो काफ़ी मेहनत करनी पडती है अपने को सफल साबित करने में। यही बात पुरुषों के लिए भी है।
आपकी अपनी सबसे पसंदीदा रचना (रचनाएं) कौन सी है?
मुझे तो शायद सब अच्छी लग सकती हैं। बल्कि सवाल मेरी ओर से होना चाहिए था कि आपको मेरी कौन सी कविता सबसे ज्यादा पसंद है।
क्या कभी ऐसा लगता है कि जो लिखा वह ठीक नहीं तथा फिर सुधार करने का मन करे?
हां, अक्सर और वेब का मजा ही यह है कि आप जब चाहें जितना चाहें सुधार सकते हैं।
अभी तक अभिव्यक्ति के अधिकतम हिट एक दिन ६00 से कम हैं. इंटरनेट पर आप अभिव्यक्ति की स्थिति से संतुष्ट हैं?
हां, काफ़ी संतुष्ट हूं। मैं इसको रोज क़े हिसाब से नहीं गिनती हूं। हमारा जालघर दैनिक समाचार नहीं देता। इसमें पाठक अपने अवकाश के क्षण बिताते हैं या फिर साहित्य की कोई महत्वपूर्ण जानकारी खोजते हैं। कहानी और व्यंग्य के काफ़ी प्रेमी हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों के तमाम हिंदी छात्र हैं। प्रवासी हिंदी प्रेमी हैं जो व्यस्त समय में से कुछ पल निकाल कर इसे देख लेना ज़रूरी समझते हैं। माह में चार बार इसका परिवर्धन होता है लेकिन इसकी संरचना ऐसी है कि एक महीने की सामग्री मुखपृष्ठ से हमेशा जुडी रहती है। तो हमारे पाठक दैनिक या साप्ताहिक होने की बजाय मासिक हैं। जो एक बार पढ लेता है वह दूसरे दिन दुबारा नहीं खोलता है। अगर दोनों पत्रिकाओं को मिला कर देखें तो इनके हिट 18,000 के आसपास हैं जो एक अच्छी संख्या है और अभी यह बढ रही है तो मेरे विचार से अभी असंतोष की कोई बात नहीं है।
नेट पत्रिकाओं को निकालने में क्या परेशानियां हैं?
परेशानी तो कुछ नहीं है। इसलिए देखिए हर दूसरे दिन एक नयी पत्रिका आती है वेब पर। हिंदी वालों में कंप्यूटर की जानकारी इतनी व्यापक नहीं है जितनी अंग्रेजी, ज़र्मन या फ्रेंच वालों में इसलिए जाहिर है कि हम पीछे हैं। दूसरे हिंदी में यूनिकोड का विकास और ब्राउजर सहयोग हाल में ही मिला है। एम एस आफ़िस भी पिछले साल ही हिंदी में आया है तो वेब पर हिंदी की सही उपस्थिति 2004 से ही हुई समझनी चाहिए। उसके पहले तो हम जबरदस्ती जमे हुए थे। सीमा भी कुछ नहीं है। वेब तो असीमित है। सीमाएं काम करने वालों की होती हैं।
दलित साहित्य, स्त्री लेखन की बात अक्सर उठती है आजकल कि दलित या स्त्री ही अपनी बात बेहतर ढंग से कह सकते हैं। आप क्या सोचती हैं इस बारे में?
क्या आप यह कहना चाहते हैं कि बाकी सब लोग अंग्रेजी में लिखने पढने बोलने लगे हैं?हां, मैं मानती हूं कि जनसाधारण की पहली जरूरत रोजग़ार की होती है। और भारत में रोज़गार परक सभी पाठयक्रम अभी तक अंग्रेजी में ही हैं। इसलिए भारतीय जनता पर अंग्रेजी सीखने का बोझ बना रहता है इस कारण भारत का वातावरण हिंदी बोलने या लिखने को प्रोत्साहित नहीं करता। स्त्रियों पर फिर भी पैसे कमाने का दायित्व कम है। दलितों में भी अंग्रेजियत समा नहीं गई है इतने व्यापक रूप से (जितनी दूसरी जातियों में) तो वे अभी हिंदी लिखने में अपने को योग्य और सुविधाजनक महसूस करते हैं। जिसका भी भाषा पर अधिकार है और हृदय संवेदनशील है वह अपनी बात कह सकता है। इसमें जाति या लिंग का सवाल कहां उठता है?
अभिव्यक्ति को शुषा फांट से यूनीकोड फांट में कब तक लाने की योजना है?
जितनी जल्दी हो सके, पर समय के बारे में कहना मुश्किल है। लोग समझते हैं कि अगर फांट कन्वर्जन का सॉफ्टवेयर आ गया तो पत्रिका को रातों-रात यूनिकोड पर लाया जा सकता है पर ऐसा नहीं है। इसमें कई समस्याएं हैं। 1-फांट परिवर्तित करने के बाद सघन संपादन की ज़रूरत होती है। घनी प्रूफ़रीडिंग करनी होती है। नए फांट में इसको तेजी से करना संभव नहीं है। हमारे जालघर का आकार 300 मेगा बाइट से भी ज्यादा है तो इसमें लगने वाले समय का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। हम यह नहीं चाहते कि जिस समय यह काम हो रहा हो उस समय जालघर को कुछ दिनों के लिए बंद कर दिया जाए। इसलिए समांतर काम करने की योजना है। 2-अभी हम शुषा के कारण विंडोज 98 पर काम कर रहे हैं। इसलिए एम एस आफ़िस हिंदी का प्रयोग नहीं हो रहा है। इसके अभाव में हमारे फोल्डर और फाइलें अकारादि क्रम से न हो कर ए बी सी डी के क्रम में हैं। यूनिकोड का पूरा इस्तेमाल हो इसके लिए ज़रूरी है कि फाइलों को अकारादि क्रम से व्यवस्थित किया जाए। जब ऐसा किया जाएगा तो हर पृष्ठ का पता बदल जाएगा। हमारे जालघर के अनेक अंश विदेशी विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम या संदर्भ अध्ययन में लगे हुए हैं। इनको अचानक या बार-बार नहीं हटाया जा सकता है। इसके लिए पहले से एक कंप्यूटर पर पूरा जालघर पुर्नस्थापित कर के पूर्वसूचना देनी होगी कि यह पृष्ठ इस दिनांक से इस पते पर उपलब्ध होगा। 3-हम यह भी नहीं चाहते हैं कि काम करते समय आधी पत्रिका एक फांट में हो और आधी दूसरे फांट में। यह पाठक और प्रकाशक दोनों के लिए बहुत मुसीबत का काम है। और भी समस्याएं हैं पर सब बता कर सबको उबाना तो नहीं है। आखिर में एक दिन सभी को यूनिकोड में आना है तो हम जल्दी से जल्दी जैसे भी संभव हो उस तरह से आने की प्रक्रिया में हैं।
मुझे लगता है कि अत्यधिक दुख, विद्रोह, क्षोभ को छापने की बजाय खुशनुमा साहित्य जो बहुत तकलीफ़ न दे पाठक को, छापने के के लिए आप ज्यादा तत्पर रहती हैं। क्या यह सच है? यदि हां तो क्यों?
हम हर तरह का साहित्य छापना पसंद करते हैं बशर्ते वह साहित्य हो. आजकल साहित्य के नाम पर रोना धोना, व्यक्तिगत क्षोभ, निराशा या लोकप्रियता लूटने के लिए नग्नता, सनसनी या बहसबाजी क़ा जो वातावरण है उसे साहित्य का नाम दे देना उचित नहीं. स्वस्थ दृष्टि ही साहित्य कहलाती है। साहित्य में रसानुभूति होना जरूरी है। उदाहरण के लिए करुण रस लिखने के लिए करुणा में डूब कर उबरना होता है। उबर नहीं सके तो लेखन में रोनाधोना ही रहेगा। पर उबरना कैसे वो तो साहित्य शास्त्र में पढने का समय किसी के पास नहीं।
आपके लेखन में सबसे ज़्यादा प्रभाव किसका रहता है?
कह नहीं सकती। अलग-अलग समय पर अलग-अलग प्रभाव हो सकते हैं। हर लेखक की यही इच्छा होती है कि वह अपना रास्ता अलग बनाए. मेरा रास्ता अभी बना नहीं है।
आपकी रचनाओं के प्रथम पाठक कौन रहते हैं? घर में आपकी रचनाओं को कितना पढा जाता है?
मेरे पहले पाठक स्वाभाविक रूप से मेरे सहयोगी अश्विन गांधी और दीपिका जोशी होते हैं। घर में भारत में मां-पिताजी और भाई-भाभी पढते हैं। अमेरिका वाली बहन भी कंप्यूटर वाला सब लेखन पढने का समय निकाल लेती है। जो कागज़ पर प्रकाशित होता है वह उस तक नहीं पहुंचता। ससुराल में मेरी जिठानी हिंदी पढने की शौकीन हैं। प्रिंट माध्यम में जो कुछ आता है जरूर पढती हैं। वे कंप्यूटर इस्तेमाल करती हैं पर कंप्यूटर पर पत्रिका पढना अलग बात है। बाकी सब अपनी दुनिया में व्यस्त, सबके अलग-अलग शौक हैं।
देश से दूर रहकर साहित्य सृजन कैसा लगता है? देश से दूर रहना कैसा लगता है?
देश में रहने या परदेस में रहने में खास कुछ फ़र्क नहीं है। हां, यहां काम करने का समय और सुविधाएं ज्यादा हैं। एक कंप्यूटर पास में हो तो क्या देश क्या परदेस आप सभी से जुडे रहते हैं।
अभिव्यक्ति निकालनें में कितना खर्च आता है? कौन इसे वहन करता है?
इतना ज्यादा नहीं आता कि किसी से मांगना पडे। हम सब मिल कर उठा लेते हैं। पर लेखकों को मानदेय मिलना चाहिए। वह व्यवस्था हम नहीं कर पाए हैं। उस ओर प्रयत्नशील हैं।
आपका अपना रचनाकर्म कितना प्रभावित होता है संपादन से?
कुछ न कुछ ज़रूर होता होगा। जब सारा मन मस्तिष्क पत्रिका में लगा हो। पर मैं वैसे भी ज़्यादा लिखने वालों में से नहीं तो खास अंतर महसूस नहीं होता।
आप आलोचकों द्वारा स्थापित मान्य रचनाकारों की बजाय जनप्रिय रचनाकारों को ज्यादा तरजीह देती हैं. क्या विचार है आपके इस बारे में?
अपनी ओर से हम दोनों को बराबर स्थान देने की कोशिश करते हैं। आलोचकों द्वारा मान्य और स्थापित लेखकों को पुरस्कार और सम्मान दिए जाते हैं। ये रचनाकार थोडे से होते हैं। पर भारत में हजारों अच्छा लिखने वाले हैं. सबको सम्मान या पुरस्कार नहीं मिल जाता. पुरस्कार या सम्मान नहीं मिला इसका मतलब यह नहीं कि उनकी रचनाओं में दम नहीं। पुरस्कृत या सम्मानित लेखकों को बार बार प्रकाशित करना पाठकों के लिए उबाऊ हो सकता है। नियमित पत्रिका के लिए निरंतर नवीनता की आवश्यकता होती है। जनता में लोकप्रिय लेखकों को पुरस्कार के विषय में सोचने या तिकडम लगाने की जरूरत या समय नहीं मिलता इस बात को तो आप भी मानेंगे। आलोचकों के भी अपने-अपने पूर्वग्रह हो सकते हैं। इसलिए यह नहीं कह सकते कि जनप्रिय रचनाकार अच्छा नहीं लिखते। जनप्रिय रचनाकारों ने भी बेहतरीन साहित्य रचा है और लगातार रच रहे हैं। हम खोज कर ऐसा साहित्य अंतर्राष्ट्रीय पाठकों को सुलभ कराने की कोशिश करते हैं। प्राचीन साहित्य को संरक्षित करते हुए नए साहित्य को प्रोत्साहित करना ही हमारा उद्देश्य है और इसलिए न केवल जनप्रिय लेखक बल्कि उदीयमान लेखकों को भी हम पूरा प्रोत्साहन देते हैं।
हिंदी के कई चिठ्ठाकार आपके नियमित लेखक हैं- रवि रतलामी, अतुल अरोरा, प्रत्यक्षा आदि। चिठ्ठाकारी के प्रति आपके क्या विचार हैं?
रवि जी की प्रतिभा बहुमुखी है इससे आप इनकार नहीं करेंगे। वे लगभग शुरू से ही हमारी पत्रिका से जुडे हुए हैं। उनके व्यंग्य और कविताएं लोगों ने पसंद की हैं। प्रौद्योगिकी के उनके नियमित स्तंभ ने उनके बहुत से शिष्य बनाए होंगे। मुझे यह बहुत बाद में पता चला कि वे हिंदी कंप्यूटिंग के क्षेत्र के जाने-माने विद्वान हैं। हमारे साथ स्तंभ लिखना उन्होंने बहुत बाद में शुरू किया। चिठ्ठाकारी लोग नियमित रूप से करते हैं और अक्सर व्याकरण और वर्तनी पर ध्यान नहीं देते। संपादन भी नहीं होता है पर इसका मतलब यह नहीं कि उन लेखकों में प्रतिभा नहीं या उनकी हिंदी अच्छी नहीं। कुछ तो सुविधाओं की कमी है जैसे हर एक के पास हिंदी आफ़िस नहीं जो गलत वर्तनी को रेखांकित कर सके, दूसरे समय की भी कमी है। अगर इन्हीं लोगों को समय और सुविधा मिले तो हिंदी साहित्य का कायाकल्प हो सकता है। जब मैंने अतुल के कुछ छोटे आलेख देख कर उनसे नियमित स्तंभ की बात की थी तब वे रचनात्मक आकार में नहीं थे। उन्होंने समय और श्रम लगा कर उसे जो आकार दिया उसे सबने पसंद किया। इसी तरह बहुत से चिठ्ठे ऐसे हैं जिन पर ध्यान दिया जाए तो वे स्तरीय साहित्य की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। हमें प्रसन्नता होगी अगर ऐसे लोग हमारे साथ आकर मिलें और अभिव्यक्ति का हिस्सा बनें। चिठ्ठा लिखने में किसी अनुशासन या प्रतिबध्दता की जरूरत नहीं है। आपका मन है दो दिन लगातार भी लिख सकते हैं और फिर एक हफ्ता ना भी लिखें। पर जब पत्रिका से जुडना होता है तो अनुशासन और प्रतिबध्दता के साथ-साथ काफ़ी लचीलेपन की भी जरूरत होती है। ये गुण जिस भी चिठ्ठाकार में होंगे वह अच्छा साहित्यकार साबित होगा। प्रत्यक्षा हमारी लेखक पहले हैं चिठ्ठाकार बाद में। विजय ठाकुर और आशीष गर्ग आदि कुछ और चिठ्ठाकारों के बारे में भी सच यही है ।


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आपने चिठ्ठा लिखना शुरू किया था। अश्विन गांधी के चित्रों के साथ कुछ खूबसूरत कविताएं लिखीं थीं, चिठ्ठा लिखना स्थगित क्यों कर दिया? हमेशा के लिए स्थगित नहीं हो गया है। थोडा रुक गया है. मुझे अपनी कविताओं के लिए जैसे ले आउट की जरूरत थी उसके लायक तकनीकी जानकारी मेरे पास फिलहाल नहीं है। जैसे पृष्ठ मुझे चाहिए उसके लिए काफ़ी प्रयोग की आवश्यकता है जिसका समय नहीं मिल रहा है। कुछ चिठ्ठाकर जरूर ऐसे होंगे जिन्हें ब्लॉग पर ले आउट और ग्राफ़िक्स के प्रदर्शन की बढिया जानकारी होगी। शायद मुझे कोई ऐसा सहयोगी मिल जाए जो इस काम में सहयोग कर सके। पर अभी तक ऐसा हुआ नहीं है। अगर हो भी तो इस व्यस्तता के दौर में दोनों ओर से काम करने का समय और सुविधा का संयोग होना भी जरूरी है।

कुछ हमारे जैसे चिठ्ठाकार हैं जो आपको जबरदस्ती अपना लिखा पढाते रहते हैं. क्या आप अन्य लोगों को भी नियमित पढ पाती हैं?
चिठ्ठाकार की सदस्य हूं तो नियमित मेल आती है। लगभग सभी नए चिठ्ठाकारों के चिठ्ठे मिल जाते हैं। काफ़ी चिठ्ठे देखती हूं पर सभी लेख पढे हैं ऐसा नहीं कह सकती कभी-कभी छूट भी जाते हैं।
साहित्य से समाज में बदलाव की आशा करना कितना तर्क संगत है?
दो सौ प्रतिशत तर्क संगत है। आप ध्यान दें तो पाएंगे कि दुनिया के सभी क्रांतिकारी श्रेष्ठ लेखक हुए हैं। हां, लेखक में क्रांतिकारी के गुण होने चाहिए। मैं गांधी जी की इस कथन में विश्वास रखती हूं कि ''मुठ्ठी भर संकल्पवान लोग जिनकी अपने लक्ष्य में दृढ आस्था है, इतिहास की धारा को बदल सकते हैं।''

दुनिया में खासकर अंग्रेजी भाषा में हर दूसरे महीने कोई बेस्ट सेलर आता है तथा कोई न कोई नया कीर्तिमान बना जाता है। इसकी तुलना में हिंदी साहित्य की गुणवत्ता तथा प्रचार-प्रसार की स्थिति को किस रूप में देखती हैं?
हिंदी प्रकाशकों में कोई अरब-खरबपति नहीं है, इसलिए वे लोग जोखिम लेने से डरते हैं। नए लेखकों के प्रचार और प्रोत्साहन में पैसे नहीं फेंकते पर आशा रखती हूं कि जल्दी ही ये दिन दूर होंगे। हिंदी को फैशन और सभ्य समाज की भाषा के रूप में अभी तक प्रस्तुत नहीं किया गया है पर समय बदलेगा ज़रूर। अभी बीस साल पहले तक हिंदी में पॉप म्यूजिक़ हास्यास्पद बात समझी जाती थी। सब अंग्रेजी क़े दीवाने थे पर अब देखिए तो सोनी और एम टी वी पर हिंदी पॉप गायकी को कितना प्रोत्साहन मिल रहा है। वीवा, आसमां, इंडियन आइडोल अभिजित सावंत या फेमगुरुकुल के काजी तौकीर जैसे लोगों के पास फैन फालोइंग है, पैसा है। साहित्य में अभी उस ओर लोग सोच रहे हैं। आशा रखें कि यह सोच जल्दी ही कार्यान्वित हो और हिंदी के साहित्य सितारे भी लोगों की भीड क़े साथ जगमगाएं। बडे-बडे बुक स्टोर्स उनके विशेष कार्यक्रम आयोजित करें और उनके हस्ताक्षरों से युक्त पुस्तकें 10 गुने दाम पर बिकें।

नए लेखकों में आप किसमें सबसे ज्यादा संभावनायें देखती हैं?
नाम लेकर तो नहीं कहूंगी पर आजकल हिंदी में लिखने वाले पहले की अपेक्षा बहुत ज्यादा हैं, विद्वान हैं, अंतर्राष्ट्रीय अनुभव से संपन्न हैं। आज हिंदी लेखक कुर्ता झोला वाली छवि से बाहर आ चुका है. वे प्रकाशक या प्रचार के मोहताज भी नहीं हैं. चाहें तो अपना पैसा खर्च कर के स्वयं को स्थापित कर सकते हैं। बस दस साल और इंतजार करें। हिंदी की दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है।

आपकी पसंदीदा पोशाक क्या है?
सदाबहार साडी।

खाने में क्या पसंद है?
कददूकस किया हुआ अरबी खीरा हल्का सा नमक डाल के, गरम-गरम हिंदुस्तानी रोटी के साथ।

सबसे खुशी का क्षण याद हो कोई?
जीवन में कोई बडा उतराव चढाव नहीं रहा। इसलिए खुशी या अवसाद की ऐसी कोई विशेष घटना याद नहीं।

सबसे अवसाद का क्षण?
जैसा पहले कहा।

अगर आपको फिर से जीवन जीनेका मौका मिले तो किस रूप में जीना चाहेंगीं?
मैं 21 साल की उम्र से अभिव्यक्ति पर काम करना चाहूंगी ताकि जब मैं 50 की होऊं तब तक यह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ जालघर हो जाए। 21 वर्ष की उम्र से इसलिए कि इसके पहले मैं वेब पब्लिशिंग में स्नातक या परास्नातक कोई डिग्री लेना पसंद करुंगी।

शब्दांजली के लिए कोई संदेश देना चाहेंगी?
तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार।

--प्रस्तुति - अनूप शुक्ला

मूंछे, नाक और मनोबल--स्नेह मधुर


हर इंसान के चेहरे पर नाक होती है। शरीफ और पढे लिखे लोग इस नाक को अपनी इज्जत बताते हैं। वैसे जानवरों की भी नाक होती है, लेकिन जानवरों की नाक इंसानी नाक की तरह जब तब कटती नहीं रहती है। यह शोध का विषय हो सकता है कि इंसान को अपनी नाक कटने से अधिक पीड़ा होती है या जेब कटने से? इंसान की जेब और नाक में किस तरह का संबंध है?
इंसान की 'अनकवर्ड ' नाक उसकी प्रतिष्ठा का प्रतीक कब और कैसे बन गई यह भी शोध का विषय हो सकता है। शरीर के किसी अंग पर हमला हो या किसी का चारित्रिक पतन हो जाय लेकिन बोलचाल की भाषा में इसे प्रतिष्ठित व्यक्ति की नाक कटना ही कहा जाता है। यहां तक कि लोग घृणा मिश्रित स्वर में कहने लगते हैं , देखो उसने अपनी नाक कटा डाली।
कहने को तो यह कहा जा सकता है कि इंसान क्या जनवरों के पास तक नाक होती है। लेकिन अपने देश में राजनीतिक नाम का एक प्राणी होता है, जिसके पास नाक नहीं होती। क्या अपने कभी सुना है कि किसी नेता की नाक कट गयी? नाक तो उसी की कट सकती है जिसकी जेब भी कट सकती हो। जेब काटने वालों की नाक भला कैसे कटेगी? लेकिन आप माने या न माने , पुलिस वालों के पास भी नाक होती है, जो इंसान और जानवरों की नाक से भिन्न होती है। एक फर्क यह भी है कि पुलिस वालों की नाक जब तब कटती नहीं रहती और उनकी जेब तो खैर कभी कटती ही नहीं। या इसे यूं भी कहा जा सकता है कि उनकी नाक कट ही नहीं सकती क्योंकि उनकी नाक स्थूल नहीं होती है। इंसान की नाक टेलीविजन का वह मानीटर है जिस पर तन और मन में हो रहे परिवर्तनों को देखा जा सकता है। टेलीविजन पर दक्षिणी अफ्रीका और जिम्बाब्वे के साथ हो रहे क्रिकेट मैच के उतार -चढाव को देखकर उत्साही लोग कह रहे थे कि फलां टीम ने अपनी नाक कटा दी या फला टीम ने अपने देश की नाक ऊंची कर दी। पुलिस वालों की नाक मेन्होल का ढक्कन होती है जिसको ऊपर से देखकर भीतर बहने वाले पदार्थ का अंदाज लगाने में गङबङी हो सकती है।
पुलिस और इंसान के पास एक चीज कामन होती है। वह है मनोबल। यह मनोबल बङा क्षण भंगुर होता है। जरा सी हवा बदली नहीं या सामने वाले ने घुर कर देख लिया नहीं कि कच्च की आवाज के साथ टूट जाता है। अगर मनोबल के नीचे पानी की लहरें थपेङे देने लगें तो यह ऊपर उठने लगता है। कभी-कभी मुझे लगता है कि मनोबल हौज में भरे पानी में तैरती नाव है। पानी भर दिया तो यह मनोबल ऊपर उठने लगता है। पानी निकाल दिया तो मनोबल बैठ गया।
अखबारों में अकसर खबरें छपती हैं कि पुलिस की नाक के नीचे राहजनी हो रही है, तसकरी हो रही है। पुलिस की नाक अखबार वालों की नजर में नाक नहीं ढक्कन है, दरवाजा है, दरवाजे पर लटकता ताला है। तालाबंद किया और भीतर कुछ भी हो रहा है इससे किसी को कोई मतलब नहीं होना चाहिये। अगर इंसान की नाक उसके चरित्र का आईना है तो पुलिस की नाक वह फ्रेम है जिसमें कारीगर शीशा लगाना ही भूल गया है। अब कोई क्या कर लेगा?
नाक के नीचे आम तौर पर मूंछे पाई जाती हैं। अगर मूंछे नहीं है तो नाक के नीचे सीधे उदरस्थ करने वाला मुंह मिलेगा। मूंछे बङी खतरनाक चीज होती हैं। जिसकी जितनी बङी मूंछे होंगी उसे फर्स्ट साइट में उतना ही खतरनाक मान लिया जाता है, भले ही वह चूहा देखकर रजाई में घुस जाय। बिना मूंछ वाले किसी व्यक्ति के सामने बैठकर कोई मूंछवाला अगर नाहक ही अपनी मूंछो को ऎंठने लगे तो साहब बिना चाकू तमंचे के ही दंगा हो जायेग। सामने वाले की आंखो में अपनी आंखे डालकर अपनी मूंछो पर उंगलियां फेरना बिना घोषणा के युद्व का ऎलान है। अगर मूंछो पर उंगलियां फेरने वाला साथ में मुस्कुराता भी जा रहा हो तो यह मुस्कुराहट सीज फायर नहीं बल्कि आग मॆं घी डालने का काम करेगी। मेरे एक मित्र कहते हैं कि मूंछो पर उंगलियां फ्राते हुये मुस्कुराना वैसा ही है जैसे किसी देश पर कब्जा करने के बाद वहां के लाल किले जैसी इमारत पर झंडा रोहण करना।
मूंछ नाक और मनोबल का आपस में क्या संबंध है? किस अदृश्य नाजुक डोर से ये बंधे हैं, यह समझना टेढी खीर है। तीनों में दोस्ती या दुश्मनी का कोई रिश्ता जरूर है। संभवतः ये इंटरनेट जैसी किसी प्रणाली से जुङे हों जिसकी खोज करना अभी बाकी हो। लेकिन ऎसा क्यों होता हैकि पुलिस वालों की बङी-बङी मूंछे देखकर बिना मूंछो वालों का मनोबक तत्काल गिर जाता है। जैसे जेठ की दोपहरी में अचानक ओला गिरने से तापमान गिर जाता है। इसी तरह से शरीफ लोगों की नाक ऊंची होते देख पुलिस वालों का मनोबल पहाङ के शीर्ष से लुढकते पत्थर की तरह गिरने लगता है। जब किसी पुलिस वाले की मूंछे नीचे की तरफ झुकती हैं तो शरीफ व्यक्ति की नाक कटती है तो पुलिस वालों का मनोबल बोतल से निकले जिन्न की तरह बढने लगता है....हा...हा..।
किसी गरीब को सताने, जमीन से गैर कानूनी रूप बेदखल कर देने, अपराधियों के साथ मिलकर साजिश रचने और हजार गुनाह करने के बाद भी पुलिस का मनोबल क्यों बढता है और यदाकदा किसी मामले में फंस जाने पर, फर्जी मुठभेङ का मामला खुल जाने पर या शरीफ लोगों को अपमानित करने के मामले में दंडित हो जाने पर उनका सिर शर्म से क्यों नहीं झुकता है? उनका मनोबल क्यों गिरने लगता है? क्या ऎसा नहीं हो सकता कि पुलिस के मनोबल और शरीफ लोगों की नाक में सीधा संबंध हो जाय। यानी समानुपाती। अर्थात शरीफों के सम्मान की रक्षा करने पर पुलिस का मनोबल बढे, उनकी नाक और मूंछे दोनो ऊपर हो जाय। काश ऎसा हो सकता।
स्नेह मधुर

Wednesday, September 22, 2010

निर्मल वर्मा

 निर्मल वर्मा
जन्म : १९२९ ।
जन्मस्थान : शिमला। बचपन पहाड़ों पर बीता।
शिक्षा : सेंट स्टीफेंसन कालेज, दिल्ली से इतिहास में एम. ए. । कुछ वर्ष अध्यापन भी किया।
१९५९ में प्राग, चेकोस्लोवाकिया के प्राच्यविद्या संस्थान और चेकोस्लोवाकिया लेखक संघ द्वारा आमन्त्रित। सात वर्ष चेकोस्लोवाकिया में रहे और कई चेक कथाकृतियों के अनुवाद किये। कुछ वर्ष लंदन में यूरोप प्रवास के दौरान टाइम्स आफ इन्डिया के लिये वहां की सांस्कृतिक-राज्नीतिक समस्याओं पर लेख और रिपोर्ताज लिखे।
१९७२ में भारत वाप्सी। इसके बाद इन्डियन इंस्टीट्यूट आफ एड्वांस स्टडीज़ (शिमला) में फेलो रहे और मिथक चेतना पर कार्य किया। १९७७ में इंटरनेशनल राइटिंग प्रोग्राम, आयोवा(अमेरिका) में हिस्सेदारी।
उनकी 'मायादर्पण' कहानी पर फिल्म बनी जिसे १९७३ में सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म का पुरस्कार प्राप्त हुआ।
वे निराला सृजन पीठ, भॊपाल (१९८१-८३) और यशपाल सृजन पीठ शिमला(१९८९) के अध्यक्ष भी रहे।
१९८७में इंग्लैंड के प्रकाशक रीडर्स इंटरनेशनल द्वारा निर्मल वर्मा का कहानी संग्रह 'द वर्ल्ड एल्सव्हेयर' प्रकाशित किया गया। उसी अवसर पर उनके व्यक्तित्व पर बी.बी.सी चैनल४ पर एक प्रसारित व इंस्टीट्यूट आफ कान्टेम्प्रेर्री आर्ट्स (आई.सीए.) द्वारा अपने वीडियो संग्रहालय के लिये उनका एक लंबा इंटरव्यू रिकार्डित किया गया।
उनकी पुस्तक क्व्वे और कालापानी को साहित्य अकादमी (१९८५)से सम्मानित किया गया।
संपूर्ण कृतित्व के लिये १९९३ का साधना सम्मान दिया गया।
उ.प्र. हिंदी संस्थान का सर्वोच्च राम मनोहर लोहिया अतिविशिष्ट सम्मान (१९९५) में मिला।
भारतीय ज्ञान पीठ का मूर्तिदेवी सम्मान (१९९७) में मिला।
प्रकाशित पुस्तकें:
वे दिन, लाल टीन की छत, एक चिथड़ा सुख, रात का रिपोर्टर (उपन्यास);
परिंदे, जलती झाड़ी, पिछली गर्मियों में, कव्वे और काला पानी, प्रतिनिधि कहानियां, मेरी प्रिय कहानियां, बीच बहस में, सूखा तथा अन्य कहानियां (कहानी संग्रह);
चीड़ों पर चांदनी, हर बारिश में (यात्रा संस्मरण);
शब्द और स्मृति, कला और जोखिम, ढलान से उतरते हुये, भारत और यूरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र, शताब्दी के ढलते वर्षों में (निबन्ध);
तीन एकांत नाटक)
दूसरी दुनिया (संचयन)
अंग्रेजी में अनुदित :
डेज़ आफ लागिंग. डार्क डिस्पैचेज़, ए रैग काल्ड हैपीनैस (उपन्यास)
हिल स्टेशन, क्रोज़ आफ डिलीवरेम्स, द वर्ल्ड एल्स्व्हेयर, सच ए बिग इयर्निंग (कहानियां)
वर्ल्ड एंद मेरी (निबन्ध)
हिन्दी में अनुदित: कुप्रीन की कहानियां

दहलीज --निर्मल वर्मा


दहलीज --निर्मल वर्मा
 पिछली रात रूनी को लगा कि इतने बरसों बाद कोई पुराना सपना धीमे कदमों से उसके पास चला आया है। वही बंगला था, अलग कोने में पत्तियों से घिरा हुआ....धीरे धीरे फाटक के भीतर घुसी है...मौन की अथाह गहराई में लान डूबा है....शुरु मार्च की वसंती हवा घास को सिहरा-सहला जाती है...बहुत बरसों के एक रिकार्ड की धुन छतरी के नीचे से आ रही है...ताश के पत्ते घांस पर बिखरे हैं....लगता है शम्मी भाई अभी खिलखिला कर हंस देंगे और आपा(बरसों पहले जिनका नाम जेली था) बंगले के पिछवाड़े क्यारियों को खोदते हुये पूंछेंगी- रूनी जरा मेरे हांथों को तो देख, कितने लाल हो गये हैं!

इतने बरसों बाद रूनी को लगा कि वह बंगले के सामने खड़ी है और सब कुछ वैसा ही है, जैसा कभी बरसों पहले, मार्च के एक दिन की तरह था...कुछ भी नहीं बदला, वही बंगला है, मार्च की खुश्क, गरम हवा सांय-सांय करती चली आ रही है, सूनी सी दोपहर को परदे के रिंग धीमे-धीमे खनखना जाते हैं-और वह घांस पर लेटी है-बस, अब अगर मैं मर जाऊं, उसने उस घड़ी सोंचा था।

लेकिन वह दोपहर ऎसी न थी कि केवल चाहने भर से कोई मर जाता। लान के कोने में तीन पेड़ों का झुरमुट था, ऊपर की फुनगियां एक दूसरे से बार-बार उलझ जातीं थीं। हवा चलने से उनके बीच के आकाश की नीली फांक कभी मुंद जाती थी कभी खुल जाती थी। बंगले की छत पर लगे एरियल पोल के तार को देखो, (देखो तो घांस पर लेटकर अधमुंदी आंखो से रूनी ऎसे ही देखती है) तो लगता है, कैसे वह हिल रहा है हौले-हौले -अनझिप आंख से देखो(पलक बिल्कुल न मूंदो, चांहे आंखों में आंसू भर जायें तो भी- रूनी ऎसे ही देखती है।) तो लगता है जैसे तार बीच में से कटता जा रहा है और दो कटे हुये तारों के बीच आकाश की नीली फांक आंसू की सतह पर हल्के-हल्के तैरने लगती है....

हर शनिवार की प्रतीक्षा हफ्ते भर की जाती है।...वह जेली को अपने स्टाम्प एल्बम के पन्ने खोल कर दिखलाती है और जेली अपनी किताब से आंखे उठाकर पूंछती है-अर्जेन्टाइना कहां है? सुमात्रा कहां है?...वह जेली के प्रश्नों के पीछे छिपे फैली हुई असीम दूरियों के धूमिल छोर पर आ खड़ी होती है।...हर रोज़ नये-नये देशों के टिकटों से एल्बम के पन्ने भरते जाते हैं, और जब शनिवार की दोपहर को शम्मी भाई होटल से आते हैं, तो जेली कुर्सी से उठ खड़ी होती है, उसकी आंखो में एक घुली-घुली सी ज्योति निखर जाती है और वह रूनी के कंधे झकझोर कर कहती है- जा, जरा भीतर से ग्रामोफोन तो ले आ।

रुनी क्षण भर रुकती है, वह जाये या वहीं खड़ी रहे? जेली उसकी बड़ी बहन है,उसके और जेली के बीच बहुत से वर्षों का सूना और लम्बा फासला है। उस फासले के दूसरे छोर पर जेली है, शम्मी भाई हैं, वह इन दोनों में से किसी को छू नहीं सकती। वे दोनों उससे अलग जीते हैं।...ग्रामोफोन महज एक बहाना है, उसे भेजकर जेली शम्मी भाई के संग अकेली रह जायेगी और तब....रूनी घांस पर अकेली भाग रही है बंगले की तरफ...पीली रोशनी में भीगी घांस के तिनको पर रेंगती हरी, गुलाबी धूप और दिल की धड़कन, हवा दूर के मटियाले पंख एरियल पोल को सहला जाते हैं सर्र सर्र, और गिरती हुई लहरों की तरह झाड़ियां झुक जाती हैं। आंखो से फिसलकर वह बूंद पलकों की छाह में कांपती है, जैसे वह दिल की धड़कन है, जो पानी में उतर आई है।

शम्मी भाई जब होटल से आते हैं, तो वे सब उस शाम लान के बीचोंबीच कैन्वास की पैराशूट्नुमा छतरी के नीचे बैठते हैं। ग्रामोफोन पुराने जमाने का है। शम्मी भाई हर रिकार्ड के बाद चाभी देते हैं, जेली सुई बदलती हैऔर वह, रूनी चुपचाप चाय पीती है। जब कभी हवा का कोई तेज झोंका आता है, तो छतरी धीरे-धीरे डॊलने लगती है, उसकी छाया चाय के बर्तनों, टिकोज़ी और जेली के सुनहरे बालों को हल्के से बुहार जाती है और रूनी को लगता है कि किसी दिन हवा का इतना जबर्दस्त झोंका आयेगा कि छतरी धड़ाम से नीचे आ गिरेगी और वे तीनों उसके नीचे दब मरेंगे।

शम्मी भाई जब अपने होस्टल की बातें बताते हैं, तो वह और जेली विस्मय और कौतुहूल से टुकुर-टुकुर उनके हिलते हुये होंठों को निहारती हैं। रिश्ते में शम्मी भाई चाहें उनके कोई न लगते हों लेकिन उनसे जान पहचान इतनी पुरानी है कि अपने पराये का अंतर कभी उनके बीच याद आया हो, याद नहीं पड़ता। होस्टल में जाने से पहले जब वह इस शहर में आये थे, तो अब्बा के कहने पर कुछ दिन उनके ही घर रहे थे। जब कभी वह शनिवार को उनके घर आते हैं, तो अपने संग जेली के लिये यूनीवर्सिटी की लायब्रेरी से अंग्रेजी उपन्यास और अपने दोस्तों से मांगकर कुछ रिकार्ड लाना नहीं भूलते।

आज इतने बरसों बाद भी जब उसे शम्मी भाई के दिये हुये अजीब-अजीब नाम याद आते हैं, तो हंसी आये बिना नहीं रहती। उनकी नौकरानी मेहरू के नाम को चार चांद लगाकर शम्मी भाई ने कब सदियों पहले की सुकुमार राजकुमारी मेहरुन्निसा बना दिया, कोई नहीं जानता। वह रेहाना से रूनी बन गई आपा पहले बेबी बनी, उसके बाद जेली आइसक्रीम और अखिर में बेचारी सिर्फ जेली बनकर रह गई। शम्मी भाई के नाम इतने बरसों बाद भी , लान की घास और बंगले की दीवारों से लिपटी बेल-लताओं की तरह, चिरन्तन और अमर है।

ग्रामोफोन के घूमते हुये तवे पर फूल पत्तियां उग आती हैं, एक आवाज़ उन्हें अपने नरम, नंगे हांथों से पकड़कर हवा में बिखेर देती है, संगीत के सुर झाडियों में हवा से खेलते हैं, घांस के नीचे सोई हुई भूरी मिट्टी पर तितली का नन्हा सा दिल धड़्कता है...मिट्टी और घांस के बीच हवा का घोंसला कांपता है...कांपता है...और ताश के पत्तों पर जेली और शम्मी भाई के सिर झुकते हैं, उठते हैं, मानो वे चार आंखो से घिरी झील में एक दूसरे की छायायें देख रहे हों।

और शम्मी भाई जो बात कहते हैं, उस पर विश्वास करना न करना कोई माने नहीं रखता। उनके सामने जैसे सब कुछ खो जाता है...और कुछ ऎसी चीज़ें हैं जो मानो चुप रहती हैं और जिन्हें जब रूनी रात को सोने से पहले सोंचती है, तो लगता है कहीं गहरा, धुंधला सा गड्ढा है, जिसके भीतर वह फिसलते-फिसलते बच जाती है, और नहीं गिरती तो मोह रह जाता है न गिरने का। ...और जेली पर रोना आता है, गुस्सा आता है। जेली में क्या कुछ है, जो शम्मी भाई जो उसमें देखते हैं , वह रूनी में नहीं देखते? और जब शम्मी भाई जेली के सांग रिकार्ड बजाते हैं, ताश खेलते हैं, ( मेज के नीचे अपना पांव उसके पांव पर रख देते हैं) तो वह अपने कमरे की खिड़्की के परदे के परे चुपचाप उन्हें देखती रहती है, जहां एक अजीब सी मायावी रहस्मयता में डूबा, झिलमिल सा सपना है और परदे को खोलकर पीछे देखना, यह क्या कभी नहीं हो पायेगा?

मेरा भी एक रहस्य है जो ये नहीं जानते, कोई नहीं जानता। रूनी ने आंखे मूंदकर सोंचा, मैं चाहूं तो कभी भी मर सकती हूं, इन तीन पेड़ों के झुरमुट के पीछे, ठन्डी गीली घांस पर, जहां से हवा में डोलता हुआ एरियल पोल दिखाई देता है।

हवा में उड़ती हुई शम्मी भाई की टाई...उनका हांथ, जिसकी हर उंगली के नीचे कोमल सफेद खाल पर लाल-लाल से गड्ढे उभर आये थे, छोटे-छोटे चांद से गड्ढे, जिन्हें अगर छुओ, मुट्ठी में भींचो, ह्ल्के-ह्ल्के से सहलाओ, तो कैसा लगेगा? सच कैसा लगेगा? किन्तु शम्मी भाई को नहीं मालूम कि वह उनके हांथों को देख रही है, हवा में उड़ती हुई उनकी टाई, उनकी झिपझिपाती आंखो को देख रही है।

ऎसा क्यों लगता है कि एक अपरिचित डर की खट्टी-खट्टी सी खुशबू अपने में धीरे-धीरे घेर रही है, उसके शरीर के एक एक अंग की गांठ खुलती जा रही है, मन रुक जाता है और लगता है कि वह लान से बाहर निकलकर धरती के अंतिम छोर तक आ गई है और उसके परे केवल दिल की धड़कन है, जिसे सुनकर उसका सिर चकराने लगता है( क्या उसके संग ही ये सब होता है या जेली के संग भी)।

-तुम्हारी ऎल्बम कहां है?- शम्मी भाई धीरे से उसके सामने आकर खड़े हो गये। उसने घबराकर शम्मी भाई की ओर देखा। वह मुस्कुरा रहे थे।
-जानती हो इसमें क्या है)- शम्मी भाई ने उसके कंधे पर हांथ रख दिया। रूनी का दिल धौकनी की तरह धड़कने लगा। शायद शम्मी भाई वही बात कहने वाले हैं, जिसे वह अकेले में, रात को सोने से पहले कई बार मन-ही-मन सोंच चुकी है। शायद इस लिफाफे के भीतर एक पत्र है, जो शम्मी भाई ने उसके लिये ,केवल उसके लिये लिखा है। उसकी गर्दन के नीचे फ्राक के भीतर से ऊपर उठती हुई कच्ची सी गोलाइयों में मीठी-मीठी सी सुईयां चुभ रही हैं, मानो शम्मी भाई की आवाज़ ने उसकी नंगी पसलियों को हौले से उमेठ दिया हो। उसे लगा, चाय की केतली की टीकोज़ी पर लाल-नीली मछलियां काढी गई हैं, वे अभी उछलकर हवा में तैरने लगेंगी और शम्मी भाई सब कुछ समझ जायेंगे-उनसे कुछ भी छिपा न रहेगा।

शम्मी भाई ने नीला लिफाफा मेज पर रख दिया और उसमें से टिकट निकालकर मेज पर बिखेर दिये।
-ये तुम्हारी एल्बम के लिये हैं....
वह एकाएक कुछ समझ नहीं सकी। उसे लगा, जैसे उसके गले में कुछ फंस गया है और उसकी पहली और दूसरी सांस के बीच एक गहरी अंधेरी खाई खुलती जा रही है....

जेली, जो माली के फावड़े से क्यारी खोदने में जुटी थी, उनके पास आकर खड़ी हो गई और अपनी हथेली हवा में फैलाकर बोली-देख रूनी, मेरे हांथ कितने लाल हो गये हैं!

रूनी ने अपना मुंह फेर लिया।...वह रोयेगी, बिल्कुल रोयेगी, चाहें जो कुछ हो जाय...

चाय खत्म हो गई थी। मेहरुन्निसा ताश और ग्रामोफोन भीतर ले गई और जाते-जाते कह गई कि अब्बा उन सबको भीतर आने के लिये कह रहे हैं। किन्तु रात होने में अभी देर थी, और शनिवार को इतनी जल्दी भीतर जाने के लिये किसी को कोई उत्साह नहीं था। शम्मी भाई ने सुझाव दिया कि वे कुछ देर के लिये वाटर रिजर्वायर तक घुमने चलें। उस प्रस्ताव पर किसी ने कोई अपत्ति नहीं थी। और वे कुछ ही मिनटों में बंगले की सीमा पार करके मैदान की ऊबड़ खाबड़ जमीन पर चलने लगे।

चारों ओर दूर-दूर तक भूरी सूखी मिट्टी के ऊंचे-नीचे टीलों और ढूहों के बीच बेरों की झाड़ियां थीं, छोटी-छोटी चट्टानों के बीच सूखी धारा उग आई थी, सड़ते हुये सीले हुये पत्तों से एक अजीब, नशीली सी, बोझिल कसैली गंध आ रही थी, धूप की मैली तहों पर बिखरी-बिखरी सी हवा थी।

शम्मी भाई सहसा चलते-चलते ठिठक गये।
-रुनी कहां है?
-अभी हमारे आगे आगे चल रही थी-जेली ने कहा। उसकी सांस ऊपर चढती है और बीच में ही टूट जाती है।
दोनों की आंखे मैदान के चारों ओर घूमती हैं... मिट्टी के ढूहों पर पीली धूल उड़ती है।...लेकिन रूनी वहां नहीं है, बेर की सूखी, मटियाली झाड़ियां हवा में सरसराती हैं, लेकिन रूनी वहां नहीं है। ...पीछे मुड़कर देखो, तो पगडन्डियों के पीछे पेड़ों के झुरमुट में बंगला छिप गया है, लान की छतरी छिप गई है...केवल उनके शिखरों के पत्ते दिखाई देते है, और दूर ऊपर फुनगियों का हरापन सफेद चांदी में पिघलने लगा है। धूप की सफेदी पत्तों से चांदी की बूंदो सी टपक रही है।

वे दोनों चुप हैं...शम्मी भाई पेड़ की टहनी से पत्थरों के इर्द गिर्द टेढी-मेढी रेखायें खींच रहे हैं। जेली एक बड़े से चौकोर पत्थर पर रुमाल बिछाकर बैठ गई है। दूर मैदान के किसी छोर से स्टोन कटर मशीन का घरघराता स्वर सफेद हवा में तिरता आता है, मुलायम रुई में ढकी हुई आवाज की तरह, जिसके नुकीले कोने झार गये हैं।

-तुम्हें यहां आना बुरा तो नहीं लगता?- शम्मी भाई ने धरती पर सिर झुकाये धीमे स्वर में पूंछा।
-तुम झूठ बोले थे। - जेली ने कहा।
-कैसा झूठ, जेली?
-तुमने बेचारी रूनी को बहकाया था, अब वह न जाने कहां हमें ढूंढ रही होगी।
-वह वाटर-रिजर्वायर की ओर गई होगी, कुछ ही देर में वापस आ जायेगी। -शम्मी भाई उसकी ओर पीठ मोड़े टहनी से धरती पर कुछ लिख रहे हैं।
जेली की आंखो पर छोटा सा बादल उमड़ आया है-क्या आज शाम कुछ नहीं होगा, क्या जिन्दगी में कभी कुछ नहीं होगा? उसका दिल रबर के छल्ले की मानिंद खिचता जा रहा है।
-शम्मी!...तुम यहां मेरे संग क्यों आये? - और वह बीच में ही रुक गई। उसकी पलकों पर रह रह कर एक नरम सी आहट होती है और वे मुंद जाती हैं, उंगलियां स्वयं-चालित सी मुट्ठी में भिंच जाती हैं, फिर अवश सी आप ही अप खुल जाती हैं।
-जेली, सुनो...
शम्मी भाई जिस टहनी से जमीन को कुरेद रहे थे, वह टहनी कांप रही थी। शम्मी भाई के इन दो शब्दों के बीच कितने पत्थर हैं, बरसों, सदियों के पुराने, खामोश पत्थर, कितनी उदास हवा है और मार्च की धूप है, जो बरसों बाद इस शाम को उनके पास आई है और फिर कभी नहीं लौटेगी। ..शम्मी भाई...! प्लीज़!..प्लीज़!..जो कुछ कहना है, अभी कह डालो, इसी क्षण कह डालो! क्या आज शाम कुछ नहीं होगा, क्या ज़िन्दगी में कभी कुछ नहीं होगा?

वे बंगले की तरफ चलने लगे- ऊबड़ खाबड़ धरती पर उनकी खामोश छायायें ढलती हुई धूप में सिलटने लगीं।...ठहरो! बेर की झाड़ियों के पीछे छिपी हुई रूनी के होठ फड़क उठे, ठहरो, एक क्षण! लाल भुरभुरे पत्तों की ओट में भूला हुआ सपना झांकता है, गुनगुनी सी सफेद हवा, मार्च की पीली धूप, बहुत दिन पहले सुने रिकार्ड की जानी-पहचानी ट्यून, जो चारों ओर फैली घांस के तिनकों पर बिछल गई है...सब कुछ इन दो शब्दों पर थिर हो गया है, जिन्हें शम्मी भाई ने टहनी से धूल कुरेदते हुये धरती पर लिख दिया था, 'जेली...लव'

जेली ने उन शब्दों को नहीं देखा। इतने सालों के बाद आज भी जेली को नहीं मालूम कि उस शाम शम्मी भाई ने कांपती टहनी से जेली के पैरों के पास क्या लिख दिया था। आज इतने लम्बे अर्से बाद समय की धूल उन शब्दों पर जम गई है। ...शम्मी भाई, वह और जेली तीनों एक दूसरे से दूर दुनिया के अलग- अलग कोनों में चले गये हैं, किन्तु आज भी रूनी को लगता है कि मार्च की उस शाम की तरह वह बेर की झाडियों के पीछे छिपी खड़ी है, (शम्मी भाई समझे थे कि वह वाटर-रिजर्वायर की तरफ चली गई थी) किन्तु वह सारे समय झाड़ियों के पीछे सांस रोके , निस्पन्द आंखो से उन्हें देखती रही थी, उस पत्थर को देखती रही थी, जिस पर कुछ देर पहले शम्मी भाई और जेली बैठे रहे थे।...आंसुओं के पीछे सब कुछ धुंधला-धुंधला सा हो जाता है...शम्मी भाई का कांपता हांथ, जेली की अध मुंदी सी आंखे, क्या वह इन दोनों की दुनिया में कभी प्रवेश नहीं कर पायेगी?

कहीं सहमा सा जल है और उसकी छाया है, उसने अपने को देखा है, और आंखे मूंद ली हैं। उस शाम की धूप के परे एक हल्का सा दर्द है, आकाश के उस नीले टुकड़े की तरह, जो आंसू के एक कतरे में ढरक आया था। इस शाम से परे बरसों तक स्मृति का उद्भ्रान्त पाखी किसी सूनी पड़ी हुई उस धूल पर मंडराता रहेगा, जहां केवल इतना भर लिखा है..'जेली ..लव'

उस रात जब उनकी नौकरानी मेहरुन्निसा छोटी बीबी के कमरे में गई, तो स्तम्भित सी खड़ी रह गई। उसने रूनी को पहले कभी ऎसा न देखा था।
-छोटी बीबी, आज अभी से सो गईं? मेहरू ने बिस्तर के पास आकर कहा।
रूनी चुपचाप आंखे मूंदे लेटी है। मेहरू और पास खिसक गई है। धीरे से उसके माथे को सहलाया- छॊटी बीबी क्या बात है?
और तब रूनी ने अपनी पलकें उठा लीं, छत की ओर एक लम्बे क्षण तक देखती रही, उसके पीले चेहरे पर एक रेखा खिंच आई...मानो वह दहलीज हो, जिसके पीछे बचपन सदा के लिये छूट गया हो...
-मेहरू ,.बत्ती बुझा दे- उसने संयत, निर्विकार स्वर में कहा- देखती नहीं, मैं मर गई हूं!