tag:blogger.com,1999:blog-84660011090173448792023-11-16T07:41:55.458-08:00शब्दांजलिहिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाSarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.comBlogger37125tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-47881770258460551102011-02-07T21:54:00.000-08:002011-02-07T21:55:49.608-08:00डा देवव्रत जोशी की एक कविता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br />
</div>बसंत पंचमी <a href="mailto:http://www.sahajmarg.org/lalaji-maharaj">लाला जी महाराज</a> के जन्मदिवस पर <a href="http://shabdokiunjali.blogspot.com/2011/02/blog-post_07.html">डा देवव्रत जोशी</a> की एक कविता<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgEur1tJYUr3HzOUkpW3sMmfVDsKdp7PgXFZ6kGw2zMnR-sfweZ4r11E2IUWm6obnRkJ0UEnVgI7MIbfeRu2i26bpk7Ti6toCyZTn3FC0iPyXkGWpj3rMEVtK6Ge5Si-rHxiu47WZK6CWQ/s1600/devvrat.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgEur1tJYUr3HzOUkpW3sMmfVDsKdp7PgXFZ6kGw2zMnR-sfweZ4r11E2IUWm6obnRkJ0UEnVgI7MIbfeRu2i26bpk7Ti6toCyZTn3FC0iPyXkGWpj3rMEVtK6Ge5Si-rHxiu47WZK6CWQ/s400/devvrat.jpg" width="285" /></a></div></div>Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-69751154087659111502011-02-07T21:49:00.000-08:002011-02-07T22:02:43.144-08:00डॉ. देवव्रत जोशी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhvm7-zOFrrENR64rSMVSE4X8auTAtnZ3H-S59FEzZCNXe0z5epTJqu0aO16EYVO137_px91LGwBjqFz9pYZjlTILoSCCgMWDRWJBoH2s3fb5BxhsZJpaQLWKCXCqLw5vkg6PoKVPHy6Q0/s1600/Dr.Dev+Vret+Joshi+2011+1.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhvm7-zOFrrENR64rSMVSE4X8auTAtnZ3H-S59FEzZCNXe0z5epTJqu0aO16EYVO137_px91LGwBjqFz9pYZjlTILoSCCgMWDRWJBoH2s3fb5BxhsZJpaQLWKCXCqLw5vkg6PoKVPHy6Q0/s320/Dr.Dev+Vret+Joshi+2011+1.jpeg" width="212" /></a></div>मालवा अंचल के जिन समर्थ रचनाकारों को देशव्यापी पहचान मिली है कविवर देवव्रत जोशी उनमें से एक महत्वपूर्ण नाम है.प्रगतिशील विचारधारा के इस कवि का तेवर,कहन और शिल्प एकदम अनूठा है. दिनकर,सुमन,बच्चन और भवानीप्रसाद मिश्र जैसे स्वनामधन्य साहित्यकारों का स्नेहपूर्ण सान्निध्य देवव्रतजी को मिला है. वे सुदीर्घ समय तक रतलाम के निकट रावटी क़स्बे में प्राध्यापन करने के बाद अब रतलाम में आ बसे हैं.पिचहत्तर के अनक़रीब देवव्रत जोशी प्रगतिशील लेखक संघ में ख़ासे सक्रिय रहे हैं और अब जनवादी लेखक संघ की रचनात्मक गतिविधियों में संलग्न हैं.<br />
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डा. देवव्रत जोशी के बारे में और जानकारी के लिए यहाँ जाएँ:-<br />
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<a href="http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_9206.html">http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_9206.html</a><br />
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<a href="http://www.lakesparadise.com/madhumati/show-article_1565.html">http://www.lakesparadise.com/madhumati/show-article_1565.html</a></div>Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-22157863358743233012011-02-04T18:58:00.000-08:002011-02-04T19:00:46.065-08:00कैंसर--तेजेन्द्र शर्मा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">क्या हो गया है मुझे? मुझ जैसा तर्कसम्मत व्यक्ति भी किन चक्करों में फंस गया है? ....क्या प्यार मनुष्य को इतना कमजोर बना देता है?...नहीं....संभवतः प्यार के खो जाने का डर उससे कुछ भी करवा सकता है।...शायद...इसलिये इस कैंसर समूह ने मुझे इस बुरी तरह जकड़ लिया है।<br />
कैंसर!...<br />
"युअर वाइफ इज़ सफरिंग प्राम कार्सीनोमा आफ...."<br />
उस समय इन शब्दों का वजन ठीक से महसूस नहीं हो पाया था। इतने भारी-भरकम नाम वाली बीमारी ने जैसे मुझे बौरा दिया था। डा. पिन्टो अपने प्रोफेशनल अंदाज में मुझे समझा रहे थे कि मेरी पत्नी को क्या बीमारी हो गई है।<br />
"इसका मतलब क्या हुआ डाक्टर साहब?" मेई आवाज रिरियाती हुई सी निकली थी। <br />
"वैल! सीधे साधे शब्दों में यूं कह सकते हैं कि आपकी वाइफ को कैंसर है और उनकी लैफ्ट ब्रेस्ट का आपरेशन करना होगा...यानी कि 'रैडिकल मैसेक्टमी'।<br />
पूनम को कैसे बताऊंगा?...कल उसका जनम्दिन है....तैंतीसवा जन्मदिन। ...क्या यह समाचार उसके जन्मदिन का तोहफा है?...क्या उससे झूंठ बोल जाऊं?...पर क्या वह दूध पीती बच्ची है? ...रिपोर्ट तो मांगेगी ही...देखेगी भी..और पढेगी भी।...तो फिर? 'रैडिकल मैसेक्टमी'। मतलब कि बाईं ब्रेस्ट का काटना...यानी कि पूनम अधूरी ...यह मैं क्या सोंचने लगा?...क्या मैं पूनम को केवल छाती की गोलाइयों के कारण प्यार करता हूं? विवाह के दस वर्षों का अर्थ केवल छातियां ही हैं?...नहीं-नहीं..यह आपरेशन तो क्या दुनिया का कोई भी हादसा उसकी पूनम को अधूरा नहीं बना सकता।...पूनम तो मेरे जीवन का सरमाया है...मेरी पूंजी है। मुझे दस वर्ष चांद सी ठंडक देने वाली पूनम पर अब क्या गुजरने वाली है?...आकांक्षा तो थोड़ी समझदार हो गई है...आठ वर्ष की हो गई है...परंतु अपूर्व तो अभी केवल तीन साल का ही है।...क्या वह अभी से बिन मां का हो जायेगा?...क्या पूनम भी बस एक तस्वीर बन कर दीवार पर लटक जयेगी, जिस पर एक हार चढा होगा?<br />
"फिर आप क्या सलाह देते हैं डाक्टर साहब", मेरी आवाज रो रही थी।<br />
"इसमें अब सलाह जैसी कोई बात है ही नहीं मि.मेहरा! मैं तो यही कहूंगा कि आपरेशन जल्दी से जल्दी हो जाना चाहिये। अब यह आपरेशन चाहें आप टाटा से करवायें या हमारे यहां... आपरेशन है बहुत जरूरी। फिर आप तो किस्मत वाले हैं...अभी तो पहली स्टेज है टी.वन, एन.जीरो।"<br />
"आपका मतलब है...अभी फैला नहीं है?" मेरी आवाज जैसे कमरे में चारों ओर फैल गई थी।<br />
जब चावला आन्टी का आपरेशन हुआ था, तो जैसे मुझे कुछ भी महसूस नहीं हुआ था।...वे बेचारी रेडियेशन को बिजली और कीमोथेरेपी को बड़ा इंजेक्शन कहने वाली अनपढ आन्टी। पर आन्टी के आपरेशन को तो आठ वर्ष से ऊपर हो गये। चावला आंटी तो उस समय ही पैंतालीस से ऊपर थीं।..किंतु डा. पिन्टो तो कुछ और ही कह रहे थे, "वो क्या है मि.मेहरा आई वुड पुट इट दिस वे, कि ब्रेस्ट कैंसर में मरीज जितना जवान रहता है, इलाज उतना ही मुश्किल हो जाता है। मंथली हार्मोनल डिस्टर्वैंस इलाज में सबसे बड़ी बाधा होती है।...मेनोपाज के बाद मरीज का इलाज उतना ही ज्यादा आसान हो जाता है।<br />
पूनम तो अभी तैंतीस भी पूरे नहीं कर पाई।...सबसे पहले दिल्ली फोन करता हूं।....पर बाऊजी तो स्वयं ही दिल के मरीज हैं। इस समाचार से पता नहीं क्या असर होगा उनकी सेहत पर? बंबई शहर में एक भी तो रिश्तेदार नहीं अपना..परेदेश जैसा देश है।..पूनम के घर वालों से बात करनी ही होगी। उनसे सलाह लिये बिना कोई भी कदम नहीं उठाना चाहिये।<br />
पर जिसके बारे में कदम उठाना है पहले उससे तो बात कर लूं। आकांक्षा भी तो दम साधे , अपनी मम्मी की रिपोर्ट की प्रतीक्षा कर रही होगी। अपूर्व तो अपने खिलौनों में मस्त होगा।..पूनम के दिल पर यह प्रतीक्षा की घड़ियां क्या असर कर रही होंगी?..उसने कहा भी था कि अस्पताल से ही फोन कर देना...फोन करने की हिम्मत मुझमें थी कहां?..क्या कहता?<br />
कहना तो पड़ेगा ही। सब कुछ बताना पड़ेगा। फिल्मों में लोग कितनी आसानी से मरीज से उसकी बीमारी छुपा लेते हैं।..पूनम को क्या कहूं, "पुन्नी क्योंकि तुम्हें जुकाम हो गया है, इसलिये तुम्हारी दांई ब्रेस्ट कटवाने जा रहा हूं।" ..आज समझ में आ रहा है कि पूनम क्यों सदा ही चावला आन्टी के प्रति सहानुभूति पूर्ण रवैया रखती थी।..क्यों उनकी छोटी से छोटी जिद भी पूरी करने की कोशिश करती थी।..सहज नारी प्रतिक्रिया।<br />
प्रतिक्रिया तो व्यक्त करता है चन्द्रभान। बात बात पर बहस करने को उतारू हो जाता है। कहने को तो मेरा मित्र है, किंतु उसके पास हर मर्ज का एक ही इलाज है-विश्वास! ..देवी देवताओं में अन्ध विश्वास। वह तो यह भी पूंछ बैठेगा, "डाक्टरों के पास गये ही क्यों?" उसे डाक्टरी और शल्यक्रिया समझ में नहीं आती। वैसे अगर डाक्टर के पास न भी गये तो क्या फर्क पड़ता?...पूनम को न तो कोई दिक्कत थी और न ही कोई शिकायत।...दर्द, बुखार, थकान, कमजोरी...कुछ भी तो नहीं था। वो दिन भी कितने खुशी के दिन थे। सारा परिवार लन्दन में छुट्टियां मना रहा था। चार सप्ताह कैसे बीत गये पता ही नहीं चला था। आकांक्षा तो अभी भी वाटर पैलेस, चेज़िंगटन ज़ू, आल्टन टावर की बातें करती नहीं थकती। मैडम टुसाद संग्राहलय में तो पूनम चकित रह गई थी कि मोम के पुतले कितने असली लग सकते हैं।...किंतु पूनम का व्यवहार सदा की भांति सधा हुआ संतुलित था। अपनी खुशी और उदासी पर न जाने कैसा नियन्त्रण था उसका।<br />
वहीं लंदन में ही एक दिन नहाकर गुसलखाने से बाहर निकली तो बाईं छाती में छोटी सी गांठ महसूस हुई थी। उस गांठ को खोलना कितना मुश्किल पड़ रहा है। पूनम का व्यवहार तो गांठ देखने के बाद भी पूरी तरह से नियन्त्रित था। नियन्त्रण! यहीं तो पूनम की विशेषता है। पर क्या आज का समाचार सुनने के बाद भी वह अपनी भावनाओं पर काबू रख पायेगी। यदि वह बेकाबू होने लगी तो मैं स्वयं क्या करूंगा?...मैंने तो अपने दस वर्षीय विवाहित जीवन में पूनम को आंदोलित होते कभी देखा ही नहीं। आज उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी? वह तो बड़ी से बड़ी दुर्घटना को सहज रूप से ले लेती है। "मेरे मम्मी डैडी मेरी शादी की बात कहीं और चला रहे हैं।" पूनम ने बड़ी सहजता से बता दिया था। आर्ट्स फैकल्टी के बाहर बैठे कुल्चे छोले खा रहे थे। दरअसल कुल्चे छोले तो पूनम को खाने पडते थे। मैं तो उसका टिफिन ही खाया करता था।...अगला कौर हांथ में ही रह गया था। इतनी बड़ी बात और पूनम आराम से कुलेचे खा रही थी।"...तो फिर क्या करें?" मैं घबरा गया था।<br />
"मैं अपने जीजा जी से बात करूंगी। अगर वे मान गये तो मम्मी डैडी को मना लेंगे।"<br />
जीजा जी, भाईजी, मम्मी-डैडी और बहनें सभी मान गये थे। पूनम को कोई भी भला कैसे इन्कार कर सकता था। उसके व्यक्तित्व से अभिभूत हुये बिना कोई रह ही नहीं सकता। कालेज में भी तो कितने ही लड़के उस पर मरते थे। परंतु पूनम ने <br />
मुझे चाहा तो बस...।<br />
खूबसूरत लम्हों का एक सागर इकट्ठा कर लिया है पूनम ने मेरे लिये। कई जीवन उन हसीन लम्हों के सहारे बिता सकता हूं। गर्दिश के दिनों में दोनों फर्श पर बिस्तर बिछाकर भी सोये। एक-एक करके पूनम ने घर की सभी चीज़ें बनाईं।...घर बनाया। मुझे संवारा, तराशा। और आज जब अपनी मेहनत को फल पाने का समय आया तो यह बीमारी।<br />
मुझे मालूम था यही होगा। पूनम ने बिना कुछ पूंछे ही रिपोर्ट मेरे हांथ से ले ली थी। रिपोर्ट पढने के बाद काफी समय तक कमरे में मुर्दा चुप्पी छाई रही। अकांक्षा की आंखे अपनी मम्मी पर गड़ी थीं। "पूनम घबराने की कोई बात नहीं। डा. पिन्टो कह रहे थे कि बहुत इनीशियल स्टेज है। और इस स्टेज पर तो शर्तिया इलाज हो सकता है।"<br />
पूनम ने रिपोर्ट एक तरफ सरका दी। आकांक्षा को अपने पास खींच लिया और उसके सर पर एक चुंबन अंकित कर दिया। <br />
उसकी दोनों आंखो में आंसुओं की एक लकीर सी उभर आई थी। वह लकीर मुझे अंदर तक कहीं चीर गई थी। उस रात बिना <br />
भोजन किये ही हम सब सो गये थे। <br />
सुबह जब आकांक्षा स्कूल चली गई और अपूर्व नर्सरी तो पूनम ने मुझे संभाला, "जब कह रहे हो कि पहली स्टेज है तो चेहरे पर इतनी मुर्दनी क्यों फैला रखी है। चावला आन्टी भी तो कितने सालों से चल रही हैं। मैं भी ठीक हो जाऊंगी।"<br />
मुझे लग रहा था मुझ से बड़ा बेवकूफ दुनिया में कोई नहीं हो सकता। पूनम का हौसला मुझे बढाना चाहिये था और यहां सब <br />
कुछ उल्टा हो रहा था। बस आगे बढ कर पूनम को बांहो में भर लिया था। बिल्डिंग में बात फैलते देर नहीं लगी। करुणा को <br />
पूनम ने बताया; करुणा ने मधु को और मधु ने मिसेज रंगनाथन को। मिसेज रंगनाथन को पता लगने का अर्थ है कि पी.टी.आई. और यू.एन.आई. दोनों को एक साथ पता लगना। नेशनल नेटवर्क पर बिल्डिंग में शोर मच गया। टाटा के डाक्टरों के नाम, पते सब मालूम होने लगे। मेरा विश्वास अभी भी डाक्टर पिन्टो में पूरी तरह जमा हुआ था।<br />
डा. पिन्टो के क्लीनिक में एक बार फिर पहुंच गये, "डा. पिन्टो! आपसे एक सवाल पूंछना है। ..मैं अपनी पत्नी का आपरेशन टाटा के किसी भी डाक्टर से करा सकता हूं, विदेश चाहूं तो वहां भी ले जाऊं। फिर भला आपसे ही हम आपरेशन क्यों करवाऊं?"<br />
एक क्षण के लिये गुस्सा डा. पिन्टो के चेहरे पर आया और फिर कपूर बन कर उड़ गया। उन्होंने अपनी छाती पर क्रास बनाया, "मिस्टर मेहरा, मैंने तो एक बार भी आपसे नहीं कहा कि आप आपरेशन मुझसे करवायें। आप पिछले बीस मिनट से मुझसे बात कर रहे हैं। जरा टाटा में करके देखिये। और फिर बंबई में एक भी कैंसर सर्जन ऎसा नहीं है जिसने टाटा में काम न किया हो। आपरेशन आप कहीं भी करवाईये, किसी से भी करवाईये, पर जल्दी करवाईये।..अभी पहली स्टेज है..कहीं देर न हो जाय। आई वुड पुट इट दिस वे...कि आजकल हर बड़ा अस्पताल कैंसर सर्जरी के लिये पूरी तरह से इक्विप्ड है।..और सर्जन लोग तो छोटे नर्सिंग होम में भी आपरेशन कर देते हैं।...बाकी आप जैसा ठीक समझें।"<br />
डा.पिन्टो की दो टूक बातों ने मेरा और पूनम दोनों का दिल जीत लिया था। कुछ क्षणों के लिये हम दोनों जैसे कैंसर की <br />
भयावहता से जैसे मुक्त हो गये थे। कभी हम डा. पिन्टो के चेहरे देखते कभी जीसस क्राइस्ट की फोटो को। आपरेशन का दिन <br />
तय कर आये हम दोनों।<br />
रात आने का समय तो तय है। अबकी बार हम डर रहे थे कि रात अपने साथ क्या क्या लाने वाली है। लितनी लंबी होगी यह रात। क्या इस रात के बाद सवेरा देख पायेंगे। <br />
बच्चे सो चुके थे। आपरेशन को बस चार रातें बाकी थीं। मन में उमड़ते घुमड़ते विचार जैसे रिले रेस में दौड़ रहे थे। पहला <br />
खयाल हट भी नहीं पाता था कि दूसरा विचार जगह ले लेता था। मैं इन विचारों की उधेड़्बुन मॆं फंसा हुआ था कि पूनम रसोई की बत्ती बुझा कर बेडरूम में पहुंची। रोज की तरह आज भी सोने से पहले स्नान करके आई थी। बदन से चंदन की खुशबू पूरे कमरे में फैल रही थी। आकर चुपचाप बिस्तर पर लेट गई। सदा की तरह आंखे बंद करके गायत्री मंत्र जपने लगी। मैं उस सात्विक चेहरे को निहारे जा रहा था।<br />
समझ में नहीं आ रहा था कि ऎसे फारिश्ते भी ऎसी बीमारी का शिकार हो सकते हैं।<br />
"मुझे बहुत प्यार करते हो?"<br />
"यह क्या बात पूंछी तुमने?"<br />
"मुझे तुमसे एक बहुत बड़ी शिकायत है नरेन। तुम कभी भी मेरे बारे में पजेसिव नहीं हुये।..मैं चाहें किसी से भी बात करूं, <br />
किसी के साथ भी घूमने जाऊं, तुम्हें बुरा नहीं लगता। मुझे लेकर तुमहारे दिल में कभी जलन या ईर्ष्या की भावना नहीं <br />
जागती।...एक बात बताओ..मेरे शरीर को भी उतना ही प्यार करते हो जितना कि मुझे?"<br />
"पूनम!".....<br />
"नहीं, सच-सच बताओ।...आज तुम्हारे मुंह से सुनना चाहती हूं।"<br />
"मैं सिर से पांव तक तुम्हें प्यार करता हूं।"<br />
"जितना चाहें अभी प्यार कर लो नरेन.....अब तो बस चार रातें बाकी हैं.....फिर जिन्दगी कभी सहज नहीं हो पायेगी.....मुझसे नफरत तो नहीं करने लगोगे नरेन..सच! इसमें मेरा कोई दोष नहीं है।"<br />
फूट पड़ी थी पूनम की रुलाई। मेरी छाती उसके आंसुओं से गीली हो रही थी। मुझे ही आज फैसला करना था। पूनम को आज <br />
समझा देना था कि आपरेशन के बाद भी पूनम मेरे लिये उतनी ही आकर्षक, प्यारी और जरूरी होगी जितनी आज है। मुझे <br />
ऎकाऎक बहुत बड़ा हो जाना था। मैं पूनम की परिपक्वता पर आश्रित होने का आदी हो गया था। अब मुझे इस किरदार को पूरी शिद्दत से समझना होगा, निभाना होगा।<br />
डा.पिन्टो का विश्वास, पूनम का साहस और हालात की संजीदगी सब मेरी हिम्मत बढा रहे थे। आपरेशन के एक दिन पहले <br />
पूनम को अस्पताल में भर्ती कराना था। छाती का एक्सरे, खून टेस्ट, ई.सी.जी और जाने क्या-क्या। रात का खाना भी पूनम को जल्दी खिला दिया गया था। रात को डा.पिन्टो के सहायक डा. शाह और डा. दवे दोनों पूनम का चेक अप करने आये थे। मैं अब भी उम्मीद लगाये बैठा था कि उनमें से कोई कह दे कि पूनम को कैंसर है ही नहीं।<br />
कमरे के बाहर निकलते-निकलते डा.दवे की आवाज कानों से टकराई, "शिरीश, डू यू थिंक सर हैज़ डाय्ग्नोज़्ड दि केस <br />
करेक्टली?"<br />
"हां यार! सिम्प्टम तो कोई दिखाई नहीं दे रहा। शी लुक्स पर्फैक्टली नार्मल एन्ड सो यंग।"<br />
दम साधे सब सुन रहा था। पर रिपोर्ट मेरे सामने रखी थी। रिपोर्ट में साफ-साफ लिखा था कि ब्रेस्ट में बिखरे-बिखरे कैंसर <br />
सैल्ज़ मौजूद हैं।..चमत्कार कर दो प्रभू।...सुबह अपरेशन टेबल प डा. पिन्टो को गांठ दिखाई ही न दे।<br />
दिमाग शायद शांत होना ही नहीं चाहता था। इसलिये तो अशांत आत्मा की तरह इधर-उधर भटक रहा था।...<br />
कई बार हैरान भी होता था कि पूनम और मैं एक सा भाग्य लेकर क्यों जन्में। पूनम भी बीच की है, उससे बड़ा एक भाई और एक छोटी बहन। मैं भी बीच का हूं, मुझसे बड़ी एक बहन और एक बहन छोटी। दोनों की शक्लें अपने अपने परिवार में किसी से नहीं मिलतीं। दोनों को ही साहित्य से लगाव था। दोनों की सासें तो हैं पर मां किसी एक की भी नहीं। नहीं तो इस वक्त कोई एक मां तो हमारे साथ होती। अपने बच्चों को अकेला घर में छोड़कर हम दोनों अस्पताल में यूं न बैठे होते। बाहर भी अंधेरा है और भीतर भी। सुबह की रोशनी की प्रतीक्षा है।<br />
सुबह को आना ही था। आज सुबह थोड़ी जल्दी हो गई थी। पूनम को खाने को कुछ भी नहीं दिया गया था -बस चाय।<br />
पूनम उठकर स्वयं ही नहाई थी। उसके बदन से भीनी-भीनी खुशबू उड़ रही थी। खुशबू! जो सदा ही मुझे दीवाना बना देती थी। उस डेटाल और स्पिरिट से भरे माहौल में भी पूनम के बदन की खुशबू मेरे नथुनों तक पहुंच रही थी। जैसे बलि से पहले उसे सजाया जा रहा था।<br />
सुशील अपनी पत्नी लुइज़ा के साथ आया था। दोनों पूनम का हांथ पकड़े प्रभु यीशु से प्रार्थना कर रहे थे। मन ही मन मैं उनकी हर बात दोहरा रहा था। सबके दिल में एक ही दुआ थी। डा. पिन्टो को देखते ही दिल उछलकर गले में आ फंसा था। ज्ल्दी से उनके करीब पहुंचा, "डाक्टर आपको पक्का यकीन है कि कैंसर ही है? कहीं कोई गलती तो नहीं हो रही है?" मैं कैसे कहता कि मैं उनके सहायकों की बातें सुन चुका था।<br />
डा.पिन्टो ने अपनी छाती पर क्रास बनाया, "लुक मैं पहले लम्प को निकालकर 'कोल्ड सेक्शन टेस्ट' करूंगा। अगर टेस्ट ठीक रहा, तो पैंतालीस मिनट में हम बाहर आ जायेंगे....अगर , नोड्ज़ इन्वाल्व हुये तो, मेजर आपरेशन करना होगा। नाउ, बेस्ट आफ लक!"<br />
और मैं बस देख रहा था। पूनम गाड़ी पर लेटी अंदर पहुंच चुकी थी। डा. पिन्तो ने कपड़े बदलकर हरा सा कोट पहन लिया था। बेचैनी मेरे रक्त के साथ-साथ मेरे शरीर में संचार कर रही थी। अभिनव मेरा हांथ थामे खड़ा था। अपनी शूटंग आज कैंसिल कर दी थी। फिर भी उसे खड़ा देख कर लोग समझ रहे थे कि शायद कोई शूटिंग हो रही है। विश्वास दादा ने जैसे मेरे विश्वास को थाम रखा था। उनकी उभरी हुई जेब से सौ-सौ रुपयों की गड्डी अपने ढंग से मेरा हौसला बढा रही थी।<br />
पैंतालीस मिनट, एक घंटा, दो घंटे, तीन घंटे...वक्त धीरे धीरे बढता जा रहा था। मेरी नेस्तेज निगाहें शून्य में कहीं दूर कुछ खोज रहीं थीं। 'कोल्ड सेक्शन'....पाज़िटिव..। जीवन भर सिखाया गया था पाज़िटिव होना कितनी अच्छी बात है। ..परंतु आज का टेस्ट पाज़िटिव होने का अर्थ कितना भयानक है। आकांक्षा और अपूर्व तो आज स्कूल भी नहीं गये। दम साधे घर में ही पड़े हैं। चिंता और बोरियत बाहर बैठे चेहरों पर साफ दिखाई दे रही थी। सब की चिंता का विषय एक ही था- "इतनी छोटी उम्र में इतनी भयंकर बीमारी!..बच्चों का क्या होगा? अभी तो बहुत छोटे हैं।"<br />
और डा.पिन्टो बाहर निकले। छाती पर एक बार फिर क्रास बनाया। "गाद इज़ ग्रेट मि. मेहरा! सब ठीक हो गया। मैंने काफी गहरे तक आपरेट कर दिया है। कैंसर आलरेडी नोड्ज़ तक पहुंच गया था.. अभी तो बेहोश पड़ी है आपकी वाइफ...बट जल्दी ही होश आ जायेगा।<br />
आपरेशन थियेटर में जाकर पूनम को देखने की हिम्मत नहीं हो पा रही थी। पूनम को कैसे देख पाऊंगा। उसकी आंखॆ मुझसे <br />
सवाल पूंछेंगी..।पर वह तो बेहोश है..।पूनम को अक्सीजन दी जा रही थी....।चेहरा जर्द खून चढ रहा था। शरीर जैसे नलियों से अटा पड़ा था। आपरेशन कामयाब रहा था|<br />
अस्पताल के स्पेशल वार्ड के कमरा न. चौबीस में पहुंच गई थी पूनम। ...चौबीस उसका जन्मदिन। कमरा भी उसी नम्बर का। ..एक-एक करके सभी दोस्त और मिलने वाले चले गये थे। कमरे में एक मैं, एक पूनम और एक एयर्कन्डीशन की आवाज़। प्रतीक्षा कर रहा था कि पूनम कसमकसाये ही सही। परंतु अभी तो नशीली दवा का गहरा असर था। पूनम तो बस सोये ही जा रही थी। और मैं उसे देखे ही जा रहा था।...एयर कन्डीशन की आवाज़ पर सवार मेरे विचार मेरे दिमाग को मथे आ रहे थे। पूनम से पहली मुलाकात से लेकर आज तक की प्रत्येक घटना मेरे मानस पटल पर उजागर होने लगी थी। क्या ठीक हो जायेगी पूनम?...क्य फिर वही सुहाने दिन लौट आयेंगे? पूनम को कैंसर हुआ ही क्यों?...डा. पिन्टो से बच्चों की तरह पूंछ बैठा था, "डाक्टर , यह कैंसर होता ही क्यों है...इसका कारण क्या है?"<br />
डा.पिन्टो ने प्रभु यीशु की तस्वीर की तरफ इशारा करते हुये कहा था, "यही जानते हैं।...दर असल मि. मेहरा जो इंसान भी कैंसर होने के सही कारण होने के बारे में जान लेगा उसे तो नोबेल पुरस्कार मिलेगा। कैंसर क्या होता है यह तो साइंस जानती है...पर कैंसर क्यों होता है इसके जवाब में अभी तक अंधेरा है। यह शरीर अपने विरुद्व क्यों हो जाता है, क्यों यह शरीर आत्मसंहार शुरु कर देता है, इसका सही जवाब तो अभी तक वैज्ञानिकों को भी नहीं मिल पाया है।"<br />
जिस-जिस को समाचार मिला वह अस्पताल पहुंचने लगा। हर व्यक्ति को वही-वही बातें बताते बोरियत होने लगती थी। अपनी-अपनी समझ में हर व्यक्ति अप्नी चिंता व्यक्त कर रहा था।<br />
"कौन सी स्टेज है?...."टाइम पर पता चल गया था न?" ...अभी फैला तो नहीं है?"...."मैलिग्नेंट है?" हर किसी का कोई न कोई करीबी रिश्तेदार कैंसर पीड़ित रहा है। मैं तो कुछ ऎसे परेशान हो रहा था जैसे पूनम से पहले किसी को कभी कैंसर हुआ ही नहीं था। मुफ्त की सलाह देने वाले बहुतायत से थे। <br />
"मेहरा जी, हम आपको कहें, आप पूनम जी को रोजाना शहद दिया करें और सरसों के तेल की मालिश कराया करें। इंशा <br />
अल्लाह सब ठीक हो जायेगा।...और हां चने जरूर दें खाने को" यह नज़्मा थी हमारी पड़ोसन। भूल गईं थी कि अस्पताल में कम बोलना एक अच्छी आदत समझी जाती है। जाते-जाते ताकीद करना नहीं भूलीं, "मेहरा जी, एक बात कहूं, हमारे पीर साहब से ताबीज बनवा लीजिये, पूनम जी बिल्कुल ठीक हो जायेंगी।"<br />
चन्द्रभान की देवी, नज़्मा जी के पीर फकीर, सुशील और लुइज़ा का 'लिविंग गाड', और डा. पिन्टो की छाती पर बार-बार बनता क्रास, कार्सीनोमा, कटी हुई छाती, अस्पताल का कमरा सब मुझे परेशान किय जा रहे थे।<br />
नवें दिन हम घर लौट आये थे। पूनम की आंखो के बेबस सवाल मेरी ओर ताके जा रहे थे, "वैसे यह भी कोई जीवन हैजी? <br />
पराये मर्दों के सामने नंगा होना! पता नहीं कहां कहां हांथ लगते हैं। बेकार हो गई ज़िन्दगी तो!"<br />
पूनम के दोनों हांथ स्वयंमेव ही मेरे हांथों में आ गये थे। आंखे तो मेरी भी नम हो आईं थीं। उसके माथे पर मेरे एक चुंबन ने ही शायद उसे खासी शक्ति प्रदान कर दी थी, "नरेन किसी से भी मेरी बीमारी या आपरेशन की बातें मत किया करो। लोग <br />
अजीब सी निगाह से छाती को घूरते हैं।"<br />
इतनी बड़ी बीमारी को छुपा जाना चाहती थी पूनम! यहां किसी को जुखाम या बुखार हो जाय तो पूरा शहर सर पर उठा लेते <br />
हैं... और पूनम!..इस भयंकर बीमारी ने एक काम तो कर दिया था। मुझे पूनम के और करीब ला दिया था। मेरी सोंच , मेरे कर्मक्षेत्र, मेरे जीवन का केन्द्रबिन्दु पूनम होकर रह गई थी।<br />
डा. पिन्टो से पहले तो तो दोस्तों और रिश्तेदारों ने डरा दिया था। -"आपरेशन के बाद रेडियेशन और कीमोथेरेपी भी करवानी पड़ती है। सारे बाल उड़ जाते हैं। उल्टियां कर-करके बुरा हाल हो जाता है" --"वैसे ब्रैस्ट कैंसर में तो 'यूट्रस और ओवरीज़' भी निकलवा देते हैं।...आपके डाक्टर ने सुझाया नही?..कमाल है!"<br />
डा.पिन्टो अपने चिरपरिचित अंदाज में ही पेश आये, "गाड इज़ ग्रेट मि. मेहरा! ...आई वुड पुट इट दिस वे कि यूट्रस और <br />
ओवरीज़ निकालने की कोई जरूरत नहीं। दर असल मैं तो कीमोथेरेपी भी नहीं करता, लेकिन सात नोड्ज़ में कैंसर फैल गया था, इसलिये कीमोथेरिपी देनी ही पड़ेगी नहीं तो हम टेमाक्सीफिन गोलियों से ही काम चला लेते।"<br />
"टीमोक्सीफिन!"..मेरे मन में आशा की एक किरन जाग उठी। हो सकता है डा. पिन्टो यही दवा देने के लिये मान जायं।...शायद पूनम को कीमोथेरेपी की परेशानियों से बचाया जा सके-" डा. पिन्टो, टीमोक्सीफिन और कीमोथेरेपी में क्या फर्क है?"<br />
"यू कैन पुट इट दिस वे कि कीमोथेरेपी की एक माइल्ड फार्म है टेमाक्सीफिन। यह एक हार्मोनल दवाई है। यह शरीर में जाकर फ़ीमेल हार्मोन होने का दिखावा करती है। कैंसर सैल इसकी तरफ अट्रैक्ट होते है और इसके कांटेक्ट में आकर मर जाते हैं। इस तरह वह कैंसर को आगे बढने से रोकती है।...पर नोड्ज़ में कैंसर पहुंचने पर कीमोथेरेपी जरूरी हो जाती है। अब सोंचना यह है कि एड्रियामायसिन दिया जाय या ज्यादा पापुलर सी.एम.एफ की मिली जुली कीमोथेरेपी। एड्रियामायसिन से जो बाल गायब हो जाते हैं वो वापस नहीं आते और कई बार यह दिल पर भी बुरा असर करती है। तो हम सी.एम.एफ़ ही देंगे।"<br />
कीमोथेरेपी शुरु हो गई। इस बीच बोन स्कैन और अल्ट्रासाउन्ड और लिवर टेस्ट सब चल रहे थे। डाक्टर, दवाइयों और बीमारी के नाम से ही दहशत होने लगी थी- "डा. पिन्टो अब पूनम ठीक हो जायेगी न?..अब दोबारा होने का डर तो नहीं?" डा. पिन्टो की छाती पर फिर से क्रास बना, "मैं तो बस इलाज करता हूं मि. मेहरा, ठीक तो यह करते हैं! बस इनकी पूजा कीजिये।" फोटो में यीशू मसीह का चेहरा चमक रहा था।<br />
पूजा से पूनम का विश्वास उठता जा रहा था, "मैंने तो कभी किसी का बुरा नहीं चाहा, किसी की पीठ पीछे तक बुराई नहीं की, शुद्व शाकाहारी जीवन जीती हूं..फिर यह बीमारी मुझे ही क्यों?"<br />
पूनम का यह सवाल मेरे विश्वास को हिलाने के लिये काफी था। किंतु चन्द्रभान किसी और ही मिट्टी का बना था। वह मुझे <br />
एक महिला के पास ले गया। महिला बैठी सिर हिला रही थी- "यह देवी मां हैं, नरेन! यह चाहें तो कुछ भी हो सकता है।"<br />
यंत्रवत मेरे जैसा तार्किक व्यक्ति भी चरणों में झुक गया। "बहुत देरी कर दी तुमने आने में । फिर भी यह प्रसाद ले जाओ। <br />
भगवान भला करेंगे।"<br />
प्रसाद के अस्त्र से लैस मैं घर लौटा तो सुशील, लुइज़ा और अन्य महिलाओं के साथ पूनम के बिस्तर के चारों ओर बैठा पूजा <br />
कर रहा था। "पूनम भाभी आपको अपने में विश्वास पैदा करना होगा...आप केवल ईसामसीह में विश्वास रखें और पूजा भी केवल उन्हीं की करें।"<br />
"सुशील भैया, बचपन से विश्वास बने हुये हैं, क्या उनसे मुक्ति पाना इतना आसान है?"<br />
"भाभी , यह तो आपको करना ही होगा, मैं तो कहता हूं अगले इतवार आप हमारी प्रार्थना सभा में आयें और देखें कि हम कैसे पूजा करते हैं।"<br />
मैं बोल ही पड़ा, "भईये , हमारे घर से तो बान्द्रा काफी दूर है। पर यहां पास ही में जो चर्च है वहां ले जाऊंगा।<br />
"नहीं नरेन! ..आना तो तुम्हें हमारे यहां ही पडेगा। तुम्हारे घर के पास जो चर्च है वो कैथोलिक चर्च है। जबकि हम लोग अपने आपको बार्न अगेन कहते हैं। हमारा भगवान जीवित भगवान है...लिविंग गाड। इसलिये तुम हमारे भगवान में ही विश्वास रखो और मैं तो यहां तक कहूंगा कि तुम लोग भी धर्म परिवर्तन करके हमारा धर्म अपना लो।..पूनम की बीमारी का इलाज केवल विश्वास ही है।<br />
बहुत मुश्किन से मैं अपने आपको रोक पाया था। फिर भी मेरे चेहरे की भांगिमा देखकर सुशील अपने साथियों समेत किसी और के जीवन के लिये प्रार्थना करने निकल पड़ा।<br />
शाम को पूनम के लिये सूप बनाया था। कल के कीमोथेरेपी के इंजेक्शन के विचार से त्रस्त, पूनम सूप को निगल नहीं पा रही थी। दरवाजे पर घंटी बजी। "लीजिये मेहराजी, हम तो पूनम के लिये तावीज बनवा लाये। आप देखियेगा माशा अल्लाह पूनम जी भली चंगी हो जायेंगी। वैसे आप इन्हें गर्म पानी के साथ शहद देते रहियेगा। आप देखियेगा अल्लाह क्या चमत्कार करते हैं।"<br />
चमत्कार! इसकी आशा तो आपरेशन से पहले लगाये बैठा था। ,...पर कहां! विज्ञान ने चमत्कार की छाती काट दी और बीस नोड्ज़ निकाल दिये! कल फिर कीमोथेरेपी।<br />
पूनम भी चमत्कार में कहां विश्वास करती है। उसे तो पुनर्जन्म में भी विश्वास नहीं। वह तो आज इस पल के बाद अगले पल के बारे में भी नहीं सोंचती। सोंचती है तो बस मेरे बारे में।....उसे यही गम खाये जाता है कि अपने पति का जीवन कैंसर से ग्रस्त करने की जिम्मेदार वही है।...<br />
पूनम को यह भी अच्छी तरह मालूम है कि मैं तो भगवान के अस्तित्व के सामने सदा प्रश्न चिन्ह लगा देता हूं...।मेरे लिये कर्म के सिद्वान्त के अतिरिक्त जीवन का कोई अर्थ है ही नहीं।<br />
पूनम देख रही है...अपने पति की स्थिति से पूरी तरह वाकिफ है वो। वो देख रही है कि कैसे उसका पति पूरी श्रद्वा से तावीज़ बांध रहा है..कैसे किसी सिर हिलाती देवी के सामने माथा टेककर पूनम के जीवन की भीख मांग रहा है। 'बार्न अगेन' ईसाईयों के सुर में सुर मिलाते देख रही है वह। बेबस, लाचार पड़ी लेटी है पलंग पर।<br />
पूनम की आंखो में बस एक ही सवाल दिखाई दे रहा है..."मेरा पति कैंसर का इलाज तो दवा से करवाने की कोशिश कर सकता है...मगर जिस कैंसर ने उसे चारों ओर से जकड़ रखा है...क्या उस कैंसर का भी कोई इलाज है?"<br />
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<a href="http://draft.blogger.com/goog_1868805375">--</a><a href="http://shabdokiunjali.blogspot.com/2011/02/blog-post.html">तेजेन्द्र शर्मा</a></div>Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-33297674381768412512011-02-04T18:56:00.000-08:002011-02-04T18:56:31.854-08:00तेजेन्द्र शर्मा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><blockquote> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhg5jDbPRNmez5mhUjSZhgK1jcnW2U9RxGcwU-UyWYk_TPZN54J8hxHrcHlK4P7t2g5appoMBajmn-K8xujvTnVLaRqfRQUZbQf9f0fyiyZ4Et3f3VFkTesbIp0PvUzSutTzcBd1a1rDLQ/s1600/Tej5.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhg5jDbPRNmez5mhUjSZhgK1jcnW2U9RxGcwU-UyWYk_TPZN54J8hxHrcHlK4P7t2g5appoMBajmn-K8xujvTnVLaRqfRQUZbQf9f0fyiyZ4Et3f3VFkTesbIp0PvUzSutTzcBd1a1rDLQ/s200/Tej5.jpg" width="178" /></a></div>जन्म: २१ अक्टूबर १९५२ को पंजाब के शहर जगरांव के रेल्वे क्वार्टरों में। उचाना, रोहतक व मंडी में बचपन के कुछ वर्ष बिताकर १९६० में पिता का तबादला उन्हें दिल्ली ले आया। <br />
शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए. (आनर्स) अंग्रेजी, एम.ए. अंग्रेजी, एवं कम्प्यूटर कार्य में डिप्लोमा।<br />
प्रकाशित कृतियां :<br />
कहानी संग्रह : काला सागर (१९९०), ढिबरी टाइट (१९९४ में पुरस्कृत), देह की कीमत (१९९९), ये क्या हो गया? (२००३).<br />
भारत एवं इंग्लैंड की लगभग सभी पत्र पत्रिकाओं में कहानियां, लेख कवितायें ,समीक्षायें, कवितायें, एवं गज़लॆं प्रकाशित।<br />
अंग्रेजी में :1.Lord Byron - Don Juan 2. John Keats - The Two Hyperions<br />
दूरदर्शन के लिये शांति सीरीयल का लेखन<br />
अन्नू कपूर द्वारा निर्देशित फिल्म अभय में नाना पाटेकर के साथ अभिनय<br />
कथा यूके के माध्यम से लंदन में निरंतर साहित्य साधना।<br />
पुरस्कार<br />
१ ढिबरी टाइट के लिये महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९९५ में प्रधानमंत्री अटल जी के हांथों<br />
२सहयोग फाउन्डेशन का युवा साहित्यकार पुरस्कार १९९८।<br />
३ सुपथगा सम्मान १९८७।<br />
४ कृति यूके द्वारा वर्ष २००२ के लिये बेघर आंखे को सर्वश्रेष्ठ कहानी का पुरस्कार।<br />
संप्रति सिल्वरलिंक रेल्वे, लंदन में ड्राइवर के पद पर कार्यरत।<br />
Email : <span style="font-family: Arial; font-size: x-small;"><a href="mailto:kahanikar@hotmail.com" target="_blank">kahanikar@hotmail.com</a></span><br />
<br />
</blockquote></div>Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-32950279071653483642010-09-27T21:54:00.000-07:002010-09-27T22:00:43.518-07:00पूर्णिमा वर्मन ---साक्षात्कारइंटरनेट के माध्यम से कला-साहित्य-संस्कृति की दुनिया से जुड़े पाठकों रचनाकारों के लिये <a href="http://abhivyakti-hindi.org/lekhak/purnimavarman.htm">पूर्णिमा वर्मन</a> जाना-पहचाना नाम है। देश दुनिया के कोने-कोने में <a href="http://abhivyakti-hindi.org/">अभिव्यक्ति</a> एवं<a href="http://abhivyakti-hindi.org/">अनुभूति</a> के माध्यम से साहित्य-संस्कृति के प्रचार-प्रसार में जुटी पूर्णिमाजी <a href="http://akshargram.com/nirantar/0505/vishesh">बताती </a>हैं :- <b>हिन्दी में शायद यह पहली पत्रिका होगी जहां संपादक एक देश में निदेशक दूसरे देश में और टाइपिस्ट तीसरे देश में हों। फिर भी सब एक दूसरे को देख सकते हों सुन सकते हों दिन में चार घंटे दो घंटे सुबह और दो घंटे शाम। वो भी तब जब एक की दुनिया में दिन हो और दूसरे की दुनिया में रात। हम आपस में अक्सर कहते हैं,"हम दिन रात काम करते हैं। इसी लिये तो हम दूसरों से बेहतर काम करते हैं"।</b><br />
<b> </b> <br />
<div align="left">पीलीभीत की सुंदर घाटियों में जन्मी पूर्णिमाजी को प्रकृतिप्रेम एवं कला के प्रति बचपन से अनुराग रहा। फिर मिर्जापुर व इलाहाबाद में इस अनुराग में साहित्य एवं संस्कृति के रंग भी मिले। संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि,पत्रकारिता तथा बेवडिजाइनिंग में डिप्लोमा प्राप्त पूर्णिमाजी के जीवन का पहला लगाव पत्रकारिता आजतक बना हुआ है। इलाहाबाद के दिनों में अमृतप्रभात, आकाशवाणी के अनुभव आज भी ऊर्जा देते हैं। जलरंग, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से दोस्ती रखने वाली पूर्णिमाजी पिछले पचीस सालों से संपादन, फ्रीलांसर, अध्यापन, कलाकार, ग्राफिक डिजाइनिंग तथा जाल प्रकाशन के रास्तों से गुजरती हुई फिलहाल अभिव्यक्ति तथा अनुभूति के प्रकाशन तथा कलाकर्म में व्यस्त हैं।<br />
</div>पूर्णिमाजी जानकारी देते हुये बताती हैं कि <b>अभिव्यक्ति</b> तथा <b>अनुभूति</b> के अंश विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों एवं शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित है। महीने में चार अंक नियमित रूप से निकालने में तमाम चुनौतियां से जूझना पड़ता है लेकिन पिछले पिछले पांच वर्षों में कोई भी अंक देरी से नहीं निकला।<br />
कहानी,कविता,बालसाहित्य,साहित्यिक निबंध ,हास्यव्यंग्य सभी में लेखन करने वाली पूर्णमा जी का मन खासतौर से ललित निबंध तथा कविता में रमता है। कविता संग्रह <a href="http://www.geocities.com/abhivyakti_net/kavitayen/deepak.htm">'वक्त के साथ'</a> तथा <a href="http://abhivyakti-hindi.org/applet/index.htm">उपहार</a> स्तंभ की कविताओं की ताजगी तथा दोस्ताना अंदाज काबिले तारीफ है तथा बार-बार पढ़े जाने के लिये मजबूर करता है। साहित्य संस्कृति के सत्यं,शिवं,सुंदरम् स्वरूप से आम लोगों को जोड़ने में सतत प्रयत्नशील पूर्णिमा जी को साधारण समझे जाने वाले जनजीवन से जुड़े रचनाकारों पर असाधारण विश्वास है। उनका मानना है कि बहुत कुछ लिखा जा रहा है आमजन द्वारा जो कि समाज को बेहतर बनाने काम कर सकता है। उसे सामने लाना हमारा काम है। हर शहर के जनप्रिय रचनाकारों की उद्देश्यपरक रचनायें सामने लाने के लिये सतत प्रयत्नशील <b>पूर्णिमा वर्मन </b>जी से विविध विषयों पर बातचीत के मुख्य अंश। <br />
<div style="float: right; margin-bottom: 10px; margin-left: 10px;"><blockquote><br />
<a href="http://www.flickr.com/photos/94063381@N00/54922386/" title="Photo Sharing"><img alt="hastakshar5" height="240" src="http://static.flickr.com/31/54922386_006de548d6_m.jpg" width="229" /></a></blockquote></div><blockquote><b>आपने लिखना कब शुरू किया?</b><br />
कविता लिखना कब शुरू किया वह ठीक से याद नहीं लेकिन बचपन की एक नोट बुक में मेरी सबसे पुरानी कविताएं 1966 की हैं। </blockquote><br />
<blockquote><b>अभिव्यक्ति निकालने का विचार कैसे आया?</b> <br />
1995 में शारजाह आने के बाद मेरा काफ़ी समय इंटरनेट पर बीतने लगा। तब अहसास हुआ कि हमारी भाषा में दूसरी विदेशी भाषाओं की अपेक्षा काफ़ी कम साहित्य (लगभग नहीं के बराबर) वेब पर है। उसी समय चैट कार्यक्रमों में बातें करते हुए पत्रिका का विचार उठा था पर इसको आकार लेते लेते तीन साल लग गए। शुरू-शुरू में यह जानने में काफ़ी समय लगता है कि कौन दूर तक साथ चलेगा। किसके पास समय और शक्ति है इस योजना में साथ देने की। अंत में प्रोफ़ेसर अश्विन गांधी और दीपिका जोशी के साथ हमने एक टीम तैयार की। साथ मिल कर अभिव्यक्ति और अनुभूति की योजना बनाते और उस पर काम करते हमें दो साल और लग गए। यहां यह बता दें कि हममें से कोई भी पेशे से साहित्यकार, पत्रकार या वेब पब्लिशर नहीं था। और हमने सोचा कि विश्वजाल के समंदर में एकदम से कूद पडने की अपेक्षा पहले तैरने का थोडा अभ्यास कर लेना ठीक रहेगा। </blockquote><blockquote><b>जब आप इलाहाबाद में थीं तो वहां का रचनात्मक परिदृश्य कैसा था?</b><br />
रचनात्मक परिदृश्य काफ़ी उत्साहवर्धक था। हिंदी विभाग में <b>'प्रत्यंचा'</b> नाम की एक संस्था थी जिसमें हर सप्ताह एक सदस्य अपनी रचनाएं पढता था। अन्य सब उसपर प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे। एक विशेषज्ञ भी होता था इस गोष्ठी में. उन दिनों हिंदी विभाग में डा जगदीश गुप्त, विजयदेव नारायण साही, डा मोहन अवस्थी, संस्कृत विभाग में डा राजेन्द्र मिश्र, डा राजलक्ष्मी वर्मा जैसे लोग थे, अंग्रेजी विभाग में भी कुछ नियमित हिंदी लेखक थे। मेयो कॉलेज में भी कोई न कोई हमें खाली मिल ही जाता था विशेषज्ञ का पद विभूषित करने के लिए। मनोरमा थी, अमृत प्रभात था, आकाशवाणी थी (वो तो अभी भी है) खूब लिखते थे। छपते थे। प्रसारित होते थे। थियेटर का भी बडा अच्छा वातावरण था। बहुत अच्छा लगता था। </blockquote><blockquote><b>उन दिनों तो इलाहाबाद सिविल सर्विसेस के लिया जाना जाता था। आपका इधर रुझान नहीं हुआ कभी?</b><br />
नहीं, उन दिनों इलाहाबाद में उसके सिवा भी बहुत कुछ था। साहित्य, संगीत और कला की ओर ज़्यादा रुझान रहा हमेशा से. थियेटर का वातावरण भी काफ़ी अच्छा था उस समय। </blockquote><blockquote><b>आप सबसे सहज अपने को क्या लिखने में पाती हैं, कविता, कहानी, संस्मरण?</b><br />
कविताएं, रेखाचित्र और ललित निबंध। </blockquote><blockquote><b>आपके पसंदीदा रचनाकार कौन से हैं?</b> <br />
कविताएं पढना काफ़ी पसंद है पर कोई एक नाम लेना मुश्किल है। सबसे पहले जो पसंद थे वे थे सुमित्रानंदन पंत। फिर जब आगे बढते हैं तो अलग-अलग कवियों की अलग-अलग विशेषताओं को पहचानना शुरू करते हैं और जाने-अनजाने हर किसी से बहुत कुछ सीखते हैं। काफ़ी लोगों के नाम गिनाए जा सकते हैं लेकिन इस तरह बहुत से नाम छूट भी जाएंगे जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है। </blockquote><blockquote><br />
<b>आप </b><b>लगातार अभिव्यक्ति के काम में लगी रहती हैं. आपका पारिवारिक जीवन पर इसका क्या प्रभाव पडता है?</b><br />
मेरे परिवार में दो लोग हैं. मेरी बेटी और मेरे पति. दोनों महाव्यस्त। इस तरह पत्रिका के लिए काम करते रहना सबमें सामंजस्य बना देता है। </blockquote><div style="float: left; margin-bottom: 10px; margin-left: 10px;"><span style="color: teal; font-size: 0.6em; margin-top: 0px;"> </span> <br />
<blockquote><br />
<a href="http://www.flickr.com/photos/94063381@N00/54922384/" title="Photo Sharing"><img alt="hastakshar2" height="240" src="http://static.flickr.com/30/54922384_0d26e372b4_m.jpg" width="115" /></a></blockquote></div><blockquote><b>भारत की तुलना में अबूधाबी में महिलाओं की, खासकर कामकाजी महिलाओं की स्थिति कैसी है? मेरा मतलब कामकाज के अवसर, परिस्थितियां और उनकी सामाजिक स्थिति से है।</b> <br />
शायद तुलना करना ठीक नहीं। यहां पारिवारिक दबाव कम हैं पर प्रतियोगिता ज्यादा हो सकती है। अगर काम के जितने परिणाम की कंपनी अपेक्षा करती है वह नहीं ला सके तो नौकरी खतरे में पड सकती है। बिना नौकरी के ज़िंदा रहना मुश्किल हो सकता है। पर साथ ही अंतर्राष्ट्रीय लोगों के साथ काम करना मनोरंजन और अधिक अनुभव वाला भी हो सकता है। शिक्षक, बिजनेस मैनेजमेंट, डॉक्टर, इंजीनियर सभी क्षेत्रों में महिलाएं हैं। विश्व के हर कोने से लोग यहां काम करने के लिए आते हैं। तो काफ़ी मेहनत करनी पडती है अपने को सफल साबित करने में। यही बात पुरुषों के लिए भी है। </blockquote><blockquote><b> आपकी अपनी सबसे पसंदीदा रचना (रचनाएं) कौन सी है?</b><br />
मुझे तो शायद सब अच्छी लग सकती हैं। बल्कि सवाल मेरी ओर से होना चाहिए था कि आपको मेरी कौन सी कविता सबसे ज्यादा पसंद है। </blockquote><blockquote><b>क्या कभी ऐसा लगता है कि जो लिखा वह ठीक नहीं तथा फिर सुधार करने का मन करे?</b><br />
हां, अक्सर और वेब का मजा ही यह है कि आप जब चाहें जितना चाहें सुधार सकते हैं। </blockquote><blockquote><b>अभी तक अभिव्यक्ति के अधिकतम हिट एक दिन ६00 से कम हैं. इंटरनेट पर आप अभिव्यक्ति की स्थिति से संतुष्ट हैं? </b> <br />
हां, काफ़ी संतुष्ट हूं। मैं इसको रोज क़े हिसाब से नहीं गिनती हूं। हमारा जालघर दैनिक समाचार नहीं देता। इसमें पाठक अपने अवकाश के क्षण बिताते हैं या फिर साहित्य की कोई महत्वपूर्ण जानकारी खोजते हैं। कहानी और व्यंग्य के काफ़ी प्रेमी हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों के तमाम हिंदी छात्र हैं। प्रवासी हिंदी प्रेमी हैं जो व्यस्त समय में से कुछ पल निकाल कर इसे देख लेना ज़रूरी समझते हैं। माह में चार बार इसका परिवर्धन होता है लेकिन इसकी संरचना ऐसी है कि एक महीने की सामग्री मुखपृष्ठ से हमेशा जुडी रहती है। तो हमारे पाठक दैनिक या साप्ताहिक होने की बजाय मासिक हैं। जो एक बार पढ लेता है वह दूसरे दिन दुबारा नहीं खोलता है। अगर दोनों पत्रिकाओं को मिला कर देखें तो इनके हिट 18,000 के आसपास हैं जो एक अच्छी संख्या है और अभी यह बढ रही है तो मेरे विचार से अभी असंतोष की कोई बात नहीं है। </blockquote><blockquote><b> नेट पत्रिकाओं को निकालने में क्या परेशानियां हैं?</b> <br />
परेशानी तो कुछ नहीं है। इसलिए देखिए हर दूसरे दिन एक नयी पत्रिका आती है वेब पर। हिंदी वालों में कंप्यूटर की जानकारी इतनी व्यापक नहीं है जितनी अंग्रेजी, ज़र्मन या फ्रेंच वालों में इसलिए जाहिर है कि हम पीछे हैं। दूसरे हिंदी में यूनिकोड का विकास और ब्राउजर सहयोग हाल में ही मिला है। एम एस आफ़िस भी पिछले साल ही हिंदी में आया है तो वेब पर हिंदी की सही उपस्थिति 2004 से ही हुई समझनी चाहिए। उसके पहले तो हम जबरदस्ती जमे हुए थे। सीमा भी कुछ नहीं है। वेब तो असीमित है। सीमाएं काम करने वालों की होती हैं। </blockquote><blockquote><b>दलित साहित्य, स्त्री लेखन की बात अक्सर उठती है आजकल कि दलित या स्त्री ही अपनी बात बेहतर ढंग से कह सकते हैं। आप क्या सोचती हैं इस बारे में?</b><br />
क्या आप यह कहना चाहते हैं कि बाकी सब लोग अंग्रेजी में लिखने पढने बोलने लगे हैं?हां, मैं मानती हूं कि जनसाधारण की पहली जरूरत रोजग़ार की होती है। और भारत में रोज़गार परक सभी पाठयक्रम अभी तक अंग्रेजी में ही हैं। इसलिए भारतीय जनता पर अंग्रेजी सीखने का बोझ बना रहता है इस कारण भारत का वातावरण हिंदी बोलने या लिखने को प्रोत्साहित नहीं करता। स्त्रियों पर फिर भी पैसे कमाने का दायित्व कम है। दलितों में भी अंग्रेजियत समा नहीं गई है इतने व्यापक रूप से (जितनी दूसरी जातियों में) तो वे अभी हिंदी लिखने में अपने को योग्य और सुविधाजनक महसूस करते हैं। जिसका भी भाषा पर अधिकार है और हृदय संवेदनशील है वह अपनी बात कह सकता है। इसमें जाति या लिंग का सवाल कहां उठता है? </blockquote><blockquote><b> अभिव्यक्ति को शुषा फांट से यूनीकोड फांट में कब तक लाने की योजना है?</b><br />
जितनी जल्दी हो सके, पर समय के बारे में कहना मुश्किल है। लोग समझते हैं कि अगर फांट कन्वर्जन का सॉफ्टवेयर आ गया तो पत्रिका को रातों-रात यूनिकोड पर लाया जा सकता है पर ऐसा नहीं है। इसमें कई समस्याएं हैं। 1-फांट परिवर्तित करने के बाद सघन संपादन की ज़रूरत होती है। घनी प्रूफ़रीडिंग करनी होती है। नए फांट में इसको तेजी से करना संभव नहीं है। हमारे जालघर का आकार 300 मेगा बाइट से भी ज्यादा है तो इसमें लगने वाले समय का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। हम यह नहीं चाहते कि जिस समय यह काम हो रहा हो उस समय जालघर को कुछ दिनों के लिए बंद कर दिया जाए। इसलिए समांतर काम करने की योजना है। 2-अभी हम शुषा के कारण विंडोज 98 पर काम कर रहे हैं। इसलिए एम एस आफ़िस हिंदी का प्रयोग नहीं हो रहा है। इसके अभाव में हमारे फोल्डर और फाइलें अकारादि क्रम से न हो कर ए बी सी डी के क्रम में हैं। यूनिकोड का पूरा इस्तेमाल हो इसके लिए ज़रूरी है कि फाइलों को अकारादि क्रम से व्यवस्थित किया जाए। जब ऐसा किया जाएगा तो हर पृष्ठ का पता बदल जाएगा। हमारे जालघर के अनेक अंश विदेशी विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम या संदर्भ अध्ययन में लगे हुए हैं। इनको अचानक या बार-बार नहीं हटाया जा सकता है। इसके लिए पहले से एक कंप्यूटर पर पूरा जालघर पुर्नस्थापित कर के पूर्वसूचना देनी होगी कि यह पृष्ठ इस दिनांक से इस पते पर उपलब्ध होगा। 3-हम यह भी नहीं चाहते हैं कि काम करते समय आधी पत्रिका एक फांट में हो और आधी दूसरे फांट में। यह पाठक और प्रकाशक दोनों के लिए बहुत मुसीबत का काम है। और भी समस्याएं हैं पर सब बता कर सबको उबाना तो नहीं है। आखिर में एक दिन सभी को यूनिकोड में आना है तो हम जल्दी से जल्दी जैसे भी संभव हो उस तरह से आने की प्रक्रिया में हैं। </blockquote><blockquote><b>मुझे लगता है कि अत्यधिक दुख, विद्रोह, क्षोभ को छापने की बजाय खुशनुमा साहित्य जो बहुत तकलीफ़ न दे पाठक को, छापने के के लिए आप ज्यादा तत्पर रहती हैं। क्या यह सच है? यदि हां तो क्यों?</b><br />
हम हर तरह का साहित्य छापना पसंद करते हैं बशर्ते वह साहित्य हो. आजकल साहित्य के नाम पर रोना धोना, व्यक्तिगत क्षोभ, निराशा या लोकप्रियता लूटने के लिए नग्नता, सनसनी या बहसबाजी क़ा जो वातावरण है उसे साहित्य का नाम दे देना उचित नहीं. स्वस्थ दृष्टि ही साहित्य कहलाती है। साहित्य में रसानुभूति होना जरूरी है। उदाहरण के लिए करुण रस लिखने के लिए करुणा में डूब कर उबरना होता है। उबर नहीं सके तो लेखन में रोनाधोना ही रहेगा। पर उबरना कैसे वो तो साहित्य शास्त्र में पढने का समय किसी के पास नहीं। </blockquote><blockquote><b>आपके लेखन में सबसे ज़्यादा प्रभाव किसका रहता है?</b><br />
कह नहीं सकती। अलग-अलग समय पर अलग-अलग प्रभाव हो सकते हैं। हर लेखक की यही इच्छा होती है कि वह अपना रास्ता अलग बनाए. मेरा रास्ता अभी बना नहीं है। </blockquote><blockquote><b>आपकी रचनाओं के प्रथम पाठक कौन रहते हैं? घर में आपकी रचनाओं को कितना पढा जाता है?</b><br />
मेरे पहले पाठक स्वाभाविक रूप से मेरे सहयोगी अश्विन गांधी और दीपिका जोशी होते हैं। घर में भारत में मां-पिताजी और भाई-भाभी पढते हैं। अमेरिका वाली बहन भी कंप्यूटर वाला सब लेखन पढने का समय निकाल लेती है। जो कागज़ पर प्रकाशित होता है वह उस तक नहीं पहुंचता। ससुराल में मेरी जिठानी हिंदी पढने की शौकीन हैं। प्रिंट माध्यम में जो कुछ आता है जरूर पढती हैं। वे कंप्यूटर इस्तेमाल करती हैं पर कंप्यूटर पर पत्रिका पढना अलग बात है। बाकी सब अपनी दुनिया में व्यस्त, सबके अलग-अलग शौक हैं। </blockquote><blockquote><b> देश से दूर रहकर साहित्य सृजन कैसा लगता है? देश से दूर रहना कैसा लगता है?</b><br />
देश में रहने या परदेस में रहने में खास कुछ फ़र्क नहीं है। हां, यहां काम करने का समय और सुविधाएं ज्यादा हैं। एक कंप्यूटर पास में हो तो क्या देश क्या परदेस आप सभी से जुडे रहते हैं। </blockquote><blockquote><b> अभिव्यक्ति निकालनें में कितना खर्च आता है? कौन इसे वहन करता है?</b><br />
इतना ज्यादा नहीं आता कि किसी से मांगना पडे। हम सब मिल कर उठा लेते हैं। पर लेखकों को मानदेय मिलना चाहिए। वह व्यवस्था हम नहीं कर पाए हैं। उस ओर प्रयत्नशील हैं। </blockquote><blockquote><b>आपका अपना रचनाकर्म कितना प्रभावित होता है संपादन से?</b><br />
कुछ न कुछ ज़रूर होता होगा। जब सारा मन मस्तिष्क पत्रिका में लगा हो। पर मैं वैसे भी ज़्यादा लिखने वालों में से नहीं तो खास अंतर महसूस नहीं होता। </blockquote><blockquote><b>आप आलोचकों द्वारा स्थापित मान्य रचनाकारों की बजाय जनप्रिय रचनाकारों को ज्यादा तरजीह देती हैं. क्या विचार है आपके इस बारे में?</b><br />
अपनी ओर से हम दोनों को बराबर स्थान देने की कोशिश करते हैं। आलोचकों द्वारा मान्य और स्थापित लेखकों को पुरस्कार और सम्मान दिए जाते हैं। ये रचनाकार थोडे से होते हैं। पर भारत में हजारों अच्छा लिखने वाले हैं. सबको सम्मान या पुरस्कार नहीं मिल जाता. पुरस्कार या सम्मान नहीं मिला इसका मतलब यह नहीं कि उनकी रचनाओं में दम नहीं। पुरस्कृत या सम्मानित लेखकों को बार बार प्रकाशित करना पाठकों के लिए उबाऊ हो सकता है। नियमित पत्रिका के लिए निरंतर नवीनता की आवश्यकता होती है। जनता में लोकप्रिय लेखकों को पुरस्कार के विषय में सोचने या तिकडम लगाने की जरूरत या समय नहीं मिलता इस बात को तो आप भी मानेंगे। आलोचकों के भी अपने-अपने पूर्वग्रह हो सकते हैं। इसलिए यह नहीं कह सकते कि जनप्रिय रचनाकार अच्छा नहीं लिखते। जनप्रिय रचनाकारों ने भी बेहतरीन साहित्य रचा है और लगातार रच रहे हैं। हम खोज कर ऐसा साहित्य अंतर्राष्ट्रीय पाठकों को सुलभ कराने की कोशिश करते हैं। प्राचीन साहित्य को संरक्षित करते हुए नए साहित्य को प्रोत्साहित करना ही हमारा उद्देश्य है और इसलिए न केवल जनप्रिय लेखक बल्कि उदीयमान लेखकों को भी हम पूरा प्रोत्साहन देते हैं। </blockquote><blockquote><b>हिंदी के कई चिठ्ठाकार आपके नियमित लेखक हैं- रवि रतलामी, अतुल अरोरा, प्रत्यक्षा आदि। चिठ्ठाकारी के प्रति आपके क्या विचार हैं?</b><br />
रवि जी की प्रतिभा बहुमुखी है इससे आप इनकार नहीं करेंगे। वे लगभग शुरू से ही हमारी पत्रिका से जुडे हुए हैं। उनके व्यंग्य और कविताएं लोगों ने पसंद की हैं। प्रौद्योगिकी के उनके नियमित स्तंभ ने उनके बहुत से शिष्य बनाए होंगे। मुझे यह बहुत बाद में पता चला कि वे हिंदी कंप्यूटिंग के क्षेत्र के जाने-माने विद्वान हैं। हमारे साथ स्तंभ लिखना उन्होंने बहुत बाद में शुरू किया। चिठ्ठाकारी लोग नियमित रूप से करते हैं और अक्सर व्याकरण और वर्तनी पर ध्यान नहीं देते। संपादन भी नहीं होता है पर इसका मतलब यह नहीं कि उन लेखकों में प्रतिभा नहीं या उनकी हिंदी अच्छी नहीं। कुछ तो सुविधाओं की कमी है जैसे हर एक के पास हिंदी आफ़िस नहीं जो गलत वर्तनी को रेखांकित कर सके, दूसरे समय की भी कमी है। अगर इन्हीं लोगों को समय और सुविधा मिले तो हिंदी साहित्य का कायाकल्प हो सकता है। जब मैंने अतुल के कुछ छोटे आलेख देख कर उनसे नियमित स्तंभ की बात की थी तब वे रचनात्मक आकार में नहीं थे। उन्होंने समय और श्रम लगा कर उसे जो आकार दिया उसे सबने पसंद किया। इसी तरह बहुत से चिठ्ठे ऐसे हैं जिन पर ध्यान दिया जाए तो वे स्तरीय साहित्य की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। हमें प्रसन्नता होगी अगर ऐसे लोग हमारे साथ आकर मिलें और अभिव्यक्ति का हिस्सा बनें। चिठ्ठा लिखने में किसी अनुशासन या प्रतिबध्दता की जरूरत नहीं है। आपका मन है दो दिन लगातार भी लिख सकते हैं और फिर एक हफ्ता ना भी लिखें। पर जब पत्रिका से जुडना होता है तो अनुशासन और प्रतिबध्दता के साथ-साथ काफ़ी लचीलेपन की भी जरूरत होती है। ये गुण जिस भी चिठ्ठाकार में होंगे वह अच्छा साहित्यकार साबित होगा। प्रत्यक्षा हमारी लेखक पहले हैं चिठ्ठाकार बाद में। विजय ठाकुर और आशीष गर्ग आदि कुछ और चिठ्ठाकारों के बारे में भी सच यही है । </blockquote><div style="float: right; margin-bottom: 10px; margin-left: 10px;"><span style="color: teal; font-size: 0.6em; margin-top: 0px;"></span> <br />
<blockquote><br />
<a href="http://www.flickr.com/photos/94063381@N00/54922385/" title="Photo Sharing"><img alt="hastakshar1" height="192" src="http://static.flickr.com/27/54922385_9ad2ff24dc_m.jpg" width="240" /></a></blockquote></div><b>आपने चिठ्ठा लिखना शुरू किया था। अश्विन गांधी के चित्रों के साथ कुछ खूबसूरत कविताएं लिखीं थीं, चिठ्ठा लिखना स्थगित क्यों कर दिया?</b> हमेशा के लिए स्थगित नहीं हो गया है। थोडा रुक गया है. मुझे अपनी कविताओं के लिए जैसे ले आउट की जरूरत थी उसके लायक तकनीकी जानकारी मेरे पास फिलहाल नहीं है। जैसे पृष्ठ मुझे चाहिए उसके लिए काफ़ी प्रयोग की आवश्यकता है जिसका समय नहीं मिल रहा है। कुछ चिठ्ठाकर जरूर ऐसे होंगे जिन्हें ब्लॉग पर ले आउट और ग्राफ़िक्स के प्रदर्शन की बढिया जानकारी होगी। शायद मुझे कोई ऐसा सहयोगी मिल जाए जो इस काम में सहयोग कर सके। पर अभी तक ऐसा हुआ नहीं है। अगर हो भी तो इस व्यस्तता के दौर में दोनों ओर से काम करने का समय और सुविधा का संयोग होना भी जरूरी है।<br />
<br />
<b>कुछ हमारे जैसे चिठ्ठाकार हैं जो आपको जबरदस्ती अपना लिखा पढाते रहते हैं. क्या आप अन्य लोगों को भी नियमित पढ पाती हैं?</b> <br />
चिठ्ठाकार की सदस्य हूं तो नियमित मेल आती है। लगभग सभी नए चिठ्ठाकारों के चिठ्ठे मिल जाते हैं। काफ़ी चिठ्ठे देखती हूं पर सभी लेख पढे हैं ऐसा नहीं कह सकती कभी-कभी छूट भी जाते हैं। <br />
<b>साहित्य से समाज में बदलाव की आशा करना कितना तर्क संगत है?</b><br />
दो सौ प्रतिशत तर्क संगत है। आप ध्यान दें तो पाएंगे कि दुनिया के सभी क्रांतिकारी श्रेष्ठ लेखक हुए हैं। हां, लेखक में क्रांतिकारी के गुण होने चाहिए। मैं गांधी जी की इस कथन में विश्वास रखती हूं कि ''मुठ्ठी भर संकल्पवान लोग जिनकी अपने लक्ष्य में दृढ आस्था है, इतिहास की धारा को बदल सकते हैं।''<br />
<br />
<b>दुनिया में खासकर अंग्रेजी भाषा में हर दूसरे महीने कोई बेस्ट सेलर आता है तथा कोई न कोई नया कीर्तिमान बना जाता है। इसकी तुलना में हिंदी साहित्य की गुणवत्ता तथा प्रचार-प्रसार की स्थिति को किस रूप में देखती हैं?</b><br />
हिंदी प्रकाशकों में कोई अरब-खरबपति नहीं है, इसलिए वे लोग जोखिम लेने से डरते हैं। नए लेखकों के प्रचार और प्रोत्साहन में पैसे नहीं फेंकते पर आशा रखती हूं कि जल्दी ही ये दिन दूर होंगे। हिंदी को फैशन और सभ्य समाज की भाषा के रूप में अभी तक प्रस्तुत नहीं किया गया है पर समय बदलेगा ज़रूर। अभी बीस साल पहले तक हिंदी में पॉप म्यूजिक़ हास्यास्पद बात समझी जाती थी। सब अंग्रेजी क़े दीवाने थे पर अब देखिए तो सोनी और एम टी वी पर हिंदी पॉप गायकी को कितना प्रोत्साहन मिल रहा है। वीवा, आसमां, इंडियन आइडोल अभिजित सावंत या फेमगुरुकुल के काजी तौकीर जैसे लोगों के पास फैन फालोइंग है, पैसा है। साहित्य में अभी उस ओर लोग सोच रहे हैं। आशा रखें कि यह सोच जल्दी ही कार्यान्वित हो और हिंदी के साहित्य सितारे भी लोगों की भीड क़े साथ जगमगाएं। बडे-बडे बुक स्टोर्स उनके विशेष कार्यक्रम आयोजित करें और उनके हस्ताक्षरों से युक्त पुस्तकें 10 गुने दाम पर बिकें।<br />
<br />
<b> नए लेखकों में आप किसमें सबसे ज्यादा संभावनायें देखती हैं?</b><br />
नाम लेकर तो नहीं कहूंगी पर आजकल हिंदी में लिखने वाले पहले की अपेक्षा बहुत ज्यादा हैं, विद्वान हैं, अंतर्राष्ट्रीय अनुभव से संपन्न हैं। आज हिंदी लेखक कुर्ता झोला वाली छवि से बाहर आ चुका है. वे प्रकाशक या प्रचार के मोहताज भी नहीं हैं. चाहें तो अपना पैसा खर्च कर के स्वयं को स्थापित कर सकते हैं। बस दस साल और इंतजार करें। हिंदी की दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है।<br />
<br />
<b> आपकी पसंदीदा पोशाक क्या है?</b><br />
सदाबहार साडी।<br />
<br />
<b> खाने में क्या पसंद है?</b> <br />
कददूकस किया हुआ अरबी खीरा हल्का सा नमक डाल के, गरम-गरम हिंदुस्तानी रोटी के साथ।<br />
<br />
<b>सबसे खुशी का क्षण याद हो कोई?</b> <br />
जीवन में कोई बडा उतराव चढाव नहीं रहा। इसलिए खुशी या अवसाद की ऐसी कोई विशेष घटना याद नहीं।<br />
<br />
<b> सबसे अवसाद का क्षण?</b> <br />
जैसा पहले कहा।<br />
<br />
<b>अगर आपको फिर से जीवन जीनेका मौका मिले तो किस रूप में जीना चाहेंगीं?</b><br />
मैं 21 साल की उम्र से अभिव्यक्ति पर काम करना चाहूंगी ताकि जब मैं 50 की होऊं तब तक यह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ जालघर हो जाए। 21 वर्ष की उम्र से इसलिए कि इसके पहले मैं वेब पब्लिशिंग में स्नातक या परास्नातक कोई डिग्री लेना पसंद करुंगी।<br />
<br />
<b>शब्दांजली के लिए कोई संदेश देना चाहेंगी?</b><br />
तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार।<br />
<br />
--प्रस्तुति - <a href="http://hindini.com/fursatiya/">अनूप शुक्ला</a>Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-41772118828765886832010-09-27T00:37:00.000-07:002010-09-27T00:37:52.285-07:00मूंछे, नाक और मनोबल--स्नेह मधुर<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEip2DwWsZMe3gWf9hWzJnZLeBsMbFdSHXbCxOOIYJh6jV_VAmMadyWWNJcc_duiRCa6SbeIgvMW80xUHTb_W3twKEJKcKCPHS57qmGC9ZO6SsAS87vqbkHdtUioXgGKnhOv_5kkqg1LPys/s1600/nose.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEip2DwWsZMe3gWf9hWzJnZLeBsMbFdSHXbCxOOIYJh6jV_VAmMadyWWNJcc_duiRCa6SbeIgvMW80xUHTb_W3twKEJKcKCPHS57qmGC9ZO6SsAS87vqbkHdtUioXgGKnhOv_5kkqg1LPys/s1600/nose.jpeg" /></a></div><br />
हर इंसान के चेहरे पर नाक होती है। शरीफ और पढे लिखे लोग इस नाक को अपनी इज्जत बताते हैं। वैसे जानवरों की भी नाक होती है, लेकिन जानवरों की नाक इंसानी नाक की तरह जब तब कटती नहीं रहती है। यह शोध का विषय हो सकता है कि इंसान को अपनी नाक कटने से अधिक पीड़ा होती है या जेब कटने से? इंसान की जेब और नाक में किस तरह का संबंध है? <br />
इंसान की 'अनकवर्ड ' नाक उसकी प्रतिष्ठा का प्रतीक कब और कैसे बन गई यह भी शोध का विषय हो सकता है। शरीर के किसी अंग पर हमला हो या किसी का चारित्रिक पतन हो जाय लेकिन बोलचाल की भाषा में इसे प्रतिष्ठित व्यक्ति की नाक कटना ही कहा जाता है। यहां तक कि लोग घृणा मिश्रित स्वर में कहने लगते हैं , देखो उसने अपनी नाक कटा डाली।<br />
कहने को तो यह कहा जा सकता है कि इंसान क्या जनवरों के पास तक नाक होती है। लेकिन अपने देश में राजनीतिक नाम का एक प्राणी होता है, जिसके पास नाक नहीं होती। क्या अपने कभी सुना है कि किसी नेता की नाक कट गयी? नाक तो उसी की कट सकती है जिसकी जेब भी कट सकती हो। जेब काटने वालों की नाक भला कैसे कटेगी? लेकिन आप माने या न माने , पुलिस वालों के पास भी नाक होती है, जो इंसान और जानवरों की नाक से भिन्न होती है। एक फर्क यह भी है कि पुलिस वालों की नाक जब तब कटती नहीं रहती और उनकी जेब तो खैर कभी कटती ही नहीं। या इसे यूं भी कहा जा सकता है कि उनकी नाक कट ही नहीं सकती क्योंकि उनकी नाक स्थूल नहीं होती है। इंसान की नाक टेलीविजन का वह मानीटर है जिस पर तन और मन में हो रहे परिवर्तनों को देखा जा सकता है। टेलीविजन पर दक्षिणी अफ्रीका और जिम्बाब्वे के साथ हो रहे क्रिकेट मैच के उतार -चढाव को देखकर उत्साही लोग कह रहे थे कि फलां टीम ने अपनी नाक कटा दी या फला टीम ने अपने देश की नाक ऊंची कर दी। पुलिस वालों की नाक मेन्होल का ढक्कन होती है जिसको ऊपर से देखकर भीतर बहने वाले पदार्थ का अंदाज लगाने में गङबङी हो सकती है।<br />
पुलिस और इंसान के पास एक चीज कामन होती है। वह है मनोबल। यह मनोबल बङा क्षण भंगुर होता है। जरा सी हवा बदली नहीं या सामने वाले ने घुर कर देख लिया नहीं कि कच्च की आवाज के साथ टूट जाता है। अगर मनोबल के नीचे पानी की लहरें थपेङे देने लगें तो यह ऊपर उठने लगता है। कभी-कभी मुझे लगता है कि मनोबल हौज में भरे पानी में तैरती नाव है। पानी भर दिया तो यह मनोबल ऊपर उठने लगता है। पानी निकाल दिया तो मनोबल बैठ गया।<br />
अखबारों में अकसर खबरें छपती हैं कि पुलिस की नाक के नीचे राहजनी हो रही है, तसकरी हो रही है। पुलिस की नाक अखबार वालों की नजर में नाक नहीं ढक्कन है, दरवाजा है, दरवाजे पर लटकता ताला है। तालाबंद किया और भीतर कुछ भी हो रहा है इससे किसी को कोई मतलब नहीं होना चाहिये। अगर इंसान की नाक उसके चरित्र का आईना है तो पुलिस की नाक वह फ्रेम है जिसमें कारीगर शीशा लगाना ही भूल गया है। अब कोई क्या कर लेगा?<br />
नाक के नीचे आम तौर पर मूंछे पाई जाती हैं। अगर मूंछे नहीं है तो नाक के नीचे सीधे उदरस्थ करने वाला मुंह मिलेगा। मूंछे बङी खतरनाक चीज होती हैं। जिसकी जितनी बङी मूंछे होंगी उसे फर्स्ट साइट में उतना ही खतरनाक मान लिया जाता है, भले ही वह चूहा देखकर रजाई में घुस जाय। बिना मूंछ वाले किसी व्यक्ति के सामने बैठकर कोई मूंछवाला अगर नाहक ही अपनी मूंछो को ऎंठने लगे तो साहब बिना चाकू तमंचे के ही दंगा हो जायेग। सामने वाले की आंखो में अपनी आंखे डालकर अपनी मूंछो पर उंगलियां फेरना बिना घोषणा के युद्व का ऎलान है। अगर मूंछो पर उंगलियां फेरने वाला साथ में मुस्कुराता भी जा रहा हो तो यह मुस्कुराहट सीज फायर नहीं बल्कि आग मॆं घी डालने का काम करेगी। मेरे एक मित्र कहते हैं कि मूंछो पर उंगलियां फ्राते हुये मुस्कुराना वैसा ही है जैसे किसी देश पर कब्जा करने के बाद वहां के लाल किले जैसी इमारत पर झंडा रोहण करना।<br />
मूंछ नाक और मनोबल का आपस में क्या संबंध है? किस अदृश्य नाजुक डोर से ये बंधे हैं, यह समझना टेढी खीर है। तीनों में दोस्ती या दुश्मनी का कोई रिश्ता जरूर है। संभवतः ये इंटरनेट जैसी किसी प्रणाली से जुङे हों जिसकी खोज करना अभी बाकी हो। लेकिन ऎसा क्यों होता हैकि पुलिस वालों की बङी-बङी मूंछे देखकर बिना मूंछो वालों का मनोबक तत्काल गिर जाता है। जैसे जेठ की दोपहरी में अचानक ओला गिरने से तापमान गिर जाता है। इसी तरह से शरीफ लोगों की नाक ऊंची होते देख पुलिस वालों का मनोबल पहाङ के शीर्ष से लुढकते पत्थर की तरह गिरने लगता है। जब किसी पुलिस वाले की मूंछे नीचे की तरफ झुकती हैं तो शरीफ व्यक्ति की नाक कटती है तो पुलिस वालों का मनोबल बोतल से निकले जिन्न की तरह बढने लगता है....हा...हा..।<br />
किसी गरीब को सताने, जमीन से गैर कानूनी रूप बेदखल कर देने, अपराधियों के साथ मिलकर साजिश रचने और हजार गुनाह करने के बाद भी पुलिस का मनोबल क्यों बढता है और यदाकदा किसी मामले में फंस जाने पर, फर्जी मुठभेङ का मामला खुल जाने पर या शरीफ लोगों को अपमानित करने के मामले में दंडित हो जाने पर उनका सिर शर्म से क्यों नहीं झुकता है? उनका मनोबल क्यों गिरने लगता है? क्या ऎसा नहीं हो सकता कि पुलिस के मनोबल और शरीफ लोगों की नाक में सीधा संबंध हो जाय। यानी समानुपाती। अर्थात शरीफों के सम्मान की रक्षा करने पर पुलिस का मनोबल बढे, उनकी नाक और मूंछे दोनो ऊपर हो जाय। काश ऎसा हो सकता।<br />
<a href="http://shabdokiunjali.blogspot.com/2009/11/blog-post.html">स्नेह मधुर</a>Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-16827130294725614492010-09-22T19:53:00.000-07:002010-09-22T19:53:33.006-07:00निर्मल वर्मा<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhkFF1lHy6iduhC9EGMIQUSJaewJAh7CYQNkmVPwB9S6lqwPxEdWO38RLUBFwcGCET6K35hgF7lHX4IijUc2RvOC5WXhcBdFuG7RXAB_Mmxksx4kHdQg-nQaWNpJssbrPqbbRVRzTurgVY/s1600/nirmal-verma.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhkFF1lHy6iduhC9EGMIQUSJaewJAh7CYQNkmVPwB9S6lqwPxEdWO38RLUBFwcGCET6K35hgF7lHX4IijUc2RvOC5WXhcBdFuG7RXAB_Mmxksx4kHdQg-nQaWNpJssbrPqbbRVRzTurgVY/s1600/nirmal-verma.jpg" /></a></div> निर्मल वर्मा<br />
जन्म : १९२९ ।<br />
जन्मस्थान : शिमला। बचपन पहाड़ों पर बीता।<br />
शिक्षा : सेंट स्टीफेंसन कालेज, दिल्ली से इतिहास में एम. ए. । कुछ वर्ष अध्यापन भी किया। <br />
१९५९ में प्राग, चेकोस्लोवाकिया के प्राच्यविद्या संस्थान और चेकोस्लोवाकिया लेखक संघ द्वारा आमन्त्रित। सात वर्ष चेकोस्लोवाकिया में रहे और कई चेक कथाकृतियों के अनुवाद किये। कुछ वर्ष लंदन में यूरोप प्रवास के दौरान टाइम्स आफ इन्डिया के लिये वहां की सांस्कृतिक-राज्नीतिक समस्याओं पर लेख और रिपोर्ताज लिखे। <br />
१९७२ में भारत वाप्सी। इसके बाद इन्डियन इंस्टीट्यूट आफ एड्वांस स्टडीज़ (शिमला) में फेलो रहे और मिथक चेतना पर कार्य किया। १९७७ में इंटरनेशनल राइटिंग प्रोग्राम, आयोवा(अमेरिका) में हिस्सेदारी। <br />
उनकी 'मायादर्पण' कहानी पर फिल्म बनी जिसे १९७३ में सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म का पुरस्कार प्राप्त हुआ।<br />
वे निराला सृजन पीठ, भॊपाल (१९८१-८३) और यशपाल सृजन पीठ शिमला(१९८९) के अध्यक्ष भी रहे। <br />
१९८७में इंग्लैंड के प्रकाशक रीडर्स इंटरनेशनल द्वारा निर्मल वर्मा का कहानी संग्रह 'द वर्ल्ड एल्सव्हेयर' प्रकाशित किया गया। उसी अवसर पर उनके व्यक्तित्व पर बी.बी.सी चैनल४ पर एक प्रसारित व इंस्टीट्यूट आफ कान्टेम्प्रेर्री आर्ट्स (आई.सीए.) द्वारा अपने वीडियो संग्रहालय के लिये उनका एक लंबा इंटरव्यू रिकार्डित किया गया।<br />
उनकी पुस्तक क्व्वे और कालापानी को साहित्य अकादमी (१९८५)से सम्मानित किया गया। <br />
संपूर्ण कृतित्व के लिये १९९३ का साधना सम्मान दिया गया।<br />
उ.प्र. हिंदी संस्थान का सर्वोच्च राम मनोहर लोहिया अतिविशिष्ट सम्मान (१९९५) में मिला।<br />
भारतीय ज्ञान पीठ का मूर्तिदेवी सम्मान (१९९७) में मिला।<br />
<strong>प्रकाशित पुस्तकें:</strong><br />
वे दिन, लाल टीन की छत, एक चिथड़ा सुख, रात का रिपोर्टर (<em>उपन्यास</em>);<br />
परिंदे, जलती झाड़ी, पिछली गर्मियों में, कव्वे और काला पानी, प्रतिनिधि कहानियां, मेरी प्रिय कहानियां, बीच बहस में, सूखा तथा अन्य कहानियां (<em>कहानी संग्रह</em>); <br />
चीड़ों पर चांदनी, हर बारिश में (<em>यात्रा संस्मरण);</em><br />
शब्द और स्मृति, कला और जोखिम, ढलान से उतरते हुये, भारत और यूरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र, शताब्दी के ढलते वर्षों में (<em>निबन्ध</em>);<br />
तीन एकांत <em>नाटक</em>)<br />
दूसरी दुनिया (<em>संचयन)</em><br />
<strong>अंग्रेजी में अनुदित : </strong><br />
डेज़ आफ लागिंग. डार्क डिस्पैचेज़, ए रैग काल्ड हैपीनैस (<em>उपन्यास</em>)<br />
हिल स्टेशन, क्रोज़ आफ डिलीवरेम्स, द वर्ल्ड एल्स्व्हेयर, सच ए बिग इयर्निंग (<em>कहानिया</em>ं)<br />
वर्ल्ड एंद मेरी (<em>निबन्ध)</em><br />
<strong>हिन्दी में अनुदित</strong>: कुप्रीन की कहानियांSarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-28081392453373097492010-09-22T00:32:00.000-07:002010-09-22T19:56:05.304-07:00दहलीज --निर्मल वर्मा<div class="separator" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8wBOgQtnbbnM7dpUpBHsmL3LE7Ksrz8qK7_MyDmRNj8rYuTYLCNPV2EjYWNqwHBnIZvRarsMaXNT_wdRH6ucJqj6kWF1J-ujcewthbYZ7Qq0sbtjX_zBqtgqflIywuBHHy1d7RVrH9ps/s200/shasteen1_500x654.jpg" width="152" /></div><br />
दहलीज --<a href="http://shabdokiunjali.blogspot.com/2010/09/blog-post_22.html">निर्मल वर्मा</a><br />
पिछली रात रूनी को लगा कि इतने बरसों बाद कोई पुराना सपना धीमे कदमों से उसके पास चला आया है। वही बंगला था, अलग कोने में पत्तियों से घिरा हुआ....धीरे धीरे फाटक के भीतर घुसी है...मौन की अथाह गहराई में लान डूबा है....शुरु मार्च की वसंती हवा घास को सिहरा-सहला जाती है...बहुत बरसों के एक रिकार्ड की धुन छतरी के नीचे से आ रही है...ताश के पत्ते घांस पर बिखरे हैं....लगता है शम्मी भाई अभी खिलखिला कर हंस देंगे और आपा(बरसों पहले जिनका नाम जेली था) बंगले के पिछवाड़े क्यारियों को खोदते हुये पूंछेंगी- रूनी जरा मेरे हांथों को तो देख, कितने लाल हो गये हैं!<br />
<br />
इतने बरसों बाद रूनी को लगा कि वह बंगले के सामने खड़ी है और सब कुछ वैसा ही है, जैसा कभी बरसों पहले, मार्च के एक दिन की तरह था...कुछ भी नहीं बदला, वही बंगला है, मार्च की खुश्क, गरम हवा सांय-सांय करती चली आ रही है, सूनी सी दोपहर को परदे के रिंग धीमे-धीमे खनखना जाते हैं-और वह घांस पर लेटी है-बस, अब अगर मैं मर जाऊं, उसने उस घड़ी सोंचा था।<br />
<br />
लेकिन वह दोपहर ऎसी न थी कि केवल चाहने भर से कोई मर जाता। लान के कोने में तीन पेड़ों का झुरमुट था, ऊपर की फुनगियां एक दूसरे से बार-बार उलझ जातीं थीं। हवा चलने से उनके बीच के आकाश की नीली फांक कभी मुंद जाती थी कभी खुल जाती थी। बंगले की छत पर लगे एरियल पोल के तार को देखो, (देखो तो घांस पर लेटकर अधमुंदी आंखो से रूनी ऎसे ही देखती है) तो लगता है, कैसे वह हिल रहा है हौले-हौले -अनझिप आंख से देखो(पलक बिल्कुल न मूंदो, चांहे आंखों में आंसू भर जायें तो भी- रूनी ऎसे ही देखती है।) तो लगता है जैसे तार बीच में से कटता जा रहा है और दो कटे हुये तारों के बीच आकाश की नीली फांक आंसू की सतह पर हल्के-हल्के तैरने लगती है....<br />
<br />
हर शनिवार की प्रतीक्षा हफ्ते भर की जाती है।...वह जेली को अपने स्टाम्प एल्बम के पन्ने खोल कर दिखलाती है और जेली अपनी किताब से आंखे उठाकर पूंछती है-अर्जेन्टाइना कहां है? सुमात्रा कहां है?...वह जेली के प्रश्नों के पीछे छिपे फैली हुई असीम दूरियों के धूमिल छोर पर आ खड़ी होती है।...हर रोज़ नये-नये देशों के टिकटों से एल्बम के पन्ने भरते जाते हैं, और जब शनिवार की दोपहर को शम्मी भाई होटल से आते हैं, तो जेली कुर्सी से उठ खड़ी होती है, उसकी आंखो में एक घुली-घुली सी ज्योति निखर जाती है और वह रूनी के कंधे झकझोर कर कहती है- जा, जरा भीतर से ग्रामोफोन तो ले आ।<br />
<br />
रुनी क्षण भर रुकती है, वह जाये या वहीं खड़ी रहे? जेली उसकी बड़ी बहन है,उसके और जेली के बीच बहुत से वर्षों का सूना और लम्बा फासला है। उस फासले के दूसरे छोर पर जेली है, शम्मी भाई हैं, वह इन दोनों में से किसी को छू नहीं सकती। वे दोनों उससे अलग जीते हैं।...ग्रामोफोन महज एक बहाना है, उसे भेजकर जेली शम्मी भाई के संग अकेली रह जायेगी और तब....रूनी घांस पर अकेली भाग रही है बंगले की तरफ...पीली रोशनी में भीगी घांस के तिनको पर रेंगती हरी, गुलाबी धूप और दिल की धड़कन, हवा दूर के मटियाले पंख एरियल पोल को सहला जाते हैं सर्र सर्र, और गिरती हुई लहरों की तरह झाड़ियां झुक जाती हैं। आंखो से फिसलकर वह बूंद पलकों की छाह में कांपती है, जैसे वह दिल की धड़कन है, जो पानी में उतर आई है।<br />
<br />
शम्मी भाई जब होटल से आते हैं, तो वे सब उस शाम लान के बीचोंबीच कैन्वास की पैराशूट्नुमा छतरी के नीचे बैठते हैं। ग्रामोफोन पुराने जमाने का है। शम्मी भाई हर रिकार्ड के बाद चाभी देते हैं, जेली सुई बदलती हैऔर वह, रूनी चुपचाप चाय पीती है। जब कभी हवा का कोई तेज झोंका आता है, तो छतरी धीरे-धीरे डॊलने लगती है, उसकी छाया चाय के बर्तनों, टिकोज़ी और जेली के सुनहरे बालों को हल्के से बुहार जाती है और रूनी को लगता है कि किसी दिन हवा का इतना जबर्दस्त झोंका आयेगा कि छतरी धड़ाम से नीचे आ गिरेगी और वे तीनों उसके नीचे दब मरेंगे।<br />
<br />
शम्मी भाई जब अपने होस्टल की बातें बताते हैं, तो वह और जेली विस्मय और कौतुहूल से टुकुर-टुकुर उनके हिलते हुये होंठों को निहारती हैं। रिश्ते में शम्मी भाई चाहें उनके कोई न लगते हों लेकिन उनसे जान पहचान इतनी पुरानी है कि अपने पराये का अंतर कभी उनके बीच याद आया हो, याद नहीं पड़ता। होस्टल में जाने से पहले जब वह इस शहर में आये थे, तो अब्बा के कहने पर कुछ दिन उनके ही घर रहे थे। जब कभी वह शनिवार को उनके घर आते हैं, तो अपने संग जेली के लिये यूनीवर्सिटी की लायब्रेरी से अंग्रेजी उपन्यास और अपने दोस्तों से मांगकर कुछ रिकार्ड लाना नहीं भूलते।<br />
<br />
आज इतने बरसों बाद भी जब उसे शम्मी भाई के दिये हुये अजीब-अजीब नाम याद आते हैं, तो हंसी आये बिना नहीं रहती। उनकी नौकरानी मेहरू के नाम को चार चांद लगाकर शम्मी भाई ने कब सदियों पहले की सुकुमार राजकुमारी मेहरुन्निसा बना दिया, कोई नहीं जानता। वह रेहाना से रूनी बन गई आपा पहले बेबी बनी, उसके बाद जेली आइसक्रीम और अखिर में बेचारी सिर्फ जेली बनकर रह गई। शम्मी भाई के नाम इतने बरसों बाद भी , लान की घास और बंगले की दीवारों से लिपटी बेल-लताओं की तरह, चिरन्तन और अमर है।<br />
<br />
ग्रामोफोन के घूमते हुये तवे पर फूल पत्तियां उग आती हैं, एक आवाज़ उन्हें अपने नरम, नंगे हांथों से पकड़कर हवा में बिखेर देती है, संगीत के सुर झाडियों में हवा से खेलते हैं, घांस के नीचे सोई हुई भूरी मिट्टी पर तितली का नन्हा सा दिल धड़्कता है...मिट्टी और घांस के बीच हवा का घोंसला कांपता है...कांपता है...और ताश के पत्तों पर जेली और शम्मी भाई के सिर झुकते हैं, उठते हैं, मानो वे चार आंखो से घिरी झील में एक दूसरे की छायायें देख रहे हों।<br />
<br />
और शम्मी भाई जो बात कहते हैं, उस पर विश्वास करना न करना कोई माने नहीं रखता। उनके सामने जैसे सब कुछ खो जाता है...और कुछ ऎसी चीज़ें हैं जो मानो चुप रहती हैं और जिन्हें जब रूनी रात को सोने से पहले सोंचती है, तो लगता है कहीं गहरा, धुंधला सा गड्ढा है, जिसके भीतर वह फिसलते-फिसलते बच जाती है, और नहीं गिरती तो मोह रह जाता है न गिरने का। ...और जेली पर रोना आता है, गुस्सा आता है। जेली में क्या कुछ है, जो शम्मी भाई जो उसमें देखते हैं , वह रूनी में नहीं देखते? और जब शम्मी भाई जेली के सांग रिकार्ड बजाते हैं, ताश खेलते हैं, ( मेज के नीचे अपना पांव उसके पांव पर रख देते हैं) तो वह अपने कमरे की खिड़्की के परदे के परे चुपचाप उन्हें देखती रहती है, जहां एक अजीब सी मायावी रहस्मयता में डूबा, झिलमिल सा सपना है और परदे को खोलकर पीछे देखना, यह क्या कभी नहीं हो पायेगा?<br />
<br />
मेरा भी एक रहस्य है जो ये नहीं जानते, कोई नहीं जानता। रूनी ने आंखे मूंदकर सोंचा, मैं चाहूं तो कभी भी मर सकती हूं, इन तीन पेड़ों के झुरमुट के पीछे, ठन्डी गीली घांस पर, जहां से हवा में डोलता हुआ एरियल पोल दिखाई देता है।<br />
<br />
हवा में उड़ती हुई शम्मी भाई की टाई...उनका हांथ, जिसकी हर उंगली के नीचे कोमल सफेद खाल पर लाल-लाल से गड्ढे उभर आये थे, छोटे-छोटे चांद से गड्ढे, जिन्हें अगर छुओ, मुट्ठी में भींचो, ह्ल्के-ह्ल्के से सहलाओ, तो कैसा लगेगा? सच कैसा लगेगा? किन्तु शम्मी भाई को नहीं मालूम कि वह उनके हांथों को देख रही है, हवा में उड़ती हुई उनकी टाई, उनकी झिपझिपाती आंखो को देख रही है।<br />
<br />
ऎसा क्यों लगता है कि एक अपरिचित डर की खट्टी-खट्टी सी खुशबू अपने में धीरे-धीरे घेर रही है, उसके शरीर के एक एक अंग की गांठ खुलती जा रही है, मन रुक जाता है और लगता है कि वह लान से बाहर निकलकर धरती के अंतिम छोर तक आ गई है और उसके परे केवल दिल की धड़कन है, जिसे सुनकर उसका सिर चकराने लगता है( क्या उसके संग ही ये सब होता है या जेली के संग भी)।<br />
<br />
-तुम्हारी ऎल्बम कहां है?- शम्मी भाई धीरे से उसके सामने आकर खड़े हो गये। उसने घबराकर शम्मी भाई की ओर देखा। वह मुस्कुरा रहे थे।<br />
-जानती हो इसमें क्या है)- शम्मी भाई ने उसके कंधे पर हांथ रख दिया। रूनी का दिल धौकनी की तरह धड़कने लगा। शायद शम्मी भाई वही बात कहने वाले हैं, जिसे वह अकेले में, रात को सोने से पहले कई बार मन-ही-मन सोंच चुकी है। शायद इस लिफाफे के भीतर एक पत्र है, जो शम्मी भाई ने उसके लिये ,केवल उसके लिये लिखा है। उसकी गर्दन के नीचे फ्राक के भीतर से ऊपर उठती हुई कच्ची सी गोलाइयों में मीठी-मीठी सी सुईयां चुभ रही हैं, मानो शम्मी भाई की आवाज़ ने उसकी नंगी पसलियों को हौले से उमेठ दिया हो। उसे लगा, चाय की केतली की टीकोज़ी पर लाल-नीली मछलियां काढी गई हैं, वे अभी उछलकर हवा में तैरने लगेंगी और शम्मी भाई सब कुछ समझ जायेंगे-उनसे कुछ भी छिपा न रहेगा।<br />
<br />
शम्मी भाई ने नीला लिफाफा मेज पर रख दिया और उसमें से टिकट निकालकर मेज पर बिखेर दिये।<br />
-ये तुम्हारी एल्बम के लिये हैं....<br />
वह एकाएक कुछ समझ नहीं सकी। उसे लगा, जैसे उसके गले में कुछ फंस गया है और उसकी पहली और दूसरी सांस के बीच एक गहरी अंधेरी खाई खुलती जा रही है....<br />
<br />
जेली, जो माली के फावड़े से क्यारी खोदने में जुटी थी, उनके पास आकर खड़ी हो गई और अपनी हथेली हवा में फैलाकर बोली-देख रूनी, मेरे हांथ कितने लाल हो गये हैं!<br />
<br />
रूनी ने अपना मुंह फेर लिया।...वह रोयेगी, बिल्कुल रोयेगी, चाहें जो कुछ हो जाय...<br />
<br />
चाय खत्म हो गई थी। मेहरुन्निसा ताश और ग्रामोफोन भीतर ले गई और जाते-जाते कह गई कि अब्बा उन सबको भीतर आने के लिये कह रहे हैं। किन्तु रात होने में अभी देर थी, और शनिवार को इतनी जल्दी भीतर जाने के लिये किसी को कोई उत्साह नहीं था। शम्मी भाई ने सुझाव दिया कि वे कुछ देर के लिये वाटर रिजर्वायर तक घुमने चलें। उस प्रस्ताव पर किसी ने कोई अपत्ति नहीं थी। और वे कुछ ही मिनटों में बंगले की सीमा पार करके मैदान की ऊबड़ खाबड़ जमीन पर चलने लगे।<br />
<br />
चारों ओर दूर-दूर तक भूरी सूखी मिट्टी के ऊंचे-नीचे टीलों और ढूहों के बीच बेरों की झाड़ियां थीं, छोटी-छोटी चट्टानों के बीच सूखी धारा उग आई थी, सड़ते हुये सीले हुये पत्तों से एक अजीब, नशीली सी, बोझिल कसैली गंध आ रही थी, धूप की मैली तहों पर बिखरी-बिखरी सी हवा थी।<br />
<br />
शम्मी भाई सहसा चलते-चलते ठिठक गये।<br />
-रुनी कहां है?<br />
-अभी हमारे आगे आगे चल रही थी-जेली ने कहा। उसकी सांस ऊपर चढती है और बीच में ही टूट जाती है।<br />
दोनों की आंखे मैदान के चारों ओर घूमती हैं... मिट्टी के ढूहों पर पीली धूल उड़ती है।...लेकिन रूनी वहां नहीं है, बेर की सूखी, मटियाली झाड़ियां हवा में सरसराती हैं, लेकिन रूनी वहां नहीं है। ...पीछे मुड़कर देखो, तो पगडन्डियों के पीछे पेड़ों के झुरमुट में बंगला छिप गया है, लान की छतरी छिप गई है...केवल उनके शिखरों के पत्ते दिखाई देते है, और दूर ऊपर फुनगियों का हरापन सफेद चांदी में पिघलने लगा है। धूप की सफेदी पत्तों से चांदी की बूंदो सी टपक रही है।<br />
<br />
वे दोनों चुप हैं...शम्मी भाई पेड़ की टहनी से पत्थरों के इर्द गिर्द टेढी-मेढी रेखायें खींच रहे हैं। जेली एक बड़े से चौकोर पत्थर पर रुमाल बिछाकर बैठ गई है। दूर मैदान के किसी छोर से स्टोन कटर मशीन का घरघराता स्वर सफेद हवा में तिरता आता है, मुलायम रुई में ढकी हुई आवाज की तरह, जिसके नुकीले कोने झार गये हैं।<br />
<br />
-तुम्हें यहां आना बुरा तो नहीं लगता?- शम्मी भाई ने धरती पर सिर झुकाये धीमे स्वर में पूंछा।<br />
-तुम झूठ बोले थे। - जेली ने कहा।<br />
-कैसा झूठ, जेली?<br />
-तुमने बेचारी रूनी को बहकाया था, अब वह न जाने कहां हमें ढूंढ रही होगी।<br />
-वह वाटर-रिजर्वायर की ओर गई होगी, कुछ ही देर में वापस आ जायेगी। -शम्मी भाई उसकी ओर पीठ मोड़े टहनी से धरती पर कुछ लिख रहे हैं।<br />
जेली की आंखो पर छोटा सा बादल उमड़ आया है-क्या आज शाम कुछ नहीं होगा, क्या जिन्दगी में कभी कुछ नहीं होगा? उसका दिल रबर के छल्ले की मानिंद खिचता जा रहा है।<br />
-शम्मी!...तुम यहां मेरे संग क्यों आये? - और वह बीच में ही रुक गई। उसकी पलकों पर रह रह कर एक नरम सी आहट होती है और वे मुंद जाती हैं, उंगलियां स्वयं-चालित सी मुट्ठी में भिंच जाती हैं, फिर अवश सी आप ही अप खुल जाती हैं।<br />
-जेली, सुनो...<br />
शम्मी भाई जिस टहनी से जमीन को कुरेद रहे थे, वह टहनी कांप रही थी। शम्मी भाई के इन दो शब्दों के बीच कितने पत्थर हैं, बरसों, सदियों के पुराने, खामोश पत्थर, कितनी उदास हवा है और मार्च की धूप है, जो बरसों बाद इस शाम को उनके पास आई है और फिर कभी नहीं लौटेगी। ..शम्मी भाई...! प्लीज़!..प्लीज़!..जो कुछ कहना है, अभी कह डालो, इसी क्षण कह डालो! क्या आज शाम कुछ नहीं होगा, क्या ज़िन्दगी में कभी कुछ नहीं होगा?<br />
<br />
वे बंगले की तरफ चलने लगे- ऊबड़ खाबड़ धरती पर उनकी खामोश छायायें ढलती हुई धूप में सिलटने लगीं।...ठहरो! बेर की झाड़ियों के पीछे छिपी हुई रूनी के होठ फड़क उठे, ठहरो, एक क्षण! लाल भुरभुरे पत्तों की ओट में भूला हुआ सपना झांकता है, गुनगुनी सी सफेद हवा, मार्च की पीली धूप, बहुत दिन पहले सुने रिकार्ड की जानी-पहचानी ट्यून, जो चारों ओर फैली घांस के तिनकों पर बिछल गई है...सब कुछ इन दो शब्दों पर थिर हो गया है, जिन्हें शम्मी भाई ने टहनी से धूल कुरेदते हुये धरती पर लिख दिया था, 'जेली...लव'<br />
<br />
जेली ने उन शब्दों को नहीं देखा। इतने सालों के बाद आज भी जेली को नहीं मालूम कि उस शाम शम्मी भाई ने कांपती टहनी से जेली के पैरों के पास क्या लिख दिया था। आज इतने लम्बे अर्से बाद समय की धूल उन शब्दों पर जम गई है। ...शम्मी भाई, वह और जेली तीनों एक दूसरे से दूर दुनिया के अलग- अलग कोनों में चले गये हैं, किन्तु आज भी रूनी को लगता है कि मार्च की उस शाम की तरह वह बेर की झाडियों के पीछे छिपी खड़ी है, (शम्मी भाई समझे थे कि वह वाटर-रिजर्वायर की तरफ चली गई थी) किन्तु वह सारे समय झाड़ियों के पीछे सांस रोके , निस्पन्द आंखो से उन्हें देखती रही थी, उस पत्थर को देखती रही थी, जिस पर कुछ देर पहले शम्मी भाई और जेली बैठे रहे थे।...आंसुओं के पीछे सब कुछ धुंधला-धुंधला सा हो जाता है...शम्मी भाई का कांपता हांथ, जेली की अध मुंदी सी आंखे, क्या वह इन दोनों की दुनिया में कभी प्रवेश नहीं कर पायेगी?<br />
<br />
कहीं सहमा सा जल है और उसकी छाया है, उसने अपने को देखा है, और आंखे मूंद ली हैं। उस शाम की धूप के परे एक हल्का सा दर्द है, आकाश के उस नीले टुकड़े की तरह, जो आंसू के एक कतरे में ढरक आया था। इस शाम से परे बरसों तक स्मृति का उद्भ्रान्त पाखी किसी सूनी पड़ी हुई उस धूल पर मंडराता रहेगा, जहां केवल इतना भर लिखा है..'जेली ..लव'<br />
<br />
उस रात जब उनकी नौकरानी मेहरुन्निसा छोटी बीबी के कमरे में गई, तो स्तम्भित सी खड़ी रह गई। उसने रूनी को पहले कभी ऎसा न देखा था।<br />
-छोटी बीबी, आज अभी से सो गईं? मेहरू ने बिस्तर के पास आकर कहा।<br />
रूनी चुपचाप आंखे मूंदे लेटी है। मेहरू और पास खिसक गई है। धीरे से उसके माथे को सहलाया- छॊटी बीबी क्या बात है?<br />
और तब रूनी ने अपनी पलकें उठा लीं, छत की ओर एक लम्बे क्षण तक देखती रही, उसके पीले चेहरे पर एक रेखा खिंच आई...मानो वह दहलीज हो, जिसके पीछे बचपन सदा के लिये छूट गया हो...<br />
-मेहरू ,.बत्ती बुझा दे- उसने संयत, निर्विकार स्वर में कहा- देखती नहीं, मैं मर गई हूं!Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-40114935541617361212010-02-04T18:48:00.001-08:002010-02-04T18:50:29.266-08:00काबुलीवाला - रवीन्द्र नाथ टैगोरमेरी पांच बरस की लड़की मिनी से क्षण भर भी बिना बात किये रहा नहीं जाता। संसार में जन्म लेने के बाद भाषा सीखने में उसने एक साल ही लगाया था। उसके बाद से जब तक वह जागती रहती है, उस समय का एक भी क्षण वह खामोश रहकर नष्ट नहीं करती है। उसकी मां कभी कभी धमका कर उसका मुंह बंद कर देती हैं, पर मैं ऎसा नहीं कर पाता। मिनी अगर खामोश रहे तो, तो वह ऎसी अजीब सी लगती है कि मुझसे उसकी चुप्पी ज्यादा देर तक सही नहीं जाती। यही कारण यही है कि मुझसे उसकी बातचीत कुछ ज्यादा उत्साह से चलती है।<br />सबेरे मैं उपन्यास का सत्रहवां अध्याय लिखने जा ही रहा था कि मिनी ने आकर शुरु कर दिया, "बाबू, रामदयाल दरबान काका को कौवा कह रहा था। वह कुछ नहीं जानता, है न बाबा?"<br />संसार की भाषाओं की विभिन्नता के बारे में मैं उसे ज्ञान देने ही वाला था कि उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया, "सुनो बाबू, भोला कह रहा था कि आसमान से हांथी सूंड़ से पानी बिखेरता है तभी बारिश होती है। ओ मां, भोला झूठ मूठ ही इतना बकता है! बस बकता ही रहता है, दिन रात बकता रहता है बाबू।"<br />इस बारे में मेरी राय का जरा भी इंतज़ार किये बिना ही वह अचानक पूंछ बैठी, "क्यों बाबू, अम्मा तुम्हारी कौन लगती है?"<br />मैंने मन ही मन कहा, "साली" और मुंह से कहा, "मिनी, तू जा, जाकर भोला के साथ खेल। मुझे अभी काम करना है। वह मेरी लिखने की मेज के पास मेरे पैरों के निकट बैठ गई और दोनों घुटने और हांथ हिला हिला कर, फुर्ती से मुंह चला-चलाकर रटने लगी, "आगड़ुम बागड़ुम घोड़ा दुम साजे।" उस समय मेरे उपन्यास के सत्रहवें अध्याय में प्रताप सिंह कंचन माला को लेकर अंधेरी रात में कारागार की ऊंची खिड़की से नीचे नदी के पानी में कूद रहे थे।<br />मेरा कमरा सड़क के किनारे था। यकायक मिनी अक्को बक्को तीन तिलक्को का खेल छोड़कर खिड़की के पास पहुंची और जोर जोर से पुकारने लगी, "काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला!"<br />गन्दे से ढीले कपड़े पहने , सिर पर पगड़ी बांधे, कन्धे पर झोली लटकाये और हांथ में अंगूर की दो चार पिटारियां लिये, एक लम्बा सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देख मेरी बिटिया रानी के मन में कैसे भाव जगे होंगे यह बताना तो मुश्किल है, पर वह जोर जोर से उसे पुकार रही थी। मैंने सोंचा, अभी कन्धे पर झोली लटकाये एक आफत मेरे सिर पर सवार हो जायेगी और मेरा सत्रहवां अध्याय समाप्त होने से रह जायेगा।<br />लेकिन मिनी की पुकार पर जैसे ही काबुली ने हंस कर अपना चेहरा घुमाया और मेरे घर की ओर आने लगा, वैसे ही मिनी जान छुड़ाकर अन्दर भागी और लापता हो गई। उसके मन में एक अन्धविश्वास सा जम गया था कि झोली ढूंढने पर एकाध और मिन्नी जैसे जीवित इंसान मिल सकते हैं।<br />काबुली ने आकर हंसते हुये सलाम किया और खड़ा रहा। मैंने सोंचा, हालांकि प्रताप सिंह और कंचनमाला की दशा बड़े संकट में है, फिर भी इस आदमी को घर बुलाकर कुछ न खरीदना ठीक न होगा।<br />कुछ चीज़ें खरीदीं। उसके बाद इधर उधर की चर्चा भी होने लगी। अब्दुल रहमान से रूस, अंग्रेज और सीमान्त रक्षा नीति पर बातें होती रहीं।<br />अन्त में उठते समय उसने पूंछा, "बाबू जी, तुम्हारी लड़की कहां गई?"<br />मिनी के मन से बेकार का डर दूर करने के लिये मैंने उसे अंदर से बुलवा लिया। वह मुझसे सट कर खड़ी हो गई। सन्देह भरी दृष्टि से काबुली का चेहरा और उसकी झोली की ओर देखती रही। काबुली ने झोली से किशमिश और खुबानी देना चाहा, पर उसने किसी तरह से नहीं लिया। दुगने सन्देह के साथ वह मेरे घुटनों के साथ चिपकी रही। पहला परिचय इसी तरह हुआ।<br />कुछ दिनों बाद, एक सवेरे किसी जरूरत से घर से बाहर निकला तो देखा, मेरी बिटिया दरवाजे के पास बेंच पर बैठी बेहिचक बातें कर रही है। काबुली उसके पैरों के पास बैठा मुस्कुराता हुआ सुन रहा है, और बीच बीच में प्रसंग के अनुसार अपनी राय भी खिचड़ी भाषा में प्रदर्शित कर रहा है। मिनी के पांच साल की उम्र के अनुभव में बाबू के अलावा ऎसा धैर्य वाला श्रोता शायद ही कभी मिला होगा। फिर देखा उसका छोटा सा आंचल बादाम और किशमिश से भरा हुआ है। मैंने काबुली से कहा, "इसे यह सब क्यों दिया? ऎसा मत करना।" इतना कहकर जेब से एक अठन्नी निकालकर उसे दे दी। उसने बेझिझक अठन्नी लेकर झोली में डाल ली।<br />घर लौटकर देखा उस अठन्नी को लेकर बड़ा हो हल्ला शुरु हो चुका था।<br />मिनी की मां एक सफेद चमचमाता गोलाकार पदार्थ हांथ में लेकर मिनी से पूंछ रही थीं, "तुझे अठन्नी कहां से मिली?"<br />मिनी ने कहा, "काबुली वाले ने दी है।"<br />उसकी मां बोली, "काबुली वाले से तूने अठन्नी ली क्यों?"<br />मिनी रुआंसी सी होकर बोली, "मैंने मांगी नहीं, उसने खुद ही देदी।"<br />मैंने आकर मिनी को उस पास खड़ी विपत्ति से बचाया और बाहर ले आया।<br />पता चला कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी ही मुलाकात हो ऎसी बात नहीं है। इस बीच वह रोज़ आता रहा और पिस्ता-बादाम की रिश्वत देकर मिनी के मासूम लोभी दिल पर काफी अधिकार जमा लिया।<br />इन दिनों मित्रों में कुछ बंधी बंधाई बातें और परिहास होता रहा। जैसे रहमान को देखते ही मेरी लड़की हंसती हुई उससे पूंछती, "काबुलीवाला! ओ काबुलीवाला! तुम्हारी झोली में क्या है?"<br />रहमान एक बेमतलब नकियाते हुये कहता, "हांथी।"<br />यानी उसकी झोली के भीतर हांथी है, यही उसके परिहास का सूक्ष्म सा अर्थ था। अर्थ बहुत ही सूक्ष्म हो, ऎसा तो नहीं कहा जा सकता, फिर भी इस परिहास में दोनों को बड़ा मजा आता। सर्दियों की भोर में एक सयाने और एक कम उम्र बच्ची की सरल हंसी मुझे भी बड़ी अच्छी लगती।<br />उन दोनों में एक बात और चल रही थी। रहमान मिनी से कहता, "खोखी, तुम ससुराल कभी मत जाना हां!"<br />बंगाली परिवार की लड़कियां बचपन से ही ससुराल शब्द से परिचित हो जाती हैं, लेकिन हम लोगों ने थोड़ा आधुनिक होने के कारण मासूम बच्ची को ससुराल के बारे में सचेत नहीं किया था। इसलिये रहमान की बातों का मतलब वह साफ साफ नहीं समझ पाती थी, लेकिन बात का कोई जवाब दिये बिना चुप रह जाना उसके स्वभाव के बिल्कुल विरुद्व था। वह पलटकर रहमान से पूंछ बैठती, "तुम ससुराल जाओगे?"<br />रहमान काल्पनिक ससुर के प्रति अपना बहुत बड़ा सा घूंसा तानकर कहता, "हम ससुर को मारेगा।"<br />यह सुनकर मिनी ससुर नाम के किसी अजनबी प्राणी की दुर्दशा की कल्पना कर खूब हंसती।<br /><br />सर्दियों के उजले दिन थे। प्राचीन काल में इसी समय राजा लोग दिग्विजय करने निकलते थे। मैं कलकत्ता छोड़कर कहीं नहीं गया। शायद इसीलिये मेरा मन संसार-भर में घूमा करता है। जैसे मैं अपने घर के ही किसी कोने में बसा हुआ हूं। बाहर की दुनिया के लिये मेरा मन सदा बेचैन रहता है। किसी देश का नाम सुनते ही मन वहीं दौड़ पड़ता है। किसी विदेशी को देखते ही मेरा मन फौरन किसी नदी पहाड़ जंगल के बीच एक कुटिया का दृश्य देख रहा होता है। उल्लास से भरे एक स्वतन्त्र जीवन का एक चित्र कल्पना में जाग उठता है।<br />इधर मैं भी इतनी सुस्त प्रकृति यानी कुन्ना किस्म का हूं कि अपना कोना छोड़कर जरा बाहर निकलने पर ही सिर पर बिजली गिरने का सा अनुभव होने लगता है। इसलिये सवेरे अपने छोटे कमरे में मेज के सामने बैठकर काबुली से गप्पें लड़ाकर बहुत कुछ सैर सपाटे का उद्देष्य पूरा कर लिया करता हूं। दोनों ओर ऊबड़ खाबड़, दुर्गम जले हुये, लाल लाल ऊंचे पहाड़ों की माला, बीच में संकरे रेगिस्तानी रास्ते और उन पर सामान से लदे हुये ऊंटो का काफिला चल रहा है। पगड़ी बांधे सौदागर और मुसाफिरों में कोई ऊंट पर तो कोई पैदल चले जा रहे हैं, किसी के हांथ में बरछी है तो किसी के हांथ में पुराने जमाने की चकमक पत्थर से दागी जाने वाली बंदूक। काबुली अपने मेघ गर्जन के स्वर में , खिचड़ी भाषा में अपने वतन के बारे में सुनाता रहता और वह चित्र मेरी आखों के सामने काफिलों के समान गुजरता चला जाता।<br />मिनी की मां बड़े ही शंकालु स्वभाव की है। रास्ते पर कोई आहट होते ही उसे लगता कि दुनिया भर के शराबी मतवाले होकर हमारे घर की ओर ही चले आ रहे हैं। यह दुनिया हर कहीं चोर डाकू, शराबी, सांप, बाघ, मलेरिया, सुअरों, तिलचट्टों और गोरों से भरी हुई है, यही उसका ख्याल है। इतने दिनों से (हालांकि बहुत ज्यादा दिन नहीं ) दुनिया में रहने के बावजूद उसके मन से यह भय दूर नहीं हुआ। खासतौर से रहमान काबुली के बारे में वह पूरी तरह निश्चिंत नहीं थी। उस पर खास नज़र रखने के लिये वह मुझसे बार बार अनुरोध करती थी। मैं उसके सन्देह को हंसकर उड़ा देने की कोशिश करता, तो वह मुझसे एक एक करके कई सवाल पूंछ बैठती, "क्या कभी किसी का लड़का चुराया नहीं गया? क्या काबुल में गुलामी प्रथा लागू नहीं है? एक लम्बे चौडे काबुली के लिये एक छोटे से बच्चे को चुरा कर ले जाना क्या बिल्कुल असंभव है?"<br />मुझे मानना पड़ा कि यह बात बिल्कुल असंभव तो नहीं, पर विश्वास योग्य भी नहीं है। विश्वास करने की शक्ति हरेक में समान नहीं होती, इसलिये मेरी पत्नी के मन में डर बना रह गया। लेकिन सिर्फ इसलिये बिना किसी दोष के रहमान को अपने घर में आने से मैं मना नहीं कर सका।<br />हर साल माघ के महीनों में रहमान अपने मुल्क चला जाता है। इस समय वह अपने रुपयों की वसूली में बुरी तरह फंसा रहता है। घर-घर दौड़ना पड़ता है, फिर भी वह एक बार आकर मिनी से मिल ही जाता है। देखने में लगता है जैसे दोनों में कोई साजिश चल रही हो। जिस दिन सवेरे नहीं आ पाता उस दिन देखता हूं शाम को आया है। अंधेरे कमरे के कोने में उस ढीला ढाला कुर्ता पायजामा पहने झोली झिंगोली वाले लम्बे तगड़े आदमी को देखकर सचमुच मन में एक आशंका सी होने लगती है। लेकिन जब देखता हूं कि मिनी 'काबुलीवाला काबुलीवाला' कहकर हंसते-हंसते दौड़ आती और अलग-अलग उम्र के दो मित्रों में पुराना सहज परिहास चलने लगता है, तो मेरा हृदय खुशी से भर उठता।<br />एक दिन सवेरे में अपने छोटे से कमरे में बैठा अपनी किताब के प्रूफ देख रहा था। सर्दियों के दिन खत्म होने से पहले , आज दो तीन दिन से कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। चारों ओर सबके दांत किटकिटा रहे थे। खिड़कियों के रास्ते धूप आकर मेज के नीचे मेरे पैरों पर पड़ रही थी। यह सेंक मुझे बड़ी सुहावनी लग रही थी। सुबह के करीब आठ बजे होंगे। गुलूबंद लपेटे सवेरे सैर को निकलने वाले लोग अपनी सैर समाप्त कर घर लौट रहे थे। इसी समय सड़क पर बड़ा शोर गुल सुनाई पड़ा।<br />देखा, हमारे रहमान को दो सिपाही बांधे चले आ रहे हैं और उसके पीछे-पीछे तमाशबीन लड़कों का झुन्ड चला अ रहा है। रहमान के कपड़ों पर खून के दाग हैं और एक सिपाही के हांथ में खून से सना हुआ छुरा है। मैंने दरवाजे से बाहर जाकर सिपाहियों से पूंछा कि मामला क्या है।<br />कुछ उस सिपाही से कुछ रहमान से सुना कि हमारे पड़ोस में एक आदमी ने रहमान से उधार में एक रामपुरी चादर खरीदी थी। कुछ रुपये अब भी उस पर बाकी थे, जिन्हें देने से वह मुकर गया था। इसी पर बहस होते-होते रहमान ने उसे छुरा भौंक दिया।<br />रहमान उस झूठे आदमी के प्रति तरह-तरह की गन्दी गालियां बक रहा था कि इतने में 'काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला' कहती हुई मिनी घर से निकल आई।<br />क्षण भर में रहमान का चेहरा उजली हंसी से खिल उठा। उसके कन्धे पर आज झोली नहीं थी, इसलिये झोली के बारे में दोनों मित्रों की पुरानी चर्चा न छिड़ सकी। मिनी आते ही एकाएक उससे पूंछ बैठी, "तुम ससुराल जाओगे?"<br />रहमान ने हंस कर कहा, "वहीं तो जा रहा हूं।"<br />उसे लगा उसके जवाब से मिनी मुस्कुराई नहीं। तब उसने हांथ दिखाते हुये कहा, "ससुर को मारता, पर क्या करूं हांथ बंधे हुये हैं।"<br />संगीन चोट पहुंचाने के जुर्म में रहमान को कई सालों की कैद की सजा हो गई। कभी उसके बारे में मैं धीरे-धीरे भूल ही गया। हम लोग जब अपने-अपने घरों में प्रतिदिन के कामों में लगे हुये आराम से दिन गुजार रहे थे, तब पहाड़ों पर आजाद घूमने वाला आदमी कैसे साल पर साल जेल की दीवारों के बीच गुजार रहा होगा, यह बात कभी हमारे मन में नहीं आई।<br />चंचल हृदय मिनी का व्यवहार तो और भी शर्मनाक था, यह बात उसके बाप को भी माननी पड़ेगी। उसने बड़े ही बेलौस ढंग से अपने पुराने मित्र को भुलाकर पहले तो नबी सईस से दोस्ती कर ली, फिर धीरे-धीरे जैसे उसकी उम्र बढने लगी, वैसे-वैसे दोस्तों के बदले एक के बाद एक सहेलियां जुटने लगीं। यहां तक कि वह अब अपने बाबू के लिखने के कमरे में भी दिखाई नहीं देती। मैंने भी एक तरह से उसके साथ कुट्टी कर ली है।<br />कितने ही वर्ष बीत गये। फिर सर्दियां आ गईं। मेरी मिनी की शादी तय हो गई। दुर्गा पूजा की छुट्टी में ही उसका ब्याह हो जायेगा। कैलाशवासिनी पार्वती के साथ-साथ मेरे घर की आनन्द मयी भी पिता का घर अंधेरा कर पति के घर चली जायेगी।<br />बड़े ही सुहावने ढंग से आज सूर्योदय हुआ है। बरसात के बाद सर्दियों की नई धुली हुई धूप ने जैसे सुहागे में गलाये हुये साफ और खरे सोने का रंग अपना लिया है। कलकत्ता के गलियारों में आपस में सटी-टूटी ईंटोवाली गन्दी इमारतों पर भी इस धूप की चमक ने एक अनोखी सुन्दरता बिखेर दी है।<br />हमारे घर पर सवेरा होने से पहले ही शहनाई बज रही है। मुझे लग रहा है, जैसे वह शहनाई मेरे सीने में पसलियों के भीतर रोती हुई बज रही है। उसका करुण भैरवी राग जैसे मेरे सामने खड़ी विछोह की पीड़ा को जाड़े की धूप के साथ दुनिया भर में फैलाये दे रहा हो। आज मेरी मिनी का ब्याह है।<br />सवेरे से ही बड़ा शोरशराबा और लोगों का आना-जाना शुरु हो गया। आंगन में बांस बांधकर शामियाना लगाया जा रहा है,मकान के कमरों और बरामदों पर झाड़ लटकाये जाने की टन-टन सुनाई पड़ रही है। गुहार - पुकार का कोई अंत ही नहीं।<br />मैं अपने पढने-लिखने वाले कमरे में बैठा खर्च का हिसाब-किताब लिख रहा था कि रहमान आकर सलाम करते हुये खड़ा हो गया।<br />शुरु में मैं उसे पहचान न सका। उसके पास वह झोली नहीं थी और न चेहरे पर चमक थी। अन्त में उसकी मुस्कुराहट देख कर उसे पहचान गया।<br />"क्यों रहमान, कब आये?" मैंने पूंछा।<br />उसने कहा, "कल शाम ही जेल से छूटा हूं।"<br />यह बात मेरे कानों में जैसे जोर से टकराई। किसी कातिल को मैंने अपनी आंखो से नहीं देखा था। इसे देखकर मेरा अंतःकरण विचलित सा हो गया। मेरी इच्छा होने लगी कि आज इस शुभ दिन पर यह अदमी यहां से चला जाय, तो अच्छा हो।<br />मैंने उससे कहा, "आज हमारे घर एक जरूरी काम है। मैं उसी में लगा हुआ हूं, आज तुम जाओ।"<br />सुनते ही वह जाने को तैयार हुआ, लेकिन फिर दरवाजे के पास जा खड़ा हुआ और कुछ संकोच से भर कर बोला, "एक बार खोकी को नहीं देख सकता क्या?"<br />शायद उसके मन में यही धारणा थी कि मिनी अभी तक वैसी ही बनी हुई है। या उसने सोंचा था कि मिनी आज भी वैसे ही पहले की तरह 'काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला' पुकारती हुई भागती हुई आ जायेगी और उसकी हंसी भरी अद्भुत बातों में किसी तरह का कोई फर्क नहीं आयेगा। यहां तक की पहले की मित्रता की याद कर वह एक पिटारी अंगूर और एक कागज के दोने में थोड़ा किशमिश-बादाम शायद किसी अपने वतनी दोस्त से मांग-मूंग कर ले आया था। उसकी पहले वाली झोली उसके पास नहीं थी।<br />मैंने कहा, "आज घर पर काम है। आज किसी से मुलाकात न हो सकेगी।"<br />वह कुछ उदास सा हो गया। स्तब्ध खड़ा मेरी ओर एकटक देखता रहा, फिर सलाम बाबू कहकर दरवाजे से बाहर निकल गया।<br />मेरे हृदय में एक टीस सी उठी। सोंच रहा था कि उसे बुला लूं कि देखा वह खुद ही चला आ रहा है।<br />नजदीक आकर उसने कहा, " ये अंगूर किशमिश और बादाम खोखी के लिये लाया हूं, उसको दे दीजियेगा।"<br />सब लेकर मैंने दाम देना चाहा, तो उसने एकाएक मेरा हांथ पकड़ लिया, कहा, "आपकी मेहरबानी है बाबू, हमेशा याद रहेगी। मुझे पैसा न दें...। बाबू, जैसी तुम्हारी लड़की है, वैसी मेरी भी एक लड़की है वतन में। मैं उसकी याद कर तुम्हारी खोखी के लिये थोड़ा सा मेवा हांथ में लेकर चला आता था। मैं यहां कोई सौदा बेचने नहीं आता।"<br />इतना कहकर उसने अपने ढीले ढाले कुर्ते के अन्दर हांथ डालकर एक मैला सा कागज निकाला और बड़े जतन से उसकी तहें खोलकर दोनों हांथ से उसे मेज पर फैला दिया।<br />मैंने देखा, कागज पर एक नन्हें से हांथ के पंजे की छाप है। फोटो नहीं , तैल चित्र नहीं, सिर्फ हथेली में थोड़ी सी कालिख लगाकर उसी का निशान ले लिया गया है। बेटी की इस नन्ही सी याद को छाती से लगाये रहमान हर साल कलकत्ता की गलियों में मेवा बेचने आता था, जैसे उस नाजुक नन्हें हांथ का स्पर्श उसके विछोह से भरे चौड़े सीने में अमृत घोले रहता था।<br />देखकर मेरी आंखे भर आईं। फिर मैं यह भूल गया कि वह एक काबुली मेवे वाला है और मैं किसी ऊंचे घराने का बंगाली। तब मैं यह अनुभव करने लगा कि जो वह है, वही मैं भी हूं। वह भी बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी नन्ही पार्वती के हांथों की निशानी ने ही मेरी मिनी की याद दिला दी। मैंने उसी वक्त मिनी को बाहर बुलवाया। घर में इस पर बड़ी आपत्ति की गई, पर मैंने एक न सुनी। ब्याह की लाल बनारसी साड़ी पहने, माथे पर चन्दन की अल्पना सजाये दुल्हन बनी मिनी लाज से भरी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।<br />उसे देखकर काबुली पहले तो सकपका सा गया, अपनी पुरानी बातें दोहरा न सका। अंत में हंसकर बोला, "खोखी तुम ससुराल जाओगी?"<br />मिनी अब ससुराल शब्द का मतलब समझती है। उससे पहले की तरह जवाब देते न बना। रहमान का सवाल सुन शर्म से लाल हो, मुंह फेरकर खड़ी हो गई। काबुली से मिनी की पहले दिन की मुलाकात मुझे याद हो आई। मन न जाने कैसा व्यथिथ हो उठा।<br />मिनी के चले जाने के बाद एक लंबी सांस लेकर रहमान वहीं जमीन पर बैठ गया। अचानक उसके मन में एक बात साफ हो गई कि उसकी लड़की भी इस बीच इतनी ही बड़ी हो गई होगी और उसके साथ भी उसे नये ढंग से बात चीत करनी पड़ेगी। वह उसे फिर से पहले वाले रूप में नहीं पायेगा। इस आठ वर्षों में न जाने उसका क्या हुआ होगा। सवेरे के वक्त सर्दियों की उजली कोमल धूप में शहनाई बजने लगी और कलकत्ता की एक गली में बैठा हुआ रहमान अफगानिस्तान के मेरु पर्वतों का दृष्य देखने लगा।<br />मैंने उसे एक बड़ा नोट निकालकर दिया, कहा, "तुम अपने वतन अपनी बेटी के पास चले जाओ। तुम दोनों के मिलन-सुख से मेरी मिनी का कल्याण होगा।"<br />यह रुपया दान करने के बाद मुझे विवाहोत्सव की दो-चार चीज़ें कम कर देनी पड़ीं। मन में जैसी इच्छा थी उस तरह रोशनी नहीं कर सका। किले का अंग्रेजी बैंड भी नहीं मंगा पाया। घर में औरतें बड़ा असन्तोष प्रकट करने लगीं, लेकिन मंगल ज्योति में मेरा यह शुभ-आयोजन दमक उठा।Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-91529471339025283592010-01-20T05:06:00.000-08:002010-01-20T05:08:50.020-08:00ज्योतिर्मयी - सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'एक<br />"मानती रहें, चूंकि आप ही लोगों ने, आप ही के बनाये शस्त्रों ने, जो हमारे प्रतिकूल हैं, हमें जबरन गुलाम बना रखा है; कोई चारा भी तो नहीं है-कैसी बात है।" कमल की पंखुङियों सी उज्ज्वल बङी-बङी आंखों से देखती हुई, एक सत्रह साल की, रूप की चन्द्रिका, भरी हुई युवती ने कहा।<br />"नहीं, पतिव्रता पत्नी तमाम जीवन तपस्या करने के पश्चात परलोक में अपने पति से मिलती है।" सहज स्वर में कहकर युवक निरीक्षक की दॄष्टि से युवती को देखने लगा।<br />युवती मुस्कुराई-तमाम चेहरे पर सुर्खी दौङ गयी। सुकुमार गुलाब के दलों से लाल-लाल होंठ जरा बढे, मर्मरोज्ज्वल मुख पर प्रसन्न-कौतुक-पूर्ण एक्ज्योतिश्चक्र खोलकर यथास्थान आ गये।<br />"वाक्ये का दरिद्रता!" युवती मुस्कुराती हुई बोली, "अच्छा बतलाइये तो, यदि पहले ब्याही स्त्री इसी तरह स्वर्ग अपने पूज्यपाद पति-देवता की प्रतीक्षा करती हो, और पतिदेव क्रमशः दूसरी, तीसरी, चौथी पत्नियों को बार-बार प्रतीक्षार्थ स्वर्ग भेजते रहें, तो खुद मरकर किसके पास पहुंचेंगे?<br />युवती खिलखिला दी।<br />युवक का चेहरा उतर गया।<br />"आपने इस साल एम.ए. पास किया किया है, और अंग्रेजी में। यहां पतिव्रता स्त्रियों की पत्नीव्रत पुरुषों से ज्यादा जीवनियां आपने याद कीं!" युवती ने वार किया।<br />युवक बङे भाई की ससुराल गया था। युवती उसी की विधवा छोटी भाभी है।<br />"आपने कहां तक पढा है?" युवक ने जानना चाहा।<br />"सिर्फ हिन्दी और थोङी सी संस्कृत जानती हूं।" डब्बे को नजदीक लेकर युवती पान चबाने लगी।<br />"मैं इतना ही कहता हूं, आपके विचार समाज के के तिनके के लिये आग हैं।"ताज्जुब की निगाह देखते हुये युवक ने कहा।<br />"लेकिन मेरे हृदय के मोम के पुतले को गलाकर बहा देने, मुझसे जुदा कर देने के लिये समाज आग है, साथ-साथ यह भी कहिये।" उंगली चूनेदानी में, बङी-बङी आंखो की तेज निगाह युवक की तरफ फेरकर युवती ने कहा, "मैं बारह साल की थी, ससुराल नहीं गयी, जानती भी नहीं, पति कैसे थे, और विधवा हो गयी।" कई बूंद आंसू कपोलों से बहकर युवती की जांघ पर गिरे। आंचल से आंखे पोंछ लीं , फिर पान बनाने लगी।<br />"तम्बाकू खाते हैं आप?" युवती ने पूंछा।<br />"नहीं।" युवक के दिल में सन्नाटा था। इतनी बङी, इतने आश्चर्य की, इतनी खतरनाक बात आज तक किसी विधवा युवती की ज़बान से उसने नहीं सुनी। वह जानता था, यह सब अखबारों का आन्दोलन था। इस तरह की कल्पना भी उसने कभी नहीं की थी। कारण, वह कान्यकुब्जों के एक श्रेष्ठ्र कुल में पैदा हुआ था। युवती की बातों से घबरा गया।<br />"लीजिये" युवती ने कई बीङे उसकी ओर बढा दिये।<br />"आप बुरा मत मानियेगा, मैं आपको देख रही थी कि आप कितने दर्दमंद हैं।" युवती ने साधारण आवाज में कहा।<br />युवक ने पान ले लिये, पर लिये ही बैठा रहा। खाइये" युवती ने कहा, "आप से एक बात पूंछूं?"<br />"पूंछिये।"<br />"अगर आपसे कोई विधवा-विवाह करने के लिये कहे?" युवती मुस्कुराई।<br />"मैं नहीं जानता, यह तो पिताजी के हांथ की बात है।" युवक झेंप गया।<br />"अगर पिताजी की जगह आप ही अपने मुक्ताराम होते?"संकुचित होकर, फिर हिम्मत बांध कर युवक ने कहा, "मुझे विधवा-विवाह करए हुये लाज लगती है।"<br />युवती मनोभावों को दबाकर, छलछलाई आंखों चुप रही। एक बार उसी तरह युवक को देखा, फिर मस्तक झुका लिया।<br />दूसरे दिन युवक घर चलने लगा। मकान की जेठी स्त्रियों के पैर छुये। इधर-उधर आंखे युवती की तलाश करती रहीं। वह न मिली। युवक दोमंजिले से नीचे उतरा। देखा दरवाजे के पास खङी उसी की राह देख रही है। युवक ने कहा, "आज्ञा दीजिये अब जा रहा हूं।" हांथ जोङकर युवती ने प्रणाम किया। एक पत्र युवक को देकर कहा, "बन्द दर्शन दीजियेगा।" युवक के हृदय में एक अज्ञात प्रसन्नता की लहर उठी। उसने देखा, नील पंखो पलकोम के पंखो से युवती की आंखे अप्सराओं सी आकाश की ओर उङ जाना चाहती हैं, जहांस्नेह के कल्प-वसंत में मदन और रति नित्य मिले हैं, जहां किसी भी प्रकार की निष्ठुर श्रखंला नवोन्मेष को झुका नही सकती जहां प्रेम ही आंखों में मनोहर चित्र, कंठ में मधुर संगीत, हृदय मॆं सत्यनिष्ठ भावना और रूप में खूबसूरत आग है।<br />युवक ने स्नेह के मधुर कंठ से, सहानुभुति की ध्वनि में, कहा, "ज्योती।"<br />युवती निःसंकोच कुछ कदम आगे बढ गई। युवक के बिल्कुल नज़दीक, एक तरह से सटकर, खङी हो गई। फिर युवक की ठोङी के पास, आंखे आंखो में मिली हुई। वस्त्र के स्पर्श से शिराओं में एक ऎसी तरंग बह चली जिसका अनुभव आज तक उनमें किसी को नहीं हुआ था। अंगों में आनन्द के परमाणु निकलते रहे। आंखों में नशा छा गया।<br />"फिर कहूंगा।"युवक सजा कर चल दिया। "याद रखियेगा-आपसे इतनी ही कर-बद्व प्रर्थना ....." युवक दृष्टि से ओझल हो गया।<br /><br />दो<br />"दिल के तुम इतने कमजोर हो? नष्ट होते हुये एक समाज-क्लिष्ट जीवन का उद्वार तुम नहीं कर सकते विजय? तुम्हारी शिक्षा क्या तुम्हे पुरानी राह का सीधा-साधा एक लट्टू का बैल करने के लिये हुयी है?" वीरेन्द्र ने चिन्त्य भर्त्सना के शब्दों में कहा।<br />"पिताजी से कुछ बस नहीं वीरेन, उनके प्रतिकूल कोई आचरण मैं न कर सकूंगा। पर आजीवन-आजीवन मैं सोचूंगा कि दुर्बल समाज की सरिता में एक बहते हुये निष्पाप पुष्प का मैं उद्वार नहीं कर सका, खास तौर से इसलिये कि मुझे उसने तैरना नहीं सिखलाया।"<br />"तुम्हे एक दूसरी सामाजिक शिक्षा से तैरना मालूम हो चुका है।"<br />"हां, होचुका है, पर केवल तैरते रहना, फिर किनारे पर लगना नहीं; सब घाट हमारे समाज द्वारा अधिकृत हैं, और केवल तैरते रहना मनुष्य के लिये असम्भव है।"<br />तुम फूल पर आ सकते हो।"<br />"पर उस फूल को लेकर नहीं, जब समाज के किसी भी घाट पर नहीं जा सकता, और केवल कूल इतना बीहङ है कि थके हुये मेरे पैर वहां जम नहीं सकते, वहां दृष्टियों का ताप इतना प्रखर है कि फूळ मुरझा जायेगा, मैं भी झुलस जाऊंगा।"<br />तो सारांश यह है कि तुम उस पावन मूर्ति अबला का, जिसने तुम्हे बढकर प्यार किया-मित्र समझकर गुप्त हृदय की व्यथा प्रकट कर दी, उस देवी का समाज के पंक से उद्वार नहीम कर सकते?"<br />"देखो मेरा हृदय अवश्य उसने छीन लिया है, पर शरीर पिताजी का है, मैं यहां दुर्बल हूं।"<br />"कैसी वाहियात बात। कितनी बङी आत्मप्रवंचना है यह। विजय, हृदय शरीर से अलग भी है? जिसने तुम पर क्षण मात्र में विजय प्राप्त कर ली, उसने तुम्हारे शरीर को भी जीत लिया है, अब उसका तिरस्कार परोक्ष अपना ही है। समाज का ध्र्म तो उसके लिये भी था-क्या फूटॆ हुये बर्तन की तरह वह भी समाज में एक तरफ निकालकर न र्ख दी जाती? क्या उसने यह सब नहीं सोंच लिया।"<br />"उसमें और-और तरह की भावनायें भी होंगी।"<br />"और-और तरह की भावनयें उसमें होंती, तो वह तुम्हारे भाई की ससुराल वालों के समर्थ मुखों पर अच्छी तरह सयाही पोत कर अब तक कहीं चली गई होती, समझॆ? वह समझदार है। और, तुम्हारे सामने जो इतना खुली है, इसका कारण काम नहीं, यथार्त ही तुम्हे उसने प्यार किया है। अच्छा उसका पता तो बताओ।"<br />वीरेन्द्र ने नोटबुक निकालकर पता लिख दिया। फिर विजय से कहा, "तुम मेरे मित्र हो वह मेरे मित्र की प्रेयसी है।"<br />दोनों एक दूसरे को देखकर हंसने लगे।<br /><br />तीन<br />इस घटना को कई महीने बईत चुके। अब भाई की ससुराल जने की कल्पना मात्र से विजय का कलेजा कांप उठता, संकोच की सरदी तमाम अंगो को जकङ लेती, संकल्प से उसे निरस्त्र हो जाना पङता है। उसकी यह हालत देख-देख कर वीरेन्द्र मन ही मन पाश्चाताप करता, पर तब से फिर किसी प्रकार की इच्छा का दवाब उसने उस पर नहीं डाला। विजय इलाहबाद यूनीवर्सिटी मेम रिसर्च-स्कालर है। वीरेन्द्र बी.ए. पास कर लेने पश्चात वहीं अपना कारोबार देखने में रहता है। वह इटावे के प्रसिद्व रईस नागर्मल-भीखमदास फ़र्म के मालिक मंसाराम अग्रवाल का इकलौता लङका है।<br />महीने के लगभग हुआ, वीरेन्द्र इटावे चला गया है। चलते समय विजय से विदा होकर गया था।<br />इधर भी, ती-चार दिन हुए, घर से पत्र द्वारा विजय को बुलावा आया है। जिला उन्नाव, मौजा बीघापुर विजय की जन्म्भूमि है।<br />उसके पिता अच्छी साधारण स्थिति के मनुष्य हैं, मांझगांव के मिश्र, कुलीन कान्यकुब्ज। विवाह अधिक दहेज के लोभ से उन्होंने रोक रखा है। अब तक जितने सम्बन्ध आए थे, तीन हजार से अधिक कोई नहीं दे रहा था। अब के एक सम्बन्ध आया हुआ है, उसकी तरफ विजय के पिता का विशेष झुकाव है। ये लोग मुरादाबाद के बाशिंदे हैं। पन्द्रह दिन पहले ही विजय की जन्मपत्रिका ले कर गये थे। विवाह बनता है, इसलिये दोबारा पक्का कर लेने को कन्या-पक्ष से कोई आया हुआ है। विजय के पिता और चाचा मकान के भीतर आपस में सलाह कर रहे हैं।<br />"दादा, लेकिन एक पै तो है, ये साधारण ब्राह्मण हैं, ऎसा फिर न हो कि कहीं के भी न रहें।"<br />"तुम भी; मारो गोली; हमको रुपये से मतलब है; हमारे पास रुपया है तो भाई-बंद, जात-बिरादरी वाले सब साले आवेंगे; नहीम तो कोई लोटे भर पानी को नहीं पूंछेगा।"<br />"तो क्या राय है?"<br />"विवाह करो और क्या?"<br />"सात हजार से आगे नहीं बढता।"<br />"घर घेरे बैठा है, देखते नहीं? धीरे-धीरे दुहो; लेकिन शिकार निकल न जाय।"<br />"अब फंसा है तो क्या निकलेगा।"<br />"डर कौन-बारात में घर के चार जने चले जायेंगे। कहेंगे दू है, खर्चा नहीं मिला।"<br />"वही खर्चा यहां करके खिला दिया जाय-है न?"<br />ठीक है।"<br />"बस, यही ठीक है।"<br />विजय के पिता पं.गंगाधर मिश्र और चचा पं.कृष्णशंकर रक्तचंदन का टीका लगाये, रुद्राक्ष की माला पहने, खङाऊं खट्खटाते हुये दरवाजे चौपाल में, नेवाङ के पलंग पर, धीर-गंभीर मुद्रा मॆं, सिर झुकाये हुये, आकर बैठ गये। एक मूंज की चारपाई पर कन्या-पक्ष के पं. सत्यनरायण शर्मा मिजंई पहने, पगङी बांधे बैठे हुये थे। मिश्र जी को देखकर पूंछा, "तो क्या आज्ञा देते हैं मिश्र जी?"<br />पं. गंगाधर ने पं कृष्णशंकर की ओर इशारा करके कहा, "बात-चीत इनसे पक्की कीजिये। मकान-मालिक तो यह हैं।"<br />पं. सत्यनारायणजी ने पं. कृष्णशंकर कीओर देखा।<br />"बात यह है पण्डित जी कि दहेज बहुत कम मिल रहा है। आप सोंचे कि अब तक सात आठ हजार रुपया तो लङके की पढाई मॆं ही लग चुका है। लखनऊ के बाजपेयी आये थे, हमारा उनका सम्बन्ध भी है, छः हजार देते थे, पर हमने इन्कार कर दिया। अब हमको खर्च भी पूरा न मिला, तो लङके को पढाकर हमने क्या फायदा उठाया? इस संबन्ध में (इधर-उधर झांककर) हमें कुछ मिला भी नहीं, तो इतना गिरकर...।"<br />"अच्छा तो कहिये, क्या चाहते हैं आप।"<br />"पन्द्रह हजार।"<br />"तब तो हमारे यहां बरतन भी साबित नहीं रहेंगे।"<br />"अच्छा तो आप कहिये।"<br />"नौ हजार ले लीजिये।"<br />"अच्छा, बारह हजार में पक्का।"<br />पं. सत्यनारायण अपनी अघारी सम्भालने लगे।<br />"ग्यारह हजार देते हैं आप?" पं. कृष्णशंकर ने उभङ कर पूंछा।<br />"दस हजार सही, बताइये।"<br />"अच्छा पक्का; मगर पांच हजार पेशगी।"<br />पं. सत्यनारायण ने कागज़, स्टांप हजार-हजार के पांच नोट निकालकर कहा, "लीजिये आप दोनो इसमॆएं दस्तखत कीजिये। पहले लिखिये, पं. सत्यनाराय्ण, मुरादाबाद, की कन्या से श्रीयुत विजय कुमार मिश्र एम.ए. के विवाह संबध में, जो दस हजार में मय गवही और गौने के खर्च के पक्का हुआ है, कन्या के पिता से पांच हजार पेशगी नकद वसूल पाया, फिर स्टाम्प पर वल्दियत के साथ दस्तखत कीजिये।"<br />पंडित गंगाधर गदगद हो गये। लिखा-पढी हो गयी। विवाह का दिन स्थिर हो गया।<br />तिलक चढ गया। तिलक के पहले समय तक विजय को ज्योतिर्मयी की याद आती रही। पर नवीन विवाह के प्रसंग से मन बंट गया। फिर धीरे-धीरे, जैसा हुआ करता है, वह स्मृति भी चित्त के अतल स्पर्श को चली गयी। अब विजय को उसके चरित्र पर रह-रहकर शंका होने लगी है। सोंचता है, बुरा फंस गया था, बच गया। सच कहा है-'स्त्रीचरित्रं पुरुषस्य भाग्यं दैवो न जानाति कुतो मनुष्यः?'<br />अब नई कल्पनायें उसके मस्तिष्क पर उठने लगी हैं। एक अज्ञात, अपरिचित मुख को जैसे केवल कल्पना के बल से प्रत्यक्ष कर लेना चाहता है, और इस चेष्टा में सुख भी कितना। इतना कभी नहीं उसे मिला। इस अज्ञात रहस्य में ज्योतिर्मयी की अम्लान छवि एक प्रकार भूल ही गया।<br /><br />चार<br />विजय ने विवाह के उत्सव में मिलने के लिये वीरेन्द्र को लिखा था, पर उसने उत्तर दिया, "मैं तो विजय का ही मित्र हूं, किसी पराजय का नहीं; इस विवाह में मैं शरीक न हो सकूंगा।"<br />जैसा पहले से निश्चय था, जल्दबाजी का बहाना कर पं. गंगाधर ने जाने-जाने रिश्तेदारों को छोङकर किसी को न बुलाया। इसी कारण ज्योतिर्मयी के यहां निमन्त्रण नहीं पहुंच सका। इधर भी जहां कहीम न्यौता गया, वहां से कुछ लोग ही आये। कारण संदेह की हवा बह चुकी थी।<br />बारात चली। लखनऊ में विजय की वीरेन्द्र मुलाकात हुयी। वीरेन्द्र ने पूंछा, "यार तुम तो ज्योतिर्मयी को भूल ही गये, इतने गल गये इस विवाह में!"<br />"बात यह है कि इस तरह की स्त्रियां समाज के काम की नहीं होतीं।"<br />"अरे! तुमने तो स्वर भी बदल लिया।"<br />"क्या किया जाय?"<br />"और जहां विवाह करने जा रहे हो, यही बङी सती-सावित्री निकलेगी, इसका क्या प्रमाण मिला है?"<br />"क्वारी और विधवा में फ़र्क है भाई"<br />यह मानता हूं।"<br />"कुछ संस्कृति का भी खयाल रखना चाहिये। संस्कृति से ही संतति अच्छी होती है।"<br />अरे तुम तो पूरे पं. हो गये!"<br />"अपने कुल का सबको ख्याल रहता है-केतहु काल कराल परै, पै मराल न ताकहिं तुच्छ तलैया।"<br />"अच्छा!"<br />"जी हां।"<br />"तब तो, जी चाहता है, तुम्हारे साथ मैं भी चलूं।"<br />"चलो, मैंने तो तुम्हे लिखा भी था, पर तुम दुनिया की वास्तविकता का विचार तो करते नहीं, विचारों की दीवारें उठाया-गिराया करते हो।"<br />"अच्छा भई, अब वास्तविकता का आनन्द भी ले लें। कहो कितने गिनाये?।<br />"दस हजार।"<br />"दस हजार! उसके मकान में लोटा त ओसाबुत छोङा न होगा?"<br />"कान्यकुब्ज-कुलीन हैं?"<br />"वे कोई मामूली कान्यकुब्ज होंगे?"<br />"बहुत मामूली नहीं, १७ बिसवे मर्यादावाले हैं।"<br />"हूं" वीरेन्द्र सोंचने लगा। "तुमसे घृणा हो गई है। जाओ अब नही ं जाऊंगा। तुम इतने नीच हो।"<br />वीरेन्द्र षर की ओर चला गया। बारात मुरादाबाद चली।<br />वर कन्या के लिये पं. सत्यनारायण जी ने एक सेकेण्ड क्लास कम्पार्टमेन्ट पहले से रिजर्व करा रखा था, और लोगों के लिये इण्टर क्लास अलग से।<br />पं. सत्यनारायण हांथ जोङकर पं.गंगाधर और कृष्णशंकर आदि से विदा हुये। कन्या से कहा, "बेटी, वहां पहुंचकर अपने समाचार जल्द देना।" गाङी छूट गई।<br />प्रणय से विजय का चित्त चपल हो उठा। अब तक जिस अदेश मुख पर असंख्य कल्पनायें की हैं उसने, उसे देखने का यह कितना शुभ सुन्दर अवसर मिला। उसने पिता को, ससुर को, समाज को भरे आनंद से छलकते हृदय से बार-बार धन्यवाद किया। साथ युवती बहू का घूंघट उठा चन्दमुख को देखने की चकोर-लालसा प्रबल हो उठी। डाकगाङी पूरी रफ्तार से जा रही थी।<br />विजय उठकर बहू के पास चलकर बैठा। सर्वांग कांप उठा। घूंघट उठाने के लिये हांथ उठाया। कलाई कांपने लगी। उस कंपन में कितना आनन्द है। रोंए-रोएं के भीतर आनन्द की गंगा बह चली।<br />विजय ने बहू का घूंघट उठाया, त्रस्त होकर चीख उठा, "ऎ!- तुम हो?"<br />'विवाह का यही सुख है!' ज्योतिर्मयी की आंखो से घृणा मध्यान्ह की ज्वाला की तरह निकल रही थी। छिः! मैंने यह क्या किया! यह वही विजय-संयत, शांत वही विजय है? ओह! कैसा परिवर्तन ! इसके साथ अब अपराधी की तरह, सिकुङकर, घर के कोने में मुझे सम्पूर्ण जीवन पार करना होगा। इससे मेरा वैधव्य शतगुण अच्छा था! वहां कितनी मधुर-मधुर कल्पनाओं में पल रही थी! वीरेन्द्र! तुम्हारे जैसा सिंह-पुरुष ऎसे सियार का भी साथ करता है? तुमने इधर डेढ महीने से मेरे लिये कितना दुःख, कितना कष्ट, मुझॆ और अपने इस अधम मित्र को सुखि करने के विचार से किया! १८ हजार खर्च किये! तुम्हारे मैनेजर-सत्यनारायण- मेरे कल्पित पिता- वह देवताओं का निर्मल परिवार। ज्योतिर्मयी मन ही मन और कितना, न जाने क्या-क्या सोंच रही थी।<br />विजय ने पूंछा, "तुम यहां कैसे आ गयीं?"<br />"विरेन्द्र से पूंछना।" ज्योतिर्मयी ने कहा।<br />ज्योतिर्मयी मिश्र खानदान मॆं मिल गई है पर वीरेन्द्र फिर विजय से नहीं मिला।<a href="http://shabdokiunjali.blogspot.com/2010/01/blog-post.html"></a>Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-5430045238288272082010-01-20T05:00:00.000-08:002010-01-20T05:06:08.238-08:00सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVR3YPAOKv4Nh5h_OrMy9ti2d_B1rKyCybufebuK1cBCQHCZ9Fvy-xGvYGaRTaUg5SGdjoZm0x0kIkCLgKD4G3_lePqR4XTT1NdGulKOFfYvEj0CaEFaMAUX7xO5vNzNOBe40Xjewp3pA/s1600-h/photo.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 244px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVR3YPAOKv4Nh5h_OrMy9ti2d_B1rKyCybufebuK1cBCQHCZ9Fvy-xGvYGaRTaUg5SGdjoZm0x0kIkCLgKD4G3_lePqR4XTT1NdGulKOFfYvEj0CaEFaMAUX7xO5vNzNOBe40Xjewp3pA/s320/photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5428807144145278066" /></a><br />सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' अधुनिक हिन्दी साहित्य के महान महान स्तन्भ थे। वे एक कवि, उपन्यासकार, निबन्धकार और कहानीकार थे। उन्होंने कई रेखाचित्र भी बनाये। उनके जीवन काल में उनकी प्रतिभा को पहचाना नहीं गया। उनके क्रान्तिकारी और स्वच्छन्द लेखन के कारण उनका साहित्य अप्रकाशित ही रहा।<br />निराला का पूरा जीवन, एक थोङे समय को छोङकर, दुर्भाग्य और विपत्ति का अनुक्रम था। उनका जन्म उन्नाव जिले के गढाकोला गांव के एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में, बसन्त पञ्चमी के दिन, १८९७ में हुआ। उनके पिता का नाम पं रामसहाय था, जो बंगाल के महिषादल राज्य के मेदिनीपुर जिले में एक सरकारी नौकरी करते थे। निराला का बचपन बंगाल के इस क्षेत्र में बीता जिसका उनके मन पर बहुत गहरा प्रभाव रहा है। तीन वर्ष की अवस्था में उनकी मां की मृत्यु हो गयी और उनके पिता ने उनकी देखरेख का भार अपने ऊपर ले लिया।<br />निराला की शिक्षा यहीं बंगाली माध्यम से शुरु हुई। हाईस्कूल पास करने के पश्चात उन्होंने घर पर ही संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया। प्रारम्भ से ही राम चरित मानस उन्हें बहुत प्रिय था। वे हिन्दी, बंगला, अंग्रेजी और संस्कृत भाषा में निपुण थे और श्री राम कृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द और श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर से विशेष रूप से प्रभावित थे।<br />निराला स्वच्छन्द प्रकृति के थे और स्कूल में पढने से अधिक उनकी रुचि घुमने, खेलने, तैरने और कुश्ती लङने इत्यादि में थी। संगीत में उनकी विशेष रुचि थी। अध्ययन में उनका विशेष मन नहीं लगता था। इस कारण उनके पिता कभी-कभी उनसे कठोर व्यवहार करते थे, जबकिउनके हृदय में अपने एकमात्र पुत्र के लिये विशेष स्नेह था।<br />हाईस्कूल करने के पश्चात वे लखनऊ और उसके बाद गढकोला (उन्नाव) आ गये। पन्द्रह वर्ष की अल्पायु में उनका विवाह मनोहरा देवी से हो गया। रायबरेली जिले में डलमऊ के पं. रामदयाल की पुत्री मनोहरा देवी सुन्दर और शिक्षित थीं, उनको संगीत का अभ्यास भी था। पत्नी के जोर देने पर ही उन्होंने हिन्दी सीखी।<br />इसके बाद अतिशीघ्र ही उन्होंने बंगला के बजाय हिन्दी में कविता लिखना शुरु कर दिया। बचपन के नैराश्य और एकाकी जीवन के पश्चात उन्होंने कुछ वर्ष अपनी पत्नी के साथ सुख से बिताये., किन्तु यह सुख ज्यादा दिनों तक नहीं टिका और उनकी पत्नी की मृत्यु उनकी २० वर्ष की अवस्था मॆं ही हो गयी। बाद में उनकी पुत्री जो कि विधवा थी, की भी मृत्यु हो गयी। वे आर्थिक विषमताओं से भी घिरे रहे। ऎसे समय में उन्होंने विभिन्न प्रकाषकों के साथ प्रूफ रीडर के रूप मॆं काम किया, उन्होंने 'समन्वय' का भी सम्पादन किया।<br />निराला को सम्मान बहुत मिला। परन्तु उनके संघर्ष के स्तर और संदर्भ को समझना उनके विरोधियों के लिये जितना मुश्किल था, उतना ही उनके प्रशंसको के लिये भी।<br />अंततः अपने मानसिक और शारीरिक संघर्ष को झेलते हुये निराला की मृत्यु दारागंज ( इलाहाबाद) में १५ अक्टूबर १९६१ में हो गयी।<br />प्रमुख कृतियां:-<br />कविता संग्रह: परिमल,अनामिका, गीतिका, कुकुरमुत्ता, आदिमा, बेला, नये पत्त्ते, अर्चना, आराधना, तुलसीदास, जन्मभूमि।<br />उपन्यास: अप्सरा, अल्का, प्रभावती, निरूपमा, चमेली, उच्च्श्रंखलता, काले कारनामे।<br />कहानी संग्रह: चतुरी चमार, शुकुल की बीवी, सखी, लिली, देवी।<br />निबन्ध संग्रह: प्रबन्ध-परिचय, प्रबन्ध प्रतिभा, बंगभाषा का उच्चरन, प्रबन्ध पद्य, प्रबन्ध प्रतिमा, चाबुक, चयन, संघर्ष।<br />आलोचना: रविन्द्र-कविता-कन्नन।<br />अनुवाद: आनन्द मठ, विश्व-विकर्ष, कृष्ण कान्त का विल, कपाल कुण्डला, दुर्गेश नन्दिनी, राज सिंह, राज रानी, देवी चौधरानी, युगलंगुलिया, चन्द्रशेखर, रजनी, श्री रामकृष्णा वचनामृत, भारत में विवेकानन्द, राजयोग।Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-77573668235486909702009-12-10T18:40:00.000-08:002010-09-22T21:27:01.178-07:00मैंने भी किया मतदान<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-sM9mRB_kHvcDaPudEswx6M1DlEDB-c-MWirIsutzAiGBuBItAF3UqQpZyKz9F289QBOpOFc22C3E4XK5E566YMKwmK_XAUuWwAzdcVZd0f-NyVaOlYi9u_3011lOVCkgBj_TuMavYwI/s1600/voting4.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-sM9mRB_kHvcDaPudEswx6M1DlEDB-c-MWirIsutzAiGBuBItAF3UqQpZyKz9F289QBOpOFc22C3E4XK5E566YMKwmK_XAUuWwAzdcVZd0f-NyVaOlYi9u_3011lOVCkgBj_TuMavYwI/s200/voting4.jpg" width="200" /></a></div>जब मेरे मित्र ने मुझसे मतदान करने के लिये कहा तो तमाम उदासीन मतदाताओं की तरह मैंने भी अनिच्छा जाहिर कर दी। मित्र ने जब जोर दिया कि इस देश की आधी आबादी तक इस जल्दी-जल्दी आने वाले राष्ट्रीय पर्व पर मतदान करती है। इसलिये वक्त के साथ चलने के लिये मतदान करने वाले लोगों में नाम शुमार करना जरूरी है, इस पर मैंने जवाब दिया कि जो आधी आबादी मतदान नहीं करती है, मैं उसमें शामिल होना पसंद करूंगा। इसके कई फायदे भी हैं। बिना वोट डाले मतदान करने वाली आधी आबादी को हासिल होने वाली सुविधाओं का उपयोग मैं भी कर सकता हूं। महंगाई, गन्दगी बेरोजगारी, असुरक्षा जैसी जब तमाम दिक्कतों से मुझ जैसे मतदान न करने वाले लोग पीड़ित हैं उसी पीड़ा से मतदान करने वाले लोग भी ग्रसित हैं तो मेरे जैसों में और उन जैसों में क्या फर्क है?<br />
मित्र ने जब यह कहा कि मेरे पास शताब्दी में पहली और आखिरी बार मतदान करने का यह आखिरी अवसर है तो मैं निरुत्तर हो गया। वास्तव में यह ऎसा अवसर था जिसका लाभ न उठाने पर अगली शताब्दी में मुझे अफसोस होता। मैं नहीं चाहता था कि इस शताब्दी में किये गये कुकर्मों का फल अगली शताब्दी में भुगतूं। इसलिये मैं अपने मित्र की राय से सहमत हो गया। मैं मतदान के लिये मित्रों के साथ निकल पड़ा। मैंने देखा कि सड़क के किनारे तख्त पर पंडो की तरह कुछ लोग बैठे थे जिनके पास सिर झुकाये हुये कुछ लोग किसी लिस्ट में अपना नाम खोज रहे थे। जैसे अक्सर लाटरी की दुकान पर लोग सिर झुकाये नम्बर मिलाते नज़र आते हैं। सिर झुकाये - झुकाये ही वापस भी चले जाते हैं। कम से कम यहां अपना नाम मिल जाने पर सिर उठाकर चलने के अवसर ज्यादा थे इसलिये मैं भी अपना नाम तलाशने वहां पहुंच गया।<br />
बहुत खोजने पर एक वोटर लिस्ट में मुझे मेरा नाम दिख ही गया। वोटर लिस्ट में अपना नाम देखते ही मुझे गर्व का अहसास हुआ क्योंकि बहुत से लोगों के नाम लिस्ट में नहीं मिल रहे थे और उनके चेहरे पर निराशा के भाव स्प्ष्ट दिख रहे थे। मैं भी कैसा मूर्ख था। जिसके लिये लोग परेशान घूम रहे थे, उस अवसर को मैं यूं ही गंवा रहा था। विजय के भाव से मैं मतदान केन्द्र पर पहुंचा तो वहां की सूची में मुझे मेरा नाम नहीं मिला। मैं झटका खा गया। मतदान के लिये अचानक मैं बेताब हो गया था और इसी चक्कर में बूथों के चक्कर लगाने लगा।<br />
कई बूथों के चक्कर लगाने पर मुझे एक बूथ में अपना नाम मिल ही गया। पीठासीन अधिकारी से कुछ देर की बहस के बाद मुझे पता चला कि मेरा नाम दो अलग-अलग सूचियों में दर्ज है अर्थात दो अलग-अलग केन्द्रों पर। इस अहसास के साथ ही मैं दोहरे उल्लास से भर गया कि मेरा नाम दो-दो जगहों पर दर्ज है। लोग एक सूची में नाम पाने को तरस रहे थे, और मेरा नाम दो-दो सूची में था, वाह!<br />
जब मैंने इलैक्ट्रानिक मशीन पर बतन दबाया और मुझे बताया गया कि मेरा वोट पड़ गया है तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। क्या इतनी जल्दी मैंने देश के भाग्य का फैसला कर दिया था? एक अजीब सी रिक्तता का आभास होने लगा था। मैंने अपनी भावना से जब अपने मित्र को अवगत कराया तो वह मुस्कुराने लगे, "क्या दोबारा वोट डालने की इच्छा हो रही है? अभी मन भरा नहीं है? चलिये, एक और वोट डाल दीजिये।"<br />
मैंने सोंचा कि वे मजाक कर रहे हैं। पीठासीन अधिकारी बैठे हैं, तमाम पार्टियों के एजेन्ट बैठे हैं, पुलिस मौजूद है। ऎसे में दूसरा वोट? और सबसे बड़ी बात तो उंगली पर स्याही भी लग चुकी है उसे कैसे छुपायेंगे?<br />
मेरा अंतर्द्वन्द मित्र की समझ में आ गया, " चिन्ता मत करिये, कुछ नहीं होगा, चलिये वोट डालिये।" यह कहकर उन्होंने जेब से एक पर्ची निकालकर मुझे थमाया जिस पर राम सुमेर सोनकर लिखा हुआ था। मैं अपनी जगह से नहीं हिला तो मित्र ने मुझे समझाया, "यहां बैठे लोगों से आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है, सभी लोग अपने हैं। कहीं कुछ नहीं होगा। मैं साथ में जो हूं।"<br />
मेरी हिम्मत मेरा साथ छोड़ गई थी। मान भी लिया कि ये सब लोग नहीं बोलेंगे लेकिन अपनी नैतिकता भी तो कोई चीज़ होती है। मैं किस मुंह से सबके सामने से गुजरुंगा? कहीं पकड़ गया तो लोग क्या कहेंगे? वैसे भी बूथ कैप्चरिंग के कोई चिन्ह नहीं दिख रहे थे। सभी लोग शान्ति पूर्वक अपना काम कर रहे थे। ऎसे लोगों से बिके हुये होने की उम्मीद कैसे की जा सकती थी?<br />
मित्र ने मुझे समझाया कि यहां पर जितने पोलिंग ऎजेन्ट बैठे हैं , सब अपने हैं। भले ही वे किसी भी पार्टी के ऎजेन्ट दिख रहे हों, लेकिन हैं अपने आदमी। आप घबरा क्यों रहे हैं? अच्छा आप, मेरे पीछे -पीछे रहिये। बोलियेगा कुछ नहीं।<br />
मैं मित्र के पीछे खड़ा हो गया। पर्ची दिखाई तो दस्तखत करने के लिये कहा गया। राम सुमेर के नाम का हस्ताक्षर कर दिया तो स्याही लगाने वाले के पास पहुंचा।<br />
उसने मेरी उंगली में लगी स्याही देखी तो मित्र ने उसे कुछ इशारा कर दिया। उसने स्याही के ऊपर दुबारा स्याही लगाकर मुझे वोटिंग मशीन के पास जाने को कहा। मेरा दिल जोरों से धडक रहा था। बटन दबाने तक मुझे पकड़े जाने का अहसास जोरों से होने लगा था लेकिन बटन दबाते ही जैसे सारा भय उड़न छू हो गया। मैं सही सलामत बूथ से बाहर निकला तो ऎसा लगा कि चुनाव जीत गया हूं।<br />
मेरे मित्र ने मेरी तरफ मुस्कुराते हुये देखा और मुझसे पूंछा कि कौन सा बटन दबाया था? मैंने बताया कि टेंशन के कारण मुझे याद ही नहीं रहा कि कौन सा बटन दब गया था। मेरे मित्र ने अपने माथे पर हांथ मारते हुये कहा कि 'नास कर दिया।' जाओ एक और वोट डालकर आओ। यह कहते हुये उन्होंने एक और पर्ची निकालकर मुझे दे दी और बूथ पर किसी को इशारा करते हुये कहा कि 'जरा इनका वोट भी डलवा देना।'<br />
इस बार मैंने बिना किसी शर्म, हिचक और भय के मतदान कर दिया। वक्त वक्त की बात है। आधे घन्टे के भीतर मेरी ज़िन्दगी और दृष्टि तक बदल गई थी। कहां मैं वोट डालना नहीं चाहता था और कहां एक ही बूथ पर तीन तीन बार वोट डाल चुका था। मेरी हिम्मत बढ चुकी थी। अचानक मुझे मेरी एक रिश्तेदार दिखाई दीं। अपना रौब गालिब करने के लिये मैं उनके पास पहुंचा और पूंछा कि क्या आप दोबारा वोट डालना चाहेंगी?<br />
आगे की बातचीत में वही सब कुछ हुआ जो थोड़ी देर पहले मेरे साथ हुआ था। मैंने महिला को तैयार कर लिया था और उसके लिये पर्ची मांग ली थी। लेकिन जब वह महिला स्याही लगाने वाले के पास पहुंची तो हांथ दिखाने से मना कर दिया। वह रंगे हांथो नहीं पकड़ना चाह्ती थीं, या फिर उनके सिद्वान्त मुझसे ज्यादा मजबूत थे। कुछ देर की जिद के बाद अंततः बिना स्याही लगाये ही उसे मतदान करने की अनुमति दे दी गई। अनुभव के नय-नये क्षितिज मेरे सामने खुलने लगे थे।<br />
अब मैंने अपनी दृष्टि खोलकर जब मतदान केन्द्र पर किसी तरह का बाहरी कब्जा नहीं था बल्कि सभी के भीतरी तार जुड़े हुये थे। विभिन्न पार्टियों के लोगों का दबदबा कायम था। कोई किसी के मामले में हस्तक्षेप नहीं कर रहा था। जो कोई अपने साथियों को वोट डालने के लिये ला रहा था, उसके वोट पड़ जा रहे थे। भले ही उसका नाम मतदाता सूची में हो या न हो या वह पहले भी चार बार वोट डाल चुका हो।<br />
हां, इतनी सावधानी जरूर बरती जा रही थी कि एक ही बूथ पर एक ही व्यक्ति से कई बार मतदान न कराकर मतदाता की सेवा कई बूथों पर ली जा रही थी। सबकी अपेक्षा थी कि मतदान शान्तिपूर्ण हो। कोई लफड़ा न हो। किसी की नौकरी या प्रतिष्ठा खतरे में न पड़े। यही चुनाव आयोग चाहता है, यही निर्वाचन अधिकारी और यही प्रत्याशियों के समर्थक। जीते कोई भी लेकिन अशान्ति पैदा करके नहीं। यही है समय की पुकार!<br />
<a href="http://shabdokiunjali.blogspot.com/2009/11/blog-post.html">--स्नेह मधुर</a>Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-11481636089868329682009-12-03T18:36:00.000-08:002009-12-03T18:38:44.621-08:00सौन्दर्यतुम कनक किरण के अन्तराल में<br />लुक-छिप कर चलते हो क्यों?<br /><br />नत मस्तक गर्व वहन करते<br />यौवन के घन, रस-कन ढरते।<br />हे लाज भरे सौन्दर्य! बता दो<br />मौन बने रहते हो क्यों?<br /><br />अधरों के मधुर कगारॊं में<br />कल-कल ध्वनि की गुंजारों में!<br />मधुसरिता- सी यह हंसी तरल<br />अपनी पीते रहते हो क्यों?<br /><br />बेला विभ्रम की बीत चल्ली<br />रजनी गंधा की कली खिली-<br /><br />अब सान्ध्य - मलय - आकुलित<br />दुकूल कलित हो, वों छिपते हो क्यों?<br /> वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे!<br />जब सावन - घन - सघन बरसते-<br />इन आंखों की छाया भर थे!<br />सुर धनु रंजित नव -जल धर से-<br />भरे, क्षितिज व्यापी अम्बर से,<br />मिले चूमते जब सरिता के ,<br />हरित फूल युग मधुर अधर से।<br />प्राण पपीहा के स्वर वाली-<br />बरस रही थी जब हरियाली-<br />रस जल कन या लती -मुकुल से-<br />जो मदकाते गन्ध विधुर थे,<br />चित्र खींचती थी जब चपला,<br />नील मेघ-पट पर वह विरला,<br />मेरी जीवन-स्मृति के जिसमें-<br />खिल उठते वे रूप मधुर थे।<br />[लहर- <a href="http://shabdokiunjali.blogspot.com/2009/12/blog-post.html">जयशंकर प्रसाद</a>/ भारती भंडार, लीडर प्रेस-प्रयाग]Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-88102620189166320952009-12-03T06:01:00.001-08:002009-12-03T06:16:44.997-08:00उठ उठ री लघु लोल लहरउठ उठ री लघु लोल लहर<br />करुणा की नव अंगराई सी,<br />मलयानिल की परछाई सी,<br />इस सूखे तट पर छिटक छहर।<br />शीतल कोमल चिर कम्पन सी,<br />दुर्लभित हठीले बचपन सी,<br />तू लौट कहां जाती है री-<br />यह खेल खेल ले ठहर ठहर!<br />उठ-उठ गिर-गिर फिर-फिर आती,<br />नर्तित पद-चिन्ह बना जाती,<br />सिकता की रेखायें उभार-<br />भर जाती अपनी तरल सिहर!<br />तू भूल न री, पंकज वन में,<br />जीवन के इस सूने पन में,<br />ओ प्यार पुलक हे भरी धुलक!<br />आ चूम पुलिन के विरस अधर!<br /> <br />दो बूंद<br />शरद का सुन्दर नीलाकाश,<br />निशा निखरी, था निर्मल हास।<br />बह रही छाया पथ में स्वच्छन्द,<br />सुधा सरिता लेती उच्छवास।<br />पुलक कर लगी देखने धरा,<br />प्रकृति भी सकी न आंखे मूंद,<br />सुशीतल कारी शशि आया,<br />सुधा की मानो बङि सी बूंद।<br />हरित किसलय मय कोमल वृक्ष,<br />झुक रहा जिसका --- भार,<br />उसई पर रे मत वाले मधुप!<br />बैठकर भरता तू गुञ्जार,<br />न आशा कर तू अरे! अधीर<br />कुसुम रस- रस ले लूंगा मूंद,<br />फूल है नन्हा सा नादान,<br />भरा मकरन्द एक ही बूंद।<br />[झरना- जय शंकर प्रसाद ]Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-6114159765044487522009-12-03T04:31:00.000-08:002009-12-03T04:47:51.221-08:00जयशंकर प्रसाद<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlbICvDR_4qBHLvxYqN1udo3UGbJNCzlXg2R-AVx0gzvjlUJpjWcSUzJAdKLI8UEicHkJcV2QYt05qG5jQH15frrNpB5duwvFGFQDV_3BjXYUZjIYqG2rcqS-ic84K1D-gUGrXDnyNyMs/s1600-h/photo+jaishanker+kee.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 261px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlbICvDR_4qBHLvxYqN1udo3UGbJNCzlXg2R-AVx0gzvjlUJpjWcSUzJAdKLI8UEicHkJcV2QYt05qG5jQH15frrNpB5duwvFGFQDV_3BjXYUZjIYqG2rcqS-ic84K1D-gUGrXDnyNyMs/s320/photo+jaishanker+kee.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5410987630977302722" /></a><br /><br />जिस समय खङी बोली और आधुनिक हिन्दी साहित्य किशोरावस्था में पदार्पण कर रहे थे; काशी के 'सुंघनी साहू' के प्रसिद्व घराने में श्री जयशंकर प्रसाद का जन्म ३० जनवरी १८९० (संवत१९४६) में हुआ। व्यापार में कुशल और साहित्य सेवी , अपके पिता श्री देवी प्रसाद पर लक्ष्मी की कृपा थी। इस प्रकार प्रसाद का पालन पोषण लक्ष्मी और सरस्वती के कृपापात्र घराने में हुआ। एक अत्यन्त सात्विक और धार्मिक मनोवृत्ति का प्रभाव जो पूरे परिवार में वर्तमान था, प्रसाद जी के ऊपर बचपन से ही पङता सा जान पङता था।उनका बचपन अत्यन्त सुख से व्यतीत हुआ, वे अपनी माता के साथ अनेक तीर्थों की यात्राओं पर भी गये।<br />जिस समय उनके पिता की मृत्यु हुई ( १९०१) वे क्वींस कालेज में सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। बङे भाई श्री शम्भू रत्न जी पर घर का सारा भार आ पङा। इसके कुछ दिन बाद प्रसाद जी को विवश होकर पढाई छोङकर दुकान पर बैठना पङा। पढाई छोङने के बाद भी वे अध्ययन में लगे रहे और घर पर ही उन्होंने अंग्रेजी, संस्कृत और हिन्दी में पढाई जारी रखी। आठ-नौ वर्ष की अवस्था मॆं ही अमरकोष और लघुकौमुदी कंटस्थ कर लेना अध्ययन की ओर उनकी गहरी निष्ठा का प्रमाण है। इसी आयु में उन्होंने ब्रजभाषा में कवित्त और सवैयों की रचना भी प्रारम्भ कर दी थी। कवि के अन्तर की व्याकुलता के लिये कहीं न कहीं कोई अभिव्यक्ति का मार्ग मिलना ही चाहिये। उनकी प्राम्भिक रचनायें इसी अचेतन व्याकुलता को व्यक्त करती हैं।<br />प्रसाद जी के सम्पूर्ण साहित्य में णीयति का बङा ही कौशलपूर्ण चित्रण मिलता है। सारे कर्म पुरुषार्थ पर अप्रत्यक्ष रूप से छाई हुई इस नीयति की विडम्बना प्रसाद-साहित्य की एक अप्रतिम विशेषता है। इस नीयति का रूप नाशकारी नहीं है। बहुत कुछ वह मनुष्य के कर्म क्षेत्र में निरपेक्ष होकर कूदने का आग्रह करती है और इसी स्थिति में आनन्द की अवधारण भी ठीक है। नीयति का यह स्वरूप कवि के निजी संघर्ष और भौतिक जीवन की विडम्बना की देन है। कुल सत्रह वर्षोंकी अवस्था में, बङे भाई के देहान्त से उन्हीं के ऊपर घर गॄहस्थी का सारा भार आ गया। एक ओर कवि की कलपना-अभिभूत मानस, दूसरी ओर यथार्त जीवन की कटु यंत्रणायें- उन्हीं के बीच प्रसाद जी का कलाकार जीवन निर्मित हुआ है। अध्ययन उनके इस जीवनानुभव को एक दार्शनिक और चिंतनात्मक आधार देने में सहायक हुआ है। भारतीय दर्शनों का अध्ययन और संस्कृत काव्य का अवगाहन करके प्रसाद जी ने एक शक्तिशाली और पूर्ण मानस-दर्शन की कल्पना की, जिसकी अनुभूति बहुत कुछ उनकी निजी यंत्रणाओं की देन है। उनका निर्माण और उनकी रचना सम्पूर्ण रूप से भारतीय है और भारतीयता के संस्कार उनके काव्य-साहित्य में और अधिक पुष्ट होकर आये हैं।<br />प्रसाद जी का जीवन कुल ४८ वर्ष का रहा है। इसी में उनकी रचना प्रक्रिया इसी विभीन्न साहित्यिक विद्याओं मॆं प्रतिफलित हुई कि कभी-कभी आश्चर्य होता है। कविता, उपन्यास, नाटक और निबन्ध- सभी में उनकी गति समान है। किन्तु अपनी हर विद्या मॆं उनका कवि सर्वत्र मुखरित है। वस्तुतः एक कवि की गहरी कल्पनाशीलता ने ही साहित्य को अन्य विद्याओं में उन्हें विशिष्ट और व्यक्तिगत प्रयोग करने के लिये अनुप्रेरित किया। उनकी कहानियों का अपना पृथक और सर्वथा मौलिक शिल्प है; उनके चरित्र-चित्रण का, भाषा-सौष्ठव का, वाक्यगठन का एक सर्वथा निजी प्रतिष्ठान है।<br />उनके नाटकों में भी इसी प्रकार के अभिनव और श्लाघ्य प्रयोग मिलते हैं। अभिनेयता को दृष्टि मॆं रखकर उनकी बहुत आलोचना की गई तो उन्होंने एक बार कहा भी था कि 'रंगमंच नटक के अनुकूल होना चाहिये न कि नाटक रंगमंच के अनुकूल।' उनका यह कथन ही नाटक रचना के आन्तरिक विधान को अधिक महत्वपूर्ण सिद्व कर देता है।<br />कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास-सभी क्षेत्रों मॆं प्रसाद जी एक नवीन 'स्कूल' और नवीन जीवन-दर्शन की स्थापना करने में सफल हुये हैं। वे 'छायावाद' के संस्थापकों और उन्नायकों में से एक हैं। वैसे सर्वप्रथम कविता के क्षेत्र में इस नव-अनुभूति के वाहक वही रहे हैं और प्रथम विरोध भी उन्हीं को सहना पङा है। भाषा शैली और शब्द-विन्यास के निर्माण के लिये जितना संघर्ष प्रसाद जी को करना पङा है, उतना दूसओं को नही।<br />यह बहुत अंशो तक सच है कि कलाकार की आस्था उसके जीवन से बङी वस्तु होती है। जीवन तो चारों ओर की विपदाओं से घिरा होता है। उनसे परित्राण कहां! विश्वास और 'आस्था' क के रूप में कलाकार इस जीवन की क्षणिक अनुभूतियों को ऊपर उठाकर एक विशाल और कल्याण्कार मानव-भूमि की रचना करता है। प्रसाद जी ने भी अपने अल्पकालीन जीवन में इसी उच्च्तर संदेश को अपनी कृतियों के माध्यम से वाणी दी है।<br /><br />प्रसाद जी द्वारा लिखे गये ग्रन्थ<br />काव्य कानन कुसुम<br />करुणालय<br />प्रेम्पथिक<br />महाराणा का महत्व<br />झरना<br />आंसू<br />लहर<br />कामायनी<br />नाटक कामना<br />विशाख<br />एक घूंट<br />अजातशत्रु<br />जनमेजय का नाग-यज्ञ<br />राज्यश्री<br />स्कन्दगुप्त<br />चन्द्रगुप्त<br />ध्रुवस्वामिनी<br />उपन्यास कंकाल<br />तितली<br />इरावती (अपूर्ण)<br />कहानी संग्रह छाया<br />आंधी<br />प्रतिध्वनि<br />इन्द्रजाल<br />आकाश दीप<br />निबन्ध संग्रह<br />काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध<br />प्रसाद-संगीत<br /><br />नाटकों में प्रयुक्त गीतों का एकत्र संकलन<br />चित्राधार (विविध)<br />कामायनी : आधुनिक सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य<br />'कामायनी' छायावादी काव्य का एकमात्र महाकाव्य और आधुनिक साहित्य की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। इसमें मनु, श्रद्वा और इङा की पौराणिक कथा को लेकर युग की मानवता को समरसता के आनन्द का संदेश दिया गया है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में, "यह काव्य बङी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से परिपूर्ण है।"<br />प्रसाद का प्रकृति दर्शन मानव-सापेक्ष होने से उनका काव्य मानव के अत्यन्त मांसल और आकर्षक रूप वर्णन से भरा हुआ है। 'श्रद्वा' का रूप वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल निधि है। मानव जीवन के प्रति कवि का अगाध ममत्व है। इस ममत्व के मूल रूप में कवि का अति मानवीय रूप, जीवन की साधना और वास्तविकता है। इसलिये उसमें प्रेम और त्याग, अधिकार और आत्मविसर्जन, भोग और निग्रह दोंनो ही बातें पायी जाती हैं। अतीत को उन्होंने वर्तमान रूप मॆं ही देखा है। प्रसाद के सम्पूर्ण काव्य में करुणा और विषाद की भावना निष्क्रियता का संदेश न देकर मानव के महत्व और उसके जीवन मॆं आनन्द की प्रकृत अवस्थिति का निर्देश कर उसे जीवन -पथ पर आगे बढने के लिये प्रेरित करती है। प्रसाद के काव्य की यही सर्वश्रेष्ठ विशेषता है। उसमें जीवन की कर्मण्य हलचल और आशा का संगीत है।<br />प्रसाद काव्य का कलापक्ष<br />प्रसाद काव्य का कलाप्क्ष भी उसके भावपक्ष के समान ही उत्कृष्ट, प्रभावक और सुन्दर है। उनकी भाषा संस्कृत गर्भित होते हुये भी क्लिष्ट नहीं हो पायी है। शब्द-विन्यास, वस्तु-चयन, अलंकार योजना आदि स्भी की दृष्टि में भावों की व्यंजना सरस, सुन्दर, आकर्षक, प्रतीकात्मक और विशाल बनी है। रस-निरूपण में प्रसाद किसी रस विशेष को अपना लक्ष्य बनाकर नहीं चले हैं। सामान्य रूप से उनके काव्य का आरम्भ श्रघार से होकर उसकी परिणति शान्त या करुण-रस में होती है।Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-81229166829724123672009-11-30T21:42:00.000-08:002009-11-30T21:43:29.634-08:00उन्माद प्रेमचन्दमनहर ने अनुरक्त होकर कहा-यह सब तुम्हारी कुर्बानियों का फल है वागी। नहीं तो आज मैं किसी अन्धेरी गली में, किसी अंधेरे मकान के अन्दर अंधेरी जिन्दगी के दिन काट र्हा होता। तुम्हारी सेवा और उपकार हमेशा याद रहेंगे, तुमने मेरा जीवन सुधार दिया -मुझे आदमी बना दिया।<br /> वागेश्वरी ने सिर झुकाये नम्रता से उत्तर दिया-यह तुम्हारी सज्जनता मानूं,मैं बेचारी भला तुम्हारी जिन्दगी क्या सुधारूंगी? हां, तुम्हारे साथ रहकर मैं भी एक दिन अदमी बन जाऊंगी। तुमने परिश्रम किया, उसका पुरस्कार पाया। जो अपनी मदद आप करते हैं उनकी मद परमात्मा भी करते हैं, अगर मुझ-जैसी गंवारन किसी और के पाले पङती, तो अब तक न जाने क्या गत बनी होती।<br /> मनहर मानो इस बहस में अपना पक्ष-समर्थ करने के लिये कमर बांधता हुआ बोला-तुम जैसी गंवारन पर मैं एक लाख सजी हुयी गुङियों और रंगीन तितलियों को निछावर कर सकता हूं। तुमने मेहनत करने का वह अवसर और अवकाश दिया जिनके बिना कोई सफल हो ही नहीं सकता। अगर तुमने अपनी अन्य विलास प्रिय, रंगीन मिजाज बहनों की तरह मुझे अपने तकाजों से दबा रखा होता, तो मुझे उन्नति करने का अवरर कहां मिलता? तुमने मुझे निश्चिन्तता प्रदान की, जो स्कूल के दिनों में भी न मिली थी। अपने और सहकारियों को देखता हूं, तो मुझे उन पर दया आती है। किसी का खर्च पूरा नहीं पङता। आधा महीना भी नहीं जाने पाता और हांथ खाली हो जाता है। कोई दोस्तों से उधार मांगता है, कोई घरवालों को खत लिखता है। कोई गहनों की फिक्र में मरा जाता है कोई कपङों की। कभी नौकर की टोह में हैरान, कभी वैध की टोह में परेशान। किसी को शान्ति नहीं। आये दिन स्त्री-पुरुष मॆं जूते चलते हैं। अपना जैसा भाग्यवान तो मुझे कोई नहीं दीख पङता। मुझे घर के सारे आनन्द प्राप्त हैं और जिम्मेदारी एक भी नहीं। तुमने ही मेरे हौसलों को उभारा, मुझे उत्तेजना दी। जब कभी मेरा उत्साह टूटने लगता, तो तुम मुझे तसल्ली देती थीं। मुझे मालूम ही नहीं हुआ कि तुम घर का प्रबन्ध कैसे करती हो। तुमने मोटे से मोटा काम अपने हाथों से किया, जिससे मुझे पुस्तकों के लिये रुपयों की कमी न हो। तुम्ही मेरी देवी हो और तुम्हारी ही बदौलत आज मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है। मैं तुम्हारी इन सेवाओं की स्मृति को हृदय में सुरक्षित रखूंगा वागी, और एक दिन वह आयेगा, जब तुम अपने त्याग और तप का आनन्द उठाओगी।<br /> वागेश्वरी ने गदगद होकर कहा-तुम्हारे ये शब्द मेरे लिये सबसे बङे पुरस्कार हैं, मानू! मैं और किसी पुरस्कार की भूखी नहीं! मैंने जो कुछ तुम्हारी थोङी बहुत सेवा की, उसका इतना यश मुझे मिलेगा, मुझे तो आशा भी न थी।<br /> मनहरनाथ का हृदय इस समय उदार भावों से उमङा हुआ था। वह यों बहुत ही अल्पभाषी, कुछ रूखा आदमी था और शायद बागेश्वरी के मन में उसकी शुष्कता पर दःख भी हुआ हो; पर इस समय सफलता के नशे ने उसकी वाणी मॆं पर लगा दिये थे। बोला- जिस समय मेरे विवाह की बात चल रही थी, मैं बहुत शंकित था। समझ गया कि मुझे जो कुछ होना था हो गया। अब सारी उम्र देवी जी की नाजबरदारी में गुजरेगी। बङे-बङे अंग्रेज विद्वानों की पुस्तकें पढने से मुझे विवाह से घृणा हो गयी थी। मैं इसे उम्र कैद समझने लगा था, जो आत्मा और बुधि की उन्नति का मार्ग बन्द क्र देती है, जो मनुष्य को स्वार्थ का भक्त बना देती है, जो जीवन के क्षेत्र को संकीर्ण कर देती है। मगर दो ही चार मास के बाद मुझे अपनी भूल मालूम हुयी। मुझे मालूम हुआ कि सुभार्या स्वर्ग की सबसे बङी विभूति है, जो मनुष्य को उज्जवल और पूर्ण बना देती है, जो आत्मोन्नति का मूलमन्त्र है। मुझे मालूम हुआ कि विवाह का उद्देश्य भोग नहीं, आत्मा का विकास है।<br /> वागेश्वरी मनहर की नम्रता सहन नहीं कर सकी। वह किसी बात के बहाने से उठकर चली गयी।<br /> मनहर और वागेश्वरी का विवाह हुये तीन साल गुजरे थे। मनहर उस समय एक दफ्तर में क्लर्क था। सामान्य युवकों की भांति उसे भी जासूसी उपन्यासों से बहुत प्रेम था। धीरे-धीरे उसे जासूसी का शौक हुआ। इस विषय पर उसने बहुत सा साहित्य जमा किया और बङे मनोयोग से उसका अध्ययन किया। इसके बाद उसने इस विषय पर स्वयं एक किताब लिखी। रचना में उसने ऎसी विलक्षण विवेचन-शक्ति का परिचय दिया, उसकी शैली भी इतनी रोचक थी, कि जनता ने उसे हाथों-हाथ लिया। इस विषय पर वह सर्वोत्तम ग्रन्थ था।<br /> देश में धूम मच गयी। यहां तक कि इटली और जर्मनी-जैसे देशों से उसके पास प्रशंसा-[अत्र आये और इस विषय की पत्रिकाओं में अच्छी-अच्छी आलोचनाएं निकली। अन्त में सरकार ने भी अपनी गुण्ग्राहकता का परिचय दिया-उसे इंग्लैण्ड जाकर इस कला का अभ्यास करने के लिये वृत्ति प्रदान की। और यह सब कुछ वागेश्वरी की भहोरणा का शूभ-फल था।<br /> मनहर की इच्छा थी कि वागेश्वरी भी साथ चले, पर वागेश्वरी उनके पांव की बेङी नहीं बनना चाहती थी। उसने घर रहकर सास-ससुर की सेवा करना ही उचित समझा।<br /> मनहर के लिये इंग्लैण्ड एक दूसरी दुनिया थी, जहां उन्नति के मुख्य साधनों में एक रूपवती पत्नी का होना भी जरूरी था। अगर पत्नी रूपवती है, चपल है, वाणी कुशल है, प्रगल्भ है, तो समझ लो उसके पति को सोने की खान मिल गयी। अब वह उन्नति के शिखर पर पहुंच सकता है। मलोयोग और तपस्या के बलबूते पर नहीं, पत्नी के प्रभाव और आकर्षण के तेज पर। उस संसार में रूप और लावण्य व्रत के बन्धनों से मुक्त, एक अबाध सम्मपत्ति थी। जिसने किसी रमणी को प्राप्त कर लिया, उसकी मानो तकदीर खुल गयी। यदि कोई सुन्दरी कोई सहधर्मिणी नहीं है, तो तुम्हारा सारा उध्योग, सारी कार्य पटुता निष्फल है, कोई तुम्हारा पुरसाहाल न होगा; अतएव वहां रूप को लोग व्यापारिक दृष्टि से देखते थे।<br /> साल ही भर के अंग्रेजी समाज के संसर्ग ने मनहर की मनोवृत्तियों में क्रान्ति पैदा कर दी। उसके मिजाज ने सांसारिकता का इतना प्रधान्य हो गया कि कोमल भावों के लिये वहां कोई स्थान ही न रहा। वागेश्वरी उसके विध्याभ्यास में सहायक होती थी, पर उस अधिकार और पद की ऊचाइयों तक न पहुंचा सकती थी। उसके त्याग और सेवा का महत्व भी अब मनहर की निगाहों में कम होता जा रहा था। वागेश्वरी अब उसे एक व्यर्थ सी वस्तु मालूम होती थी, क्योंकि भौतिक दृष्टि से हर एक वस्तु का मूल्य उससे होने वाले साथ पर ही अवलम्बित था। अपना पूर्व जीवन अब उसे हास्यास्पद जान पङता था। चंचल, हंसमुख, विनोदिनी अंग्रेज युवतियों के सामने वागेश्वरी एक हल्की तुच्छ सी वस्तु जान पङती-इस विधुत प्रकाश में वह दीपक अब मलिन पङ गया था। यहां तक कि शनैः शनैः उसका वह मलिन प्रकाश भी अब लुप्त हो गया।<br /> मनहर ने अपने भविष्य का निष्चय कर लिया। वह भी एक रमणी की रूप नौका द्वारा ही अपने लक्ष्य तक पहुंचेगा। इसके सिवा कोई और उपाय न था।<br /> २<br /> रात के नौ बजे थे। मनहर लंदन के एक फैशनेबल रेस्ट्रां में बना-ठना बैठा था। उसका रंग-रूप और ठाठ-बाट देखकर सहसा कोई नहीं कह सकता था कि वह अंग्रेज नहीं है। लंदन ने भी उसके सौभाग्य ने उसका साथ दिया था। उसने चोरी के कई गहरे मुआमलों का पता लगा लिया था, इसलिये उसे धन और यश दोनो ही मिल रहा था। वह अब यहां के भरतीय समाज का प्रमुख अंग बन गया था, जिसके आथित्य और सौजन्य की सभी सराहना करते थे। उसका लबो-लहजा भी अंग्रेजों से मिलता जुलता था। उसके सामने मेज के दूसरी ओर एक रमणी बैठी हुई उनकी बातें बङे ध्यान से सुन रही थी। उसके अंग-अंग से यौवन ट्पका पङता था। भारत के अदभुत वृत्तान्त सुनकर उसकी आंखे खुशी से चमक रही थीं। मनहर चिङिया के सामने दाने बिखेर रहा था।<br /> मनहर-विचित्र देश है जेनी, अत्यन्त विचित्र।पांच-पांच साल के दूल्हे तुम्हे भारत के सिवा कहीं देखने को नहीं मिलेंगे। लाल रंग के चमकदार कपङे, सिर पर चमकता हुआ लम्बा टोप, चेहर पर फूलों का झालर्दार बुर्का, घोङे पर सवार चले जा रहे हैं। दो आदमी दोनों तरफ़ से छतरी लगाये हुए हैं। हांथो में मेंहदी लगी हुयी है।<br /> जेनी- मेंहदी क्यों लगाते हैं?<br /> मनहर- जिससे हांथ लाल हो जायें। पैरों मीं भी रंग भरा जाता है। उंगलियों के नाखून लाल रंग दिये जाते हैं। वह दृष्य देखते ही बनता है।<br /> जेनी-यह तो दिल में सनसनी पैदा करने वाला दृष्य होगा। दुल्हन भी इसी तरह सजायी जाती होगी?<br /> मनहर-इससे कई गुनी अधिक। सिर से पांव तक सोने चांदी के गहनों से लदी हुयी। ऎसा कोई अंग नहीं जिसमें दो-चार जेवर न हों।<br /> जेनी-तुम्हारी शादी भी इसी तरह हुयी होगी। तुम्हे तो बङा आनन्द आया होगा?<br /> मनहर-हां, वही आनन्द आया था जो तुम्हे मेरी-गोराउण्ड पर चढने में आता है। अच्छी-अच्छी चीजे खाने को मिलती हैं, अच्छे कपङे पहनने को मिलते हैं। खूब नाच तमाशे देखता था और शहनाइयों का गाना सुनता था। मजा तो तब आता है जब दुलहन अपने घर से बिदा होती है। सारे घर में कुहराम मच जाता है। दुलहन हर एक से लिपट-लिपट कर रोती है, जैसे मातम कर रही हो।<br /> जेनी-दुलहन रोती क्यों है?<br /> मनहर-रोने का रिवाज चला आता है। हालांकि सभी लोग जानते हैं कि वह हमेशा के लिये नही जा रही है, फिर भी सारा घर इस तरह फूट फूट कर रोता है, मानो वह काले पानी भेजी जा रही हो।<br /> जेनी-मैं तो इस तमाशे पर खूब हंसू।<br /> मनहर-हंसने की बात ही है।<br /> जेनी-तुम्हारीबीवी भी रोयी होगी?<br /> मनहर-अजी कुछ न पूंछो, पछाङे खा रही थी, मानो मैं उसका गला घॊंट दूंगा। मएरी पालकी से निकलकर भागी जाती थी, पर मैंने जोर से पकङ कर अपनी बगल में बैठा लिया। तब मुझे दांत काटने दौङी।<br /> मिस जेनी ने जोर का कहकहा मारा और हंसी के साथ लोट गयीं। बोलीं-हारिबल! हारिबल! क्या अब भी दांत काटती है?<br /> मनहर-वह अब इस संसार में नहीं रही जेनी! मैं उससे खूब काम लेता था। मैं सोता था तो वो बदन में चम्पी लगाती थी, मेरे सिर में तेल डालती थी, पंखा झलती थी।<br /> जेनी-मुझे तो विश्वास नहीं आता। बिल्कुल मूर्ख थी!<br /> मनहर-कुछ न पूंछॊ।दिन को किसी के सामने मुझसे बोलती भी न थी, मगर मैं उसका पीछा करता रहता था।<br /> जेनी-ओ!नाटी ब्वाय! तुम बङे शरीफ हो। थी तो रूपवती?<br /> मनहर-हां उसका मुंह तुम्हारे तलवों जैसा था।<br /> जेनी-नान्सेन्स! तुम ऎसी औरत के पीछे कभी न दौङते।<br /> मनहर-उस वक्त मैं भी मूर्ख था जेनी।<br /> जेनी-ऎसी मूर्ख लङकी से तुमने विवाह क्यों किया?<br /> मनहर-विवाह न करता तो मां बाप जहर खा लेते।<br /> जेनी-वह तुम्हे प्यार कैसे करने लगी?<br /> मनहर-और करती क्या? मेरे सिवा दूसरा था ही कौन? घर से बाहर न निकलने पाति थी, मगर प्यार हममें से किसी को न था। वह मेरी आत्मा को और हृदय को सन्तुष्ट न कर सकती थी ,जेनी! मुझे उन दिनों की याद आती है, तो ऎसा मालूम होता है कि कोई भयंकर स्वप्न था। उफ! अगर वह स्त्री आज जीवित होती, तो मैं किसी अंधेरे दफ्तर में बैठा कलम घिस रहा होता। इस देश में आकर मुझे यथार्त ज्ञान हुआ कि संसार में स्त्री का क्या स्थान है, उसका क्या दायित्व है और जीवन उसके कारण कितना आनन्दप्रद हो जाता है। और जिस दिन तुम्हारे दर्शन हुये, वह तो मेरी जिन्दगी का सबसे मुबारक दिन था। याद है तुम्हे वो दिन? तुम्हारी वह सूरत मेरी आंखोंं में अब भी फिर रही है।<br /> जेनी-अब मैं चली जाऊंगी। तुम मेरी खुशामद करने लगे।<br /> ३<br /> भारत के मजदूरदल-सचिव थे लार्ड बारबर, और उनके प्राइवेट सेक्रेट्ररी थे मि.कावर्ड। लार्ड बार्बर भारत के सच्चे मित्र समझे जाते थे। जब कंजर्वेटिव और लिबरल दलों का अधिकार था, तो लार्ड बारबर भारत की बङे जोरों से वकालत करते थे। वह उन मन्त्रियों पर ऎसे ऎसे कटाक्ष करते थे कि उन बेचारों को कोई जवाब न सूझता था। एक बार वे हिन्दुस्तान आये थे और यहां कांग्रेस में शरीक हुये थे। उस समय उनकी उदार वक्तृताओं ने समस्त देश में आशा और उत्साह की एक लहर दौङा दी थी। कांग्रेस के जलसे के बाद वह जिस शहर में गये, जनता ने उनके रास्ते में आंखे बिछायीं, उनकी गाङियां खींची, उन पर फ़ूल बरसाये। चारों ओर से यही आवाज आती थी-यह है भारत का उद्वार करने वाला। लोगों को विश्वास हो गया कि भारत के सौभाग्य से अगर कभी लार्ड बारबर को अधिकार प्राप्त हुआ, तो वह दिन भारत के इतिहास में मुबारक होगा।<br /> लेकिन अधिकार पाते ही लार्ड बारबर में एक विचित्र परिवर्तन हो गया। उनके सारे स्वभाव, उनकी उदारता, न्यायपरायणत, सहातुभूति ये सभी अधिकार के भंवर में पङ गये। और अब लार्ड बारबर और उनके पूर्वाधिकार के व्यव्हार में लेशमात्र भी अन्तर न था। वह भी वही कर रहे थे जो उनके पहले के लोगों ने किया। वही दमन था, वही जातिगत अभिमान, वही कट्टरता, वही संकीर्णता। देवता अधिकार के सिंघासन पर पांव रखते ही अपना देवत्व खो बैठा था। अपने दो साल के अधिकार काल में उन्होने सैकङों ही अपसर नियुक्त किये थे; पर उनमें एक भी हिन्दुस्तानी न था। भारत्वासी निराश होकर उन्हें 'डाईहार्ड' 'धन का उपासक' और 'साम्राज्यवाद का पुजारी' कहने लगे थे। यह खुला हुआ रहस्य था कि जो कुछ करते थे मि. कावर्ड करते थे। हक यह था कि लार्ड बारबर नीयत के जितने शेर थे, जितने दिल के कमजोर। हालांकि परिणाम दोनों दिशाओम में एक सा था।<br /> यह मि. कावर्ड एक ही महापुरुष थे। उनकी उम्र चालीस से अधिक गुजर चुकी थी; पर अभी तक उन्होंने विवाह नहीं किया था। शायद उनका ख्याल था कि राजनीति के क्षेत्र में रहकर वे विवाह का आनन्द नहीं उठा सकते। वास्तव में नवीनता के मधूप थे।<br /> उन्हे नित्य नये विनोद और आकर्षण, नित्य नये विलास और उल्लास की टोह रहती थी। दूसरों के लगाये हुये बाग की सैर करके चित्त को प्रसन्न कर लेना इससे कहीं सरल था कि अपना बाग आप लगायें और उसकी रक्षा और सजवट में अपना सिर खपायें। उनको व्यापारिक और व्याव्हारिक दॄष्टि में यह लटका उससे कहीं आसान था।<br /> दोपहर का समय था। मि. कावर्ड नाश्ता करके सिगार पी रहे थे कि मिस जेनी रोज के अने की खबर हुयी। उन्होने तुरन्त आईने के सामने खङे होकर अपनी सूरत देखी,बिखरे बालों को सवांरा, बहुमूल्य इत्र मला और मुख से स्वागत की सहास छवि दर्शाते हुये कमरे से निकलकर मिस रोज से हांथ मिलाया।<br /> जेनी ने कदम रखते ही कहा-अब मैं समझ गयी कि क्यों कोई सुन्दरी तुम्हारी बात नहीं पूंछती। आप अपने वादों को पूरा करना नहीं जानते।<br /> मि. कावर्ड ने जेनी के लिये कुर्सी खींचते हुये कहा-मुझे बहुत खेद है मिस रोज कि कल मैं अपना वादा न पूरा कर सका। प्राइवेट सेक्रेट्ररी का जीवन कुत्तों के जीवन से भी हेय है। बार बार चाहता था कि दफ्तर से उठूं; पर एक न एक काल ऎसा आ जाता था कि रुक जाना पङ जाता था! मैं तुमसे क्षमा मांगता हूं। बाल में तुम्हे खूब आनन्द आया होगा?<br /> जेनी-मैं तुम्हे तलाश करती रही। जब तुम न मिले तो मेरा जी खट्टा हो गया। मैं और किसी के साथ नहीं नाची। अगर तुम्हे नहीं जाना था तो मुझे निमन्त्रण क्यों दिया था।<br /> कावर्ड ने जेनी को सिगार भॆंट करते हुये कहा-तुम मुझे लज्जित कर रही हो,जेनी! मेरे लिये इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती थी कि तुम्हारे साथ नाचता? एक पुराना बैचलर होने पर भी मैं उस सुख की कल्पना कर सकता हूं। बस यही समझ लो कि तङप-तङप कर रह जाता हूं।<br /> जेनी ने कठोर मुस्कान के साथ कहा-तुम इसी योग्य हो कि बैचलर बने रहो। यही तुम्हारी सजा है।<br /> कावर्ड ने अनुरक्त होकर उत्तर दिया-जेनी तुम बङी कठोर हो! तुम्ही क्या रमणियां सभी कठोर होती हैं। मैं कितनी ही पर्वशता दिखाऊं, तुम्हे विश्वास नहीं आयेगा। मुझे यह अरमान ही रह गया कि कोई सुन्दरी मेरे अनुराग और लगन का आदर करती।<br /> जेनी- तुममें अनुराग हो भी तो? रमणियां ऎसे बहानेबाजों को मुंह नहीं लगाती।<br /> कावर्ड-फ़िर बहानेबाज कहा। मजबूर क्यों नहीं कहती?<br /> जेनी-मैं किसी को मजबुर नहीं मानती। मेरे लिये यह हर्ष और गौरव की बात नहीं हो सकती, कि आपको जब अपने सरकारी, अर्द्व सरकारी और गैर सरकारी कामोम से अवकाश मिले तो, आप मेरा मन रखने के लिये एक क्षण के लिये अपने कोमल चरणों को कष्ट दें। इसी कारण तुम अब तक झीक रहे हो।<br /> कावर्ड ने गम्भीर भाव से कहा-तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो,जेनी! मरे अविवाहित रहने का क्या कारण है, यह कल तक मुझे खुद मालूम न था। कल आप ही आप मालूम हो गया।<br /> जेनी ने उसका परिहास करते हुये कहा-अच्छा तो यह रहस्य आपको मालुम हो गया? तब तो आप सचमुच आत्मदर्शी हैं। जरा मैं भी तो सुनूं, क्या कारण था?<br /> कावर्ड ने उत्साह के साथ कहा-अब तक कोई ऎसी सुन्दरी न मिली जो मुझे उन्मत्त कर सकती।<br /> जेनी ने कठोर परिहास के साथ कहा-मेरा ख्याल था कि दुनिया में ऎसी औरत पैदा ही नहीं हुई, जो तुम्हे उन्मत्त कर सकती। तुम उन्मत्त बनाना चाहते हो, उन्मत्त बनना नहीं चाहते।<br /> कावर्ड-तुम बङा अत्याचार करती हो जेनी!<br /> जेनी-अपने उन्माद का प्रमाण देना चाहते हो?<br /> कावर्ड-हृदय से जेनी! मैं उस अवसर की ताक में बैठा हूं।<br /> उसी दिन शाम को जेनी ने मनहर से कहा-तुम्हारे सौभाग्य पर बधाई! तुम्हे वह जगह मिल गयी।<br /> मनहर उछलकर बोला-सच! सेक्रेट्ररी से कोई बातचीत हुई थी?<br /> जेनी-सेक्रेट्ररी से कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पङी। सब कुछ कावर्ड के हांथो में है। मैंने उसी को चंग पर चढाया। लगा मुझे इश्क जताने। पचास साल की तो उम्र है, चांद के बाल झङ गये हैं, गालों पर झुर्रियां पङ गयी हैं, पर अभी तक आपको इश्क का ख्ब्त है। अप अपने को एक ही रसिया समझते हैं। उसके बूढे चोंचले बहुत ही बुरे मालूम होते थे; मगर तुम्हारे ल्ये सब कुछ सहना पङा। खैर मेहनत सफ़ल हो गयी है। कल तुम्हे परवाना मिल जायेगा। अब सफ़र की तय्यारी करनी चाहिये।<br /> मनहर ने गदगद होकर कहा-तुमने मुझ पर बङा एहसान किया है,जेनी!<br /> ४<br /> मनहर को गुप्तचर विभग में ऊंचा पद मिला। देश के राष्ट्रीय पत्रों ने उसकी तारी फ़ों के पुल बांधे, उसकी तस्वीर छापी और राष्ट्र की ओर से उसे बधाई दी। वह पहला भारटीय था, जिसे यह ऊंचा पद प्रदा किया गया था। ब्रिटिश सरकार ने सिद्व कर दिया था कि उसकी न्याय-बुधि जातीय अभिमान और द्वेश से उच्चतर है।<br /> मनहर और जेनी का विवाह इंग्लैण्ड में ही हो गया। हनीमून का महीना फ़्रान्स में गुजरा। वहां से दोनो हिन्दुस्तान आये। मनहर का दफ़्तर बम्बई में था। वहीं दोनो एक होटल में रहने लगे। मनहर को गुप्त अभियोग की खोज के लिये अक्सर दौरे करने पङते थे। कभी कश्मीर, कभी मद्रास, कभी रंगून। जेनी इन यात्राओं में बराबर उसके साथ रहती। नित्य नये दृष्य थे, नये विनोद, नये उल्लास। उसकी नवीनता प्रिय प्रकृति के लिये आनन्द का इससे अच्छा और क्या सामान हो सकता था?<br /> मनहर का रहन-सहन तो विदेशी था ही, घर वालों से भी उसका सम्बन्ध विच्छेद हो गया था। वागेश्वरी के पत्रों का उत्तर देना तो दूर रहा, वह उन्हे खोलकर पढता भी नहीं था। भारत में हमेशा उसे यह शंका बनी रहती थी कि कहीं घरवालों को उसका पता न चल जाये। जेनी से वह अपनी यथार्त स्थिति को छुपाये रखना चाहता था। उसने घरवालों को आने की सूचना तक न दी थी। यहां तक कि वह हिन्दुस्तानियों से बहुत कम मिलता था। उसके मित्र अधिकांश पुलिस और फ़ौज्के अफ़सर थे। वही उसके मेहमान होते। वाकचतुर जेनी सम्मोहनकला में सिद्वहस्त थी। पुरुषों के प्रेम से खेलना उसकी सबसे अमोदमय क्रीङा थी। जलाती थी, रिझाती थी, और मनहर भी उसकी कपट्लीला का शिकार बना रहता था। उसे वह हमेशा भूल-भुलैया मॆं रखती, कभी इतना निकट कि छाती पर सवार न कभी इतना दूर कि योजन का अन्तर-कभी निष्ठुर और कठोर, और कभी प्रेम-विह्वल और व्यग्र। एक रहस्य था, जिसे वह कभी समझता था और कभी हैरान रह जाता था।<br /> इस तरह दो वर्ष बीत गये और मनहर और जेनी कोण की दो भुजाओं की भांति एक दूसरे से दूर होते गये। मनहर इस भावना को हृदय से न निकाल सकता था कि जेनी का मेरे प्रति एक विशेष कर्तव्य है। वह चाहें उसकी संकीर्णता हो या कुल मर्यादा का असर क इवह जेनी को पाबन्द देखना चाहता था। उसकी स्वच्छन्द वृत्ति उसे लज्जास्पद मालूम होती थी। वह भूल जाता था कि जेनी से उसके सम्पर्क का आरम्भ ही स्वार्थ पर अवलम्बित था। शायद उसने समझा था कि समय के साथ जेनी को अपने कर्तव्यों का ज्ञान हो जायेगा; हालांकि उसे मालूम होना चाहिये था कि टेढी बुनियाद पर बना हुआ भवन जल्द या देर से भूमिस्थ होकर ही रहेगा। और ऊंचाई के साथ उसकी शंका और भी बढती जाती थी। इसके विपरीत जेनी का व्यवहार परिस्थिति के बिल्कुल अनुकूल था। उसने मनहर को विनोदमय तथा विलासमय जीवन का एक साधन समझा था और उसी विचार पर वह अब तक स्थित थी। इस व्यक्ति को वह मन में पति का स्थान नहीम दे सकती थी, पाषाण प्रतिमा को वह अपना देवता न बना सकती थी। पत्नी बनना उसके जीवन का स्वप्न न था, इसलिये वह मनहर के प्रति अपने किसी कर्तव्य को स्वीकार नहीम करती थी। अगर मनहर अपनी गाढी कमाई उसके चरणों पर अर्पित करता था तो कोई अहसान न करता था। मनहर उसका बनाया हुआ पुतला, उसी का लगाया हुआ वृक्ष था। उसकी छाया और उसके फ़ल का भोग करना वह अपना अधिकार समझती थी।<br /> ५<br /> मनोमालिन्य बढता गया। आखिर मनहर ने उसके साथ दावतों और जलसों पर जाना छोङ दिया; पर जेनी पूर्ववत सैर करने जाती, मित्रों से मिलती, दावते करती, और दावतों में शरीक होती। मनहर के साथ न जाने से उसे लेश्मात्र भी दुःख या निराशा नहीं होती थी; बल्कि वह शायद उसकी उदासीनता पर और प्रसन्न होती थी। मनहर इस मानसिक व्यथा को शराब के नशे में डुबोने का उध्योग करता। पीना तो उसने इंग्लैण्ड में ही शुरु कर दिया था, पर अब उसकी मात्रा बहुत बढ गयी थी। वहां स्फ़ूर्ति और आनन्द के लिये पीता था, यहां स्फ़ूर्ति और आनन्द को मिटाने के लिये। वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता था। वह जानता था कि शराब मुझे पिये जा रही है, पर उसके जीवन कयही एक अवलम्ब रह गया था।<br /> गर्मियों के दिन थे। मनहर एक मुआमले की जांच करने के लिये लखनऊ मॆं डेरा डाले हुये था। मुआमला बहुत संगीन था। उसे सेर उठाने की फ़ुरसत न मिलती थी। स्वास्थ्य भी बहुत खराब हो चला था, पर जेनी अपने सैर-सपाटे मॆम मग्न थी। आखिर उसने एक दिन कहा; मैं नैनीताल जा रही हूं। यहां की गर्मी मुझसे सही नहीं जाती।<br /> मनहर ने लाल-लाल आंखे निकालकर कहा-नैनीताल में क्या काम है?<br /> वह आज अपना अधिकार दिखाने पर तुल गया। जेनी भी उसके अधिकार की उपेक्षा करने पर तुली हुई थी। बोली- यहां कोई सोसायटी नही। सारा लखनऊ पहाङों पर चला गया है।<br /> मनह्र ने जैसे म्यान से तलवार निकाल कर कहा-जब तक मैं य्हां हूं,तुम्हें कही जाने का अधिकार नहीं है। तुम्हारी शादी मेरे साथ हुयी है, सोसायटी के साथ नहीं। फ़िर तुम साफ़ देख रही हो मैं बीमार हूं, तिस पर भी तुम अपनी विलास प्रवत्ति को रोक नहीं सकतीं। मुझे तुमसे ऎसी आशा नहीं थी,जेनी! मैं तुमको शरीफ़ समझता था। मुझे स्वप्न मॆं भी गुमान न था कि तुम मेरे साथ ऎसी बेवफ़ाई करोगी।<br /> जेनी ने अविचलित भाव से कहा-तो क्या तुम समझते थे, मैं भी तुम्हारी हिन्दुस्तानी स्त्री की तरह तुम्हारी लौण्डी बनकर रहूंगी और तुम्हारे तलवे सहलाऊंगी? मैं तुम्हे इतना नदान नहीं समझती। अगर तुम्हे हमारी अंग्रेज सभ्यता की इतनी सी बात नही मालूम, तो अब मालूम कर लो कि अंग्रेज स्त्री अपनी रुचि के सिवा और किसी की पाबन्द नहीं। तुमने मुझसे विवाह इसलिये किया था कि मेरी सहायता से तुम्हे सम्मान और पद प्राप्त हो। सभी पुरुष ऎसा करते हैं और तुमने भी वैसा ही किया। मैं इसके लिये तुम्हे बुरा नहीं कहती लिकिन जब तुम्हारा वह उद्देश्य पूरा हो गया, जिसके लिये तुमने मुझसे विवाह किया था, तो तुम मुझसे अधिक आशा कुओं रखते हो? तुम हिन्दुस्तानी हो अंग्रेज नहीं हो सकते। मैं अंग्रेज हूं हिन्दुस्तानी नहीं हो सकती; एसलिये हममें में से किसी को अधिकार नहीं है कि वह दूसरों को अपनी मर्जीका गुलाम बनाने की चेष्टा करे।<br /> मनहर हतबुद्वि सा बैठा सुनता रहा। एक एक शब्द विष की घूंट की भांति उसके कंठ के नीचे उतर रहा था। कितना कठोर सत्य था! पद लालसा के इस प्रचण्ड आवेग में, विलास तृष्णा के उस अदम्य प्रवाह में वह भूल गया था कि जीवन में कोई ऎसा तत्व भी है, जिसके सामने पद और विलास कांच के खिलौनो से अधिक मूल्य नहीं रखते। वह विस्मृत सत्य इस समय अपने दारुण विलाप से उसकी मद्मग्न चेतना को तङपाने लगा।<br /> शाम को जेनी नैनीताल चली गयी। मनहर ने उसकी ओर आंखे उठा कर भी नहीं देखा।<br /> ६<br /> तीन दिन तक मनहर घर से न निकला। जीवन के पांच छः वर्षों मॆं उसने जितने रत्न संचित किये थे, जिन पर वह गर्व करता था; जिन्हे पाकर वह अपने को धन्य समझता था, अब परीक्षा की कसौटी पर जाकर नकली सिद्व हो रहे थे। उसकी अपमानित, ग्लानित, पराजित आत्मा एकांत रोदन के सिवा और कोई त्राण न पाती थी। अपनी टूटी झोपङी को छोङकर वह जिस जिस सुनहले कलश वाले भवन की ओर लपका था, वह मरीचिका मात्र थी और उसे अब फ़िर अपनी टूटी झोपङी याद आई, जहां उसने शांतिम प्रेम और आशीर्वाद की सुधा पी थी। यह सारा आडम्बर उसे काट खाने लगा। उस सरल, शीतल स्नेह केसामने ये सारी विभूतियां उसे तुच्छ सी जंचने लगीं। तीसरे दिन वह भीषण संकल्प करके उठा और दो पत्र लिखे। एक तो अपने पद से इस्तीफाथा, और दूसरा जेनी से अंतिम विदा की सूचना। इस्तीफे मॆं उसने लिखा- मेरा स्वास्थ्य नष्ट हो गया है और मैं इस भार को नहीं सम्भाल सकता। जेनी के पत्र में उसने लिखा-हम और तुम दोनो ने भूल की है और हमें जल्द से जल्द उस भूल को सुधार लेना चाहिये। मैं तुम्हे सारे बन्धनों से मुक्त करता हूं। तुम भी मुझे मुक्त कर दो। मेरा तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अपराध न तुम्हारा है, न मेरा। समझ का फेर तुम्हे भी था और मुझे भी । मैंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है और अब तुम्हारा मुझ पर कोई अहसान नहीं रहा। मेरे पास जो कुछ है, वह तुम्हारा है, वह सब मैं छोङे जाता हूं। मैं तो निमित्त-मात्र था स्वामिनी तुम थी। उस सभ्यता को दूर से ही सलाम है, जो विनोद और विलास के सामने किसी बन्धन को स्वीकार नहीम करती।<br /> उसने खुद जाकर दोनों की रजिस्ट्री करायी और उत्तर का इंतजार किये बिना ही वहां से चलने को तैयार हो गया।<br /> ७<br /> जेनी ने जब मनहर का पत्र पाकर पढा तो मुस्कुराई। उसे मनहर की इच्छा पर शासन करने का ऎसा अभ्यास पङ गया था कि पत्र से उसे जरा भी घबराहट नहीं हुयी। उसे विश्वास था कि दो चार दिन चिकनी-चुपङी बातें करके वह उसे फिर वशीभूत कर लेगी। अगर मनहर की इच्छा केवल धमकी देनी न होती, उसके दिल पर चोट लगी होती तो वह अब तक यहां न होता। कब का यह स्थान छोङ चुका होता। उसका यहां रहना ही बता रहा है कि वह केवल बन्दर घूङकी दे रहा है।<br /> जेनी ने स्थिर चित्त होकर कपङे बदले और तब इस तरह मनहर के कमरे में आई, मानो कोई अभिनय करने स्टेज पर आई हो।<br /> मनहर उसे देखते ही ठट्ठा मार कर हंसा। जेनी सहम कर पीछे हट गयी। इस हंसी में क्रोध का प्रतिकार न था। उसमें उन्माद भरा हुआ था। मनहर के सामने मेज पर बोतल और गिलास रखा हुआ था। एक दिन में उसने न जाने कितनी शराब पी ली थी। उसकी आंखो से जैसे रक्त उबला पङता था।<br /> जेनी ने समीप आकर उसके कन्धे पर हांथ रखा और बोली-क्या रात भर पीते ही रहोगे? चलो आराम से लेटो, रात ज्यादा हो गयी है। घण्टॊ से बैठी तुम्हारा इंतजार कर रही हूं। तुम इतने निष्ठुर तो कभी नहीं थे।<br /> मनहर खोया हुआ सा बोला-तुम कब आ गयीं वागी? देखो मैं कब से तुम्हे पुकार रहा हूं। चलो आज सैर कर आयें। उसी नदी के किनारे ,तुम वही अपना प्यारा गी सुनाना, जिसे सुनकर मैं पागल हो जाता था। क्या कहती हो, मैं बेमुरव्वत हूं? यह तुम्हारा अन्याय है वागी! मैं कसम खाकर कहता हूं, ऎसा एक दिन भी नहीं गुजरा जब तुम्हारी याद ने मुझे न रुलाया हो।<br /> जेनी ने उसका कन्धा हिलाकर कहा-तुम यह क्या ऊल-जलूल बक रहे हो? वागी यहां कहां है?<br /> मनहर ने उसकी ओर देखकर अपर्चित भाव से कुछ कहा, फिर जोर से हंसकर बोला- मैं यह न मानूंगा वागी! तुम्हे मेरे साथ चलना होगा। वहां मैं तुम्हारे लिये एक फूलों की एक माला बनाऊंगा।<br /> जेनी ने समझ यह शराब बहुत पी गये हैं। बकझक कर रहे हैं। इनसे इस वक्त कुछ भी बात करना व्यर्थ है। चुपके से कमरे के बाहर चली गयी। उसे जरा सी शंका हुई थी। यहां उसका मूलोच्छेद हो गया। जिस आदमी का वाणी पर अधिकार नही, वह इच्छा पर क्या अधिकार रख सकता है?<br /> उसघङी से मनहर को घरवालो की रट लग गयी। कभी वागेश्वरी को पुकारता, कभी अम्मां को ,कभी दादाको। उसकी आत्मा अतीत में विचरती रहती, उसातीत मॆं जब जेनी ने काली छाया की भांति प्रवेश नहीं किया था और वाग्र्श्वरी अपने सरल्व्रत से उसके जीवन में प्रकाश फैलाती थी।<br /> दूसरे दिन जेनी ने उसे जाकर कहा-तुम इतनी शराब क्यों पीते हो? देखते नहीं तुम्हारी क्या दशा हो रही है?<br /> मनहर ने उसकी ओर आश्चर्य से देखा-तुम कौन हो?<br /> जेनी-तुम मुझे नहीं पहचानतेहो? इतनी जल्द भूल गये।<br /> मनहर- मैंने तुम्हे कभी नहीं देखा। मैं तुम्हे नहीं पहचानता।<br /> जेनी ने और अधिक बातचीत नहीं की। उसने मनहर के कमरे से शराब की बोतलें उठवा दीं और नौकरों को ताकीद कर दी कि उसे एक घूंट भी शराब की न दी जाय। उसे अब कुछ सन्देह होने लगा था। क्योंकि मनहर की दशा उससे कहीं शंकाजनक थी जितना वह सम्झती थी। मनहर का जीवित और स्वस्थ रहना उसके लिये आवश्यक था।इसी घोङे पर बैठकर वह शिकार खेलती थी। घोङे के बगैर शिकार का आनन्द कहां?<br /> मगर एक सप्ताह हो जाने पर भी मनहर की दशा में की अंतर न हुआ। न मित्रों को पहचान्ता, न नौकरों को। पिछ्ले तीन वर्षों का जीवन एक स्वप्न की भांति मिट गया था।<br /> सातवें दिन जेनी सिविल सर्जन को लेकर आयी तो मनहर का कहीं पता नहीं था।<br /> ८<br /> पांच साल के बाद वागेश्वरी का लुट हुआ सुहाग फ़िर चेता। मां-बाप पुत्र के वियोग में रो-रोकर अन्धे हो चुके थे। वागेश्वरी निराशा में भी आस बांधे बैठी हुयी थी। उसका मायका सम्पन्न था। बार-बार बुलावे आते, बाप आया, भाई आया, पर धैर्य और व्रत की देवी घर से न टली।<br /> जब मनहर भारत आया, तो वागेश्वरी ने सुना कि वह विलायत से एक मेम लाया है। फिर भि उसे आशा थी कि वह आयेगा, लेकिन उसकी आशा पूरी न हुयी। फिर उसने सुना वह ईसाई हो गया है। आचार-विचार त्याग दिया है। तब उसने माथा ठोंक लिया।<br /> घर की व्यवस्था दिन दिन बिगङने लगी। वर्षा बन्द हो गयी और सागर सूखने लगा। घर बिका, कुछ जमीन थी वह बिकी, फिर गहनों की बारी आई। यहं तक कि अब केवल आकाशी वृत्तिथी। कभी चूल्हा जल गया, कभी ठंडा पङा रहा।<br /> एक दिन संध्या समय वह कुऎ पर पानी भरने गयी थी के एक थका हुआ, जीर्ण, विपत्ति का मारा जैसा आदमी आकर कुऎ की जगत पर आकर बैठ गया। वागेश्वरी ने देखा तो मनहर! उसने तुरन्त घूंघट काढ लिया। आंखों पर विश्वास नहीं हुआ, फिर भी आनन्द और विस्मय की हृदय में फ़ुरेरियां उङने लगीं। रस्सी और कलसा कुऎ पर छोङकर लपकी हुयि घर आयी और सास से बोली-अम्मांजी, जरा कुऎ पर जाकर देखो कौन आया है। सास न कहा-तू पानी भरने गयी थी, या तमाशा देखने? घर में एक बूंद पानी की नहीम है। कौन आया है कुऎ पर?<br /> 'चलकर देख लो न'<br /> कोई सिपाही प्यादा होगा। अब उनके सिवा कौन अने वाला है। कोई महाजन तो नहीं है?<br /> 'नही अम्मां तुम चली क्यों नहीं चलती?'<br /> बूढी माता भांति-भांति की शंकाये करती हुयी कुऎ पर पहुंची, तो मनहर दौङकर उनके पैरों में लिपट गया। माता ने उसे छाती से लगाकर कहा-तुम्हारी यह दशा है, मानू? क्या बीमार हो? असबाब कहां है?<br /> मनहर ने कहा-पहले कुछ खाने को दो अम्मा! बहुत भूखा हूं। मैं बङी देर से पैदल चला आ रहा हूं।<br /> गांव मॆं खबर फैल गयी कि मनहर आया है। लोग उसे देखने दौङ पङे। किस ठाट से आया है? ऊंचे पद पर है। हजारों रुपये पाता है। अब उसके ठाट का क्या पूंछना! मेम भी साथ आयी है या नहीं?<br /> मगर जब आकर देखा, तो आफत का मारा आदमी, फटेहाल, कपङे तार-तार, बाल बढे हुये, जैसे जेल से आया हो।<br /> प्रश्नों की बौछार होने लगी-हमने तो सुना था तुम किसी ऊंचे पद पर हो।<br /> मनहर ने जैसे किसी भूली बात को याद करने का विफल प्रयास किया-मैं! मैं तो किसी ओहदे पर नहीं।<br /> 'वाह! विलायत से मेम नहीं लाये थे?'<br /> मनहर ने चकित होकर कहा-विलायत! कौन विलायत गया था?<br /> 'अरे भंग तो नहीं ख आये हो। विलायत नहीं गये थे?<br /> मनहर मूढों की भांति हंसा-मैं विलायत क्या करने जाता?<br /> 'अजी तुमको वजीफा मिला नहीं था? यहां से तुम विलायत गये थे। तुम्हारे पत्र बराबर आते थे। अब कहते हो मैं विलायत गया ही नहीं। होश में हो, या हम लोगों को उल्लू बना रहे हो?'<br /> मनहर ने उन लोगों की तरफ़ आंखे फाङ कर देखा और बोला-मैं तो कहीं नहीं गया था। आप लोग न जाने क्या कह रहे हैं।<br /> अब इसमें सन्देह की गुन्जाइश न रही कि वह अपने होशोहवास में नहीं है। उसे विलायत जाने के पहले की सारी बातें याद थीं।गांव और घर के एक-एक आदमी को पहचानता था; लेकिन जब इंग्लैण्ड , अंग्रेज बीवी और ऊंचे पद का जिक्र आता तो भौचक्का होकर ताकने लगता। वागेश्वरी को अब उसके प्रेम में एक अस्वाभाविक अनुराग दीखता, जो उसे बनावटी मालूम होता था। वह चाहती थई कि उसके व्यवहार और आचरण में पहले जैसी बेतकल्लुफी हो। वह प्रेम का स्वांग नहीं, प्रेम चाहती थी। दस ही पांच दिनों में उसे ज्ञात हो गया कि इस विशेष अनुराग का कारण बनावट या दिखावा नहीं है, वरन कोई मानसिक विकार है। मनहर ने मां बाप का इतना अदब पहले कभी नहीं किया था। उसे अब मोटे से मोटा काम करने में कोई संकोच नहीं था। वह, जो बाजार से साग-सब्जी लाने में अपना अनादर समझता था, अब कुऎ से पानी खींचता, लकङ्यां फाङता और घर में झाङू लगाता थाऔर अपने घर में ही नहीं, सारे मुहल्ले में उसकी सेवा और नम्रता की चर्चा होती थी।<br /> एक बार मुहल्ले में चोरी हो गयी। पुलिस ने बहुत दौङ-धूप की; पर चोरों का पता न चला। मनहर ने चोरी का पता ही नहीं लगा दिया, वरन माल भी बरामद करा दिया। इससे आस-पास के गांवो और मुहल्लों में उसका यश फैल गया। कोई चोरी होती तो लोग उसके पास दौङे आते और अधिकांश उध्योग उसके सफल भी होते। इस तरह उसकी जीविका की एक व्यवस्था हो गयी। वह अब वगेश्वरी के इशारों का गुलाम था। उसी की दिल्जोई और सेवा में उसके दिन कटते। अगर उसमें विकार या बीमारी का कोई लक्षण था तो ,तो वह इतना ही। यही सनक उसे सवार हो गयी थी।<br /> वागेश्वरी को उसकी दशा पर दुःख होता; पर उसकी यह बीमारी उस स्वास्थय से उसे कहीम प्रिय थी, जब वह उसकी बात भी न पूंछता था।<br /> ९<br /> छः महीनों के बाद एक दिन जेनी मनहर का पता लगाती हुयी आ पहुंची। हांथ में जो कुछ था, वह सब उङा चुकने के बाद अब उसे किसी आश्रय की खोज थी। उसके चाहने वालों में कोई ऎसा न था, जो उसकी आर्थिक सहायता करता। शायद अब जेनी को कुछ ग्लानि भी होती थी। वह अपने किये पर लज्जित थी।<br /> द्वार पर हार्न की आवाज सुनकर मनहर बाहर निकला और इस प्रकार जेनी को देखने लगा मानो कभी देखा ही नहीं हो।<br /> जेनी ने मोटर से उतरकर उससे हांथ मिलाया और अपनी आप-बिती सुनाने लगी-तुम इस तरह छिपकर मुझसे क्यों चले आये? और फिर आकर एक पत्र भी नहीं लिखा। आक्खिर मैंने तुम्हारे साथ क्या बुराई की थी। फिर मुझमें कोई बुराई देखी थी, तो तुम्हे था कि मुझे सावधान कर देते। छिपकर चले आने का क्या फायदा हुआ। ऎसी अच्छी जगह मिल गयी थी वोभी हांथ से निकल गयी।<br /> मनहर काठ के उल्लू की भांति खङा रहा।<br /> जेनी ने फिर कहा-तुम्हारे चले आने के बाद मेरे ऊपर जो संकट आये, वह सुनाऊं तो तुम घबरा जओगे। मैं इसी चिन्ता और दुःख से बीमार हो गयी। तुम्हारे बगैर मेरा जीवन निरर्थक हो गया। तुम्हारा चित्र देखकर मन को ढांढस देती थी। तुम्हारे पत्रों को आदि से अन्त तक पढना मेरे लिये सबसे मनोरंजक विषय था। तुम मेरे साथ चलो मैंने एक डाक्टर से बात की है, वह मस्तिष्क के विकारों का डाक्टर है।मुझ आशा है उसके उपचार से तुम्हे लाभ होगा।<br /> मनहर चुपचाप विरक्त बव से खङा रहा, मानो न वह कूछ देख रहा है, न सुन रहा है।<br /> सहसा वगेश्वरी निकल आयी। जेनी को देखते ही वह ताङ गयी कि यही मेरी यूरोपियन सौत है। वह उसे बङे आदर-सत्कार के साथ भीतर ले आयी। मनहर भी उनके पीछे-पीछे चला आया।<br /> जेनी ने टूटी खाट पर बैठत हुये कहा। इन्होने मेरा जिक्र तो कियाही होगा। मेरी इनसे लंदन में शादी हुयी है।<br /> वागेश्वरी बोली-यह तो मैं आपको देखते ही समझ गयी थी।<br /> जेनी-इन्होने कभी मेरा जिक्र नहीं किया?<br /> वागेश्वरी-कभी नहीं। इन्हें तो कुछ याद नहीं। आपको यहां आने में बङा कष्ट हुआ होगा?<br /> जेनी-महीनों के बाद तब इनके घर का पता चला। वहां से बिना कुछ कहे सुने चल दिये।<br /> 'आपको कुछ मालूम है, इन्हे क्या शिकायत है?'<br /> 'शराब बहुत पीने लगे थे। आपने किसी डाक्टर को नहीं दिखाया?'<br /> हमने तो किसी को नहीं दिखया।'<br /> जेनी ने तिरस्कार से कहा-क्यों? क्या आप उन्हे हमेशा बीमार रखना चाहती हैं?<br /> वागेश्वरी ने बेपरवाही से कहा-मेरे लिये तो इनका बीमार रहना इनके स्वस्थ रहने से कहीं अच्छा है। तब वह अपनी आत्मा को भुले हुए थे अब उसे पा गये।<br /> फिर उसने निर्दय कटाक्ष करके कहा-मेरे विचार में तो वह तब बीमार थे, अब उसे पा गये।<br /> जेनी ने चिढकर कहा-नान्सेंस! इनकी किसी विशेषज्ञ से चिकित्सा करानी होगी। यह जासूसू में बङे कुशल हैं। इनके सभी अफ़सर इनसे प्रसन्न थे। वह चाहें तो अब भी वह जगह उन्हें मिल सकती है। अपने विभाग मॆं ऊंचे से ऊंचेपद तक पहुंच सकते हैं। मुझे विश्वास है कि इनका रोग असाध्य नहीं है; हां, विचित्र अवश्य है। आप क्या इनकी बहन हैं?<br /> वागेश्वरी ने मुस्कुराकर कहा-आप तो गाली दे रहीं हैं। यह मेरे स्वामी हैं।<br /> जेनी पर मानो वज्रपात हुआ। उसके मुख पर से नम्रता का आवरण हट गया और मन में छुपा हुआ क्रोध जैसे दांत पीसने लगा।<br /> उसकी गर्दन की नसें तन गयीं, दोनों मुट्ठियां बंध गयीं। उन्मत्त होकर बोली-बङा दगाबाज आदमी है। इसने मुझसे बङा धोका किया। मुझसे इसने कहा कि मेरी स्त्री मर गयी है। कितना बङा धूर्त है! यह पागल नहीं है। इसने पागलपन का स्वांग भरा है। मैं अदालत से इसकी सजा कराऊंगी।<br /> क्रोधावेश के कारण वह कांप उठी। फिर रोते हुये बोली-इस दगाबाजी का मैं इसे मजा चखाऊंगी। ओह! इसने मेरा कितना घोर अपमान किया है। ऎसा विश्वास घात करने वाले को जओ दण्ड दिया जाय वह थोङा है। इसने कैसी मीठी-मीठी बातें करके मुझे फ़ांसा। मैने ही इसे जगह दिलायी, मेरे ही प्रयत्नों से यह बङा आदमी बना। इसके लिये मैने अपना घर छोङा, अपना देश छोङा और इसने मेरे साथ ऎसा कपट किया।<br /> जेनी सिर पर हांथ रखकर बैठ गयी। फिर तैश में उठी और मनहर के पास जाकर उसको अपनी ओर खींचती हुयी बोली-मैं तुम्हे खराब करके छोङूंगी। तूने मुझे समझा क्या है_<br /> मनहर इस तरह शान्त भाव से खङा र्हा, मानो उससे उसे कोई प्रयोजन ही नहीं है।<br /> फिर वह सिंहनी की भांति मनहर पर टूट पङी और उसे जमीन पर गिराकर उसकी छाती पर चढ बैठी। वागेश्वरी ने उसका हांथ पकङकर अलग कर दिया।और बोली-तुम ऎसी डायन न होती, तो उनकी यह दशा क्यों होती?<br /> जेनी ने तैश में आकर जेब से पिस्तौल निकाली और वागेश्वरी की तरफ़ बढी। सहसा मनहर तङपकर उठा, उसके हांथ से भरा हुआ पिस्तौल छीनकर फ़ेंक दिया और वागेश्वरी के सामने खङा हो गया। फिर ऎसा मुंह बना लिया मानो कुछ हुआ ही नही हो।<br /> उसी वक्त मनहर की माताजी दोपहरी की नींद सोकर उठीं और जेनी को देखकर वागेश्वरी की ओर प्रश्न भरी आंखो से ताका।<br /> वागेश्वरी ने उपहास भाव से कहा-यह आपकी बहू है।<br /> बुढिया ठिनककर बोली-कैसी मेरी बहू? यह मेरी बहू बनने जोग है बंदरिया?<br /> लङके पर न जाने क्या कर करा दिया, अब छाती पर मूंग दलने आयी है?<br /> जेनी एक क्षण तक मनहर को खून भरी आंखो से देखती रही। फिर बिजली की भांति कौधकर उसने आंगन में पङा पिस्तौल उठा लिया और वागेश्वरी पर छोङना ही चाहती थी कि मनहर सामने आ गया। वह बेधङक जेनी के सामने चला गया। उसके हांथ से पिस्तौल छीन लिया और अपनी छाती में गोली मार ली।<br /><a href="http://shabdokiunjali.blogspot.com/2009/11/blog-post_30.html"></a>Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-39418245430849497892009-11-30T21:11:00.001-08:002009-11-30T21:15:48.351-08:00प्रेमचंद<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3_80Z8skRuGur-U6QgcxL0B4vMxD0vJJgc8W1A50urxqQb4fEc3Oo7RS9hor4187bAMmcegnM297Z31Fn-HxWJgmnCSMOXFjwB6bAwfsW841iiuH1o_8It3F2gwlYzmYleN8ZO4sGxt4/s1600/PREM.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 250px; height: 308px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3_80Z8skRuGur-U6QgcxL0B4vMxD0vJJgc8W1A50urxqQb4fEc3Oo7RS9hor4187bAMmcegnM297Z31Fn-HxWJgmnCSMOXFjwB6bAwfsW841iiuH1o_8It3F2gwlYzmYleN8ZO4sGxt4/s320/PREM.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5410131496814511218" /></a><br /><br /> आधुनिक हिन्दी और उर्दू कथा साहित्य के पथ प्रदर्शक, मुंशी प्रेमचन्द का असली नाम धनपत राय था। उनका जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणासी के निकट एक गांव लमही में हुआ था।उनके पिता मुंशी अजायबलाल डाक घर में अत्यन्त मामूली वेतन पाने वाले एक कर्मचारी थे। आठ वर्ष की अल्पायु में ही उन्होने अपनी माँ को खो दिया। उनकी दादी ने उनकी देखभाल करने की जिम्मेदारी ली प्रन्तु वे भी शीघ्र ही इस दुनिया को छोङकर चली गयीं।<br /> उनकी प्राम्भिक शिक्षा एक मदरसे में मौलवी द्वारा हुयी जहां उन्होने उर्दू का अधययन किया। उनका विवाह १५ वर्ष की अल्पायु में, जब वे ९वीं कक्षा मॆं पढ रहे थे, हो गया; परन्तु यह विवाह चल नहीं सका और बाद में उन्होंने दोबारा एक बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया।<br /> बाद में उनके पिता की भी मृत्यु हो गयी और १८९८ में इण्टरमीडीयेट के बाद उन्हे अपनी पढायी छोङनी पङी। वे एक प्राईमरी स्कूल मे अध्यापन का कार्य करने लगे और कई पदोन्नतियों के बाद वे ड्प्युटी इंस्पैक्टर आफ़ स्कूल बन गये। १९१९ में उन्होने अंग्रेजी, पर्षियन,और इतिहास विषयों से स्नातक किया। महात्मा गांधी के 'असहयोग आन्दोलन' में योगदान देते हुये उन्होने अंग्रेजी सरकार की नौकरी को त्याग दिया। उसके बाद उन्होने अपना सारा ध्यान अपने लेखन की ओर लगा दिया। उनकी पहली कहानी कानपुर से प्रकाशित एक पत्रिका 'ज़माना' में प्रकाशित हुयी। उन्होने अपनी प्रारम्भिक लघुकथाओं में उस समय की देश्भक्ति की भावना का चित्रण किया है। 'सोज़-ए-वतन' नाम से उनका देशभक्ति की कहानियों का पहला संग्रह १९०७ में प्रकाशित हुआ,जिसने ब्रिटिश सरकार का ध्यान १९१४ में आकृष्ट किया।<br /> जब प्रेमचन्द ने हिन्दी में लिखना शुरु किया तो उस समय तक उनकी पहचान उर्दू कहानी कार के रूप में बन चुकी थी।<br /> उन्होने अपने उपन्यास और कहानियों में जीवन की वास्तविकताओं को प्रस्तुत किया है और भारतीय गांवो को अपने लेखन का प्रमुख केन्द्रबिन्दु रखा है।उनके उपन्यासों में निम्न-मध्यम वर्ग की समस्याओं और गांवो क चित्रण है। उन्होने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर भी बल दिया।<br /> प्रेमचन्द को उर्दू लघुकथाओं का जनक कहा जाता है। लघु कथायें या 'अफ़साने' प्रेम्चन्द द्वारा ही शुरु किये गये। उनके उपन्यासों की तरह उनके अफ़साने भी समाज का आईना थे।<br /> प्रेमचन्द पहले हिन्दी लेखक थे जिन्होने अपने लेखन में वास्तविकता का परिचय दिया। उन्होने कहानी को एक सामाजिक उद्देश्य से पथ-प्रदर्षित किया। उन्होने गांधी जी के कार्य में सहयोग देते हुये उनके राजनीति क और सामाजिक आदर्शों को अपनी लेखनी का आधार बनाया।<br /> एक महान उपन्यास कार होने के साथ-साथ प्रेमचन्द एक समाज सुधारक और विचारक भी थे। उनके लेखन का उद्देश्य सिर्फ़ मनोरंजन कराना ही नहीं बल्कि सामाजिक कुरीतियों की ओर ध्यान आकृष्ट कराना है। वे सामाजिक क्रान्ति में विश्वास करते थे और उनका विचार था कि सभी को सुअवसर प्राप्त हो। उनकी मृत्यु १९३६ में हो गयी और तब से वो भारत ही नहीं अपितु अन्य देशों में भी उनका अध्ययन सदी के एक महान साहित्यकार के रूप में होता है।<br /> उनकी प्रमुख रचनायें:-<br /> उनके प्रमुख उपन्यास हैं-प्रेमा,वरदान, सेवासदन, प्रेमाश्रमा, प्रतिज्ञान, निर्मला, गबन, रंगभूमि, कायाकल्प, कर्मभूमि, गोदान, और एक अपूर्ण उपन्यास मंगलसूत्र।<br /> उन्होने बहुत सी यादगार लघुकथाऎ लिखी। उनके प्रमुख अफ़सानों में कातिल की मा, जेवर का डिब्बा, गिल्ली डण्डा, ईदगाह, नमक का दरोगा, और कफ़न हैं। उनकी कहानियों के संग्रह प्रेम पचीसी, प्रेम बत्तीसी, वारदात, और ज़ाद-ए-राह के नाम से प्रकाशित हुये।Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-79354532790126707132009-11-25T04:51:00.000-08:002009-11-25T04:56:23.946-08:00शेरनियों का सेवा सप्ताहशहर के बीचों बीच एक स्कूल की खण्डहरनुमा खपरैल वाली इमारत. स्कूल के भीतर बच्चे जमीन पर बैठ्कर रट्टा लगा रहे थे. कमरों की बिना पल्लों वाली खिड्की पर चढ्कर कुछ शरारती बच्चे उत्सुकता वश बाहर झांक रहे थे. क्लास में अध्यापक नहीं था. शायद पूरे विध्यालय में एक या दो अध्यापिकयें ही बच्चों को पढाने के लिये रखी गयीं थीं. इनमें से किसी के पास क्लास में जाने की फ़ुर्सत नहीं थी. वो शट्लकाक की तरह इधर उधर भाग रहीं थीं. उनके हावभाव से ऐसा लग रहा था जैसे बैठे बिठाये आफ़त आ गयी हो.<br /> बच्चों को कपडों और स्कूल की इमारत को देखकर लगता था कि यही असली भारतीय स्कूल हॊ और यहां शुध भारतीय नागरिकों की सन्तानें भारतीय माहौल में पढ्ती हैं. मल्टीनेशनल्स के प्रदूषण से बिल्कुल मुक्त.<br /> टूटे-फूटे, बिना प्लास्टर की दीवार पर एक खूबसूरत बैनर टंगा था. बैनर पर लिखा था, 'सेवा सप्ताह....प्रायोजक : शेरनियां'. जो इन सेविकओं के बारे में पहले से न जानते रहे हों, वे बैनर पढ्कर डर भी सकते हैं. जब शेरनियां करेंगी सेवा तो शहर में बचेगा कौन? लेकिन हकीकत यह थी कि लायंस क्लब की तमाम महिलायें स्वयं को शेरनियां कहे जाने से पुलकित हो जाती हैं और गौरवान्वित मह्सूस करती हैं.<br /> बैनर के नीचे रंग बिरंगे ईस्ट्मैन कलर वाली साडियां पहने बेडौल जिस्म की तीन-चार महिलायें भारी-भारी पर्स लट्काये खडी हैं. बेचैन सी.<br /> कैमरा बैनर का क्लोज अप लेकर जूम बैक होता है...कट.... एक महिला की कलाई घडी का क्लोज अप. साढे दस बजे हैं,कट..<br /> मिसेज कत्याल: उफ! साढे दस बज गये हैं. गर्मी के मारे बुरा हाल है.<br /><br /> एक पंखा तक नहीं है इस स्कूल में .... न जाने कब आयेंगे ज़ोनल चेयरमैन तब तक इस धूप में सारा मेक अप ही बह जायेगा. घंटा भर की मेहनत दस मिनट में बर्बाद हो जायेगी.<br /> मिसेज शर्मा: मेक अप ही नहीं चेहरे का रंग ही बदल जायेगा...(हंसती है) घर लौटेंगी तो मिस्टर कात्याल घर में घुसने नहीं देंगे. कहेंगे पता नहीं कौन आ गयी मेरी बीवी बनकर.....(फ़िर तेज हंसी)....<br /><br /> मिसेज कात्याल: अपको तो मजाक सूझ रह है. लौट्कर जाइयेगा तो आपना भी चेहरा देखियेगा आईने में.....कहेंगी ओ गौड! ऎसी भूतनी लग रही थी मैं...अगली बार से तौबा कर लेंगी इस सर्विस वीक से...<br /><br /> मिसेज गुप्ता: यार यह तो पहला एक्सपीयरेन्स है. पहले तो मैं बहुत एक्साइटेड फ़ील कर रही थी कि स्कूल में जायेंगे, बच्चों के मुस्कुराते हुये चेहरे होंगे. उन्हें टाफ़ियां दूंगी, केले दूंगी.....पप्पी भी ले लूंगी....छिह! अब तो उबकाई आती है. कैसे गन्दे बच्चे हैं, कैसा स्कूल है .टीचर को देखा है....बूढी सी मरियल सी.....गंदी धोती पहन रखी है..स्लीपर डाल रखा है पैरों में.....यह क्या पढाती होगी बच्चों को? मैं तो महरी न रखूं इसे अपने यहां.....मेरे वो कहते हैं महरी को देखकर घर का स्टेटस पता चलता है ऎसे गन्दे कपडों में खाना दें तो बच्चे भी फ़ेंक दें.....छिह<br /> मिसेज शर्मा: भई, हिन्दी स्कूल है. हिन्दुस्तानी पढते हैं. कोई कान्वेंट तो है नहीं.<br /> मिसेज गुप्ता: तो क्या हम हिन्दुस्तानी नहीं हैं? हम भी तो कयदे से रहते हैं.......<br /><br /> मिसेज शर्मा: आप लोग बेकार की बहस में पडीं हैं. जरा सोंचिये तो कि अगर यह स्कूल कायदे का होता तो हम यहां सेवा करने क्यों आते? सोंचने वाली बात है न...... हैड क्वार्टर से मैसेज आया है कि आपने एरिया के किसी गन्दे स्कूल को सेलेक्ट कर लें और वहां जाकर सर्विस करें. पूरे वीक में करीब दो दर्जन स्कूल में सेवा की जानी है. इसकी रिपोर्ट भी छ्पेगी अपनी मैगजीन में फ़ोटो के साथ. अच्छी सेवा करने वाले डिस्ट्रिक को प्राइज भी मिलेगा.<br /> मिसेज कात्याल: अरे मिसेज सरोज आप कैमरा तो लाईं हैं न? जब जोनल चेयरमैन आयेंगे तो पांच छ: फ़ोटो खींच लीजियेगा.....एक दो ठो तो ठीक आ ही जायेंगी. और देखिये मैं प्रेसीडेण्ट हूं, जब बच्चों को केले दूंगी तो मुझे सेंटर में रखियेगा.....और खींचने से पहले बोल दीजियेगा...... ऎसा न हो कि चेहरे से पसीना बहता नजर आये फ़ोटो में.<br /> मिसेज सरोज: मैं तो एक दो फ़ोटो से ज्यादा नहीं खीचूंगी....बडी महंगी आती है फ़िल्म. कौन देगा पैसे?<br /> मिसेज गुप्ता: अरे दो चार फ़ोटो भी सर्विस वीक में डोनेट नहीं कर सकतीं? मैं छ दर्जन केले लेकर आयी हूं और मिसेज शर्मा दो सौ टफ़ियां लेकर आयी हैं.<br /><br /> मिसेज सरोज: दो फ़ोटो की बात नहीं है. जब तक पूरा रोल खत्म नहीं होगा, रील निकलेगी नहीं....फ़ोटो खींचना बेकार है.<br /> मिसेज कत्याल: आप लोग फ़िर बेवक्त की शहनाई बजाने लगीं. यहां गर्मी के मारे मेरी जान निकली जा रही है, लगता है मैं बेहोश हो जाऊंगी....मिसेज सरोज मेरी एक फ़ोटो सर्विस करते हुए होगी और दूसरी फ़ोटो जब मैं घण्टा प्रेज़ेण्ट करूंगी तब की...... बस.<br /><br /> मिसेज गुप्ता: घंटा तो दूसरे स्कूल में देना है.....?<br /> मिसेज कात्याल: अब मैं दूसरे स्कूल में नहीं जा पाऊंगी. यहीं पर इतनी देर हो गयी है. मेरे हस्बैंड को हाई टैम्प्रेचर है, परेशान हो रहे होंगे...ऎसा करते हैं कि घंटा प्रेज़ेण्ट करते समय फ़ोटो यहां पर ले ली जायेगी और बाद में घंटा दूसरे स्कूल में दे दिया जायेगा. फ़ोटो भी जल्दी भेजनी है न वर्ना मैगज़ीन छ्प जायेगी और फ़ोटो धरी रह जायेगी. हमारे डिस्ट्रिक का सर्विस वीक में नाम नहीं हो पायेगा.....<br /> मिसेज सरोज: अगर घंटा लेने के बाद टीचर ने वापस नहीं किया तो.....?<br /><br /> मिसेज कत्याल: ठीक कह रहीं हैं आप......अभी समझा देते हैं टीचर को...<br /><br /> एक बूढी टीचर को बुलाकर समझाया जाता है कि घंटा प्रेज़ेण्ट करते समय फ़ोटो खिंचेगी और फ़ोटो खींचने के बाद घंटा तुरन्त वापस कर देना है. मिसेज गुप्ता फ़ुसफ़ुसाती हैं मिसेज सरोज से, 'देखो, ३५ रुपये का घंटा है और ६५ रुपये दिखाकर चार्ज कर लेंगी. मैंने तो छ दर्जन केलेओ खरीदे हैं अपनी जेब से....'<br /> तभी शोर उठता है कि जोनल चेयरमैन आ गये. एक लम्बी सी गाडी से जोनल चेयरमैन उतरते हैं. एक मिनट के भीतर ही सभी शेरनिअयां पर्स से आईना, लिपिस्ट्क, कंघी निकलकर मेक अप में व्यस्त हो जाती हैं. जब तक जोनल चेयरमैन कार से उतर कर स्कूल के भीतर प्रवेश करते हैं. तब तक शेरनिअयों के चेहरे की डेंटिग पेंटिग का काम युधस्तर पर पूरा हो जाता है.<br /> जोनल चेयरमैन को शेरनिअयां घेर लेती हैं. उनके सामने बूढी आध्यापिका को घंटा भेंट किया जाता है. फ़ोटो खिंचती है. एक शेरनी आगे बढ्कर अध्यापिका से घंटा वापस ले लेती है. केले बंट्ना शुरु होते हैं. टफ़ियां भी बंट्ने लगती हैं. बच्चों की संख्या केलोंं से ज्यादा है. केले कम पड जाते हैं. मिसेज कत्याल सुझाव देती हैं कि जिन बच्चों को केले नहीं मिले हैं उन्हें दो दो टाफ़ियां और दे दी जायें. लेकिन मिसेज शर्मा टाफ़ियां देने से इन्कार कर देती हैं. बच्चों के चेहरे उतर जाते हैं और जिन बच्चों को केले मिले हैं वो जल्दी जल्दी खाने लगते हैं तकि कोई उनका केला छीन न ले.<br /><br /> टाफ़ी और केले के वितरण के बाद जोनल चेयरमैन सर्विस वीक के महत्व पर आठ दस लाइन का भषण देते हैं. मिसेज सरोज फ़ोटो खींचने में लगी हैं. शेरनियां कनखियों से कैमरे के लेन्स का एंगिल देख देख कर अपने होंठो को लाल करती नज़र आती हैं.<br /> भषण खत्म होता है. जोनल चेयरमैन चले जाते हैं. उनके जाते ही शेरनियां इस तरह भगती हैं जैसे घण्टा बजने पर बच्चे भागते हैं. आचानक एक शेरनी उल्टे पैर वापस लौट्ती है और दीवार पर टंगा बैनर खींच लेती है..... कट!<br /><br /><a href="http://shabdokiunjali.blogspot.com/2009/11/blog-post.html">--स्नेह मधुर</a>Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-23931985179099297802009-11-18T21:58:00.000-08:002009-11-18T22:03:40.709-08:00यह आदमीयह आदमी<br />सुधा इस अदमी से अब बुरी तरह तंग आ चुकी है। 'इस आदमी' से अर्थात अपने पति शिवनाथ से। पुराने संस्कारों के कारण वह अपने पति को नाम लेकर तो संबोधित नहीं कर सकती है, किन्तु प्रचलित परंपरा के अनुसार अपने बच्चों के नाम लेकर 'शेखर के डैडी' या 'सरो के बाबू' कहकर भी उसे अपने पति को सम्बोधित करना अच्छा नहीं लगता। पता नहीं क्योंइस तरह के सम्बोधनों से उसे ढलती उम्र या बुढापे के अरुआये-बसियाये दाम्पत्य की बू आती है। इसलिये शिवनाथ के लिये वह हमेशा 'इस आदमी' या 'यह आदमी' जैसे सर्वनामों का ही प्रयोग करती है।<br />शादी के बाद कुछ दिनों तक यह आदमी उसे थोङा अटपटा सा....कुछ-कुछ खक्की किस्म का जरूर लगा था, लिकिन वैसा कुछ नहीं जिसको लेकर चिन्तित हुआ जाये या इसके बारे में कुछ अन्यथा सोंचा जाय। बात बेबात खिजते कुढते रहना या छोटी-छोटी बातों पर भी उत्तेजित होकर देर तक बङबङाते- भूनभुनाते रहने जैसी इसकी हरक्तों को सुधा इस आदमी का स्वभाव ही मानकर अपने मन को तसल्ली दे दिया करती थी।<br />उसे विश्वास था कि उसके अनुभवी पिता अपनी बेटी की शादी किसी सिरफिरे पगलेट से नहीं कर सकते। इस आदमी के बारे में पूरी तरह जांच-पङताल करके और देखसुनक्र ही उन्होंने उसका रिशा तय किया था।<br />उसके पिता ने इस आदमी को दो साल तक हाई स्कूल में पढाया भी था और इसके पिता से भी उनकी पुरानी जान-पहचान थी। ऎसी स्थिति में धोखा खाने जैसी किसी बात की सम्भावना नहीं की जा सकती थी। रिश्ता तय करके जब पिता जी घर लौटे थे तो इस आदमी की तारीफ करते नहीं अघाते थे। जो कोई भी लङके और उसके घ र परिवार के बारे मेंउनसे पूंछता,वे एक ही बात पर जोर देकर सबसे कहते, "देखो भई, हमने धन-दौलत, कोठा अभारी नहीं देखी है, बस केवल लङका देखा है जो लाखों मॆं एक है। वैसा सज्जन, सच्चरित्र और मेधावी लङका आज के युग में विरले ही मिलता है। 'सिंपल लिविंग और हाई थिंकिग वाला लङका है। सरकारी नौकरी में भी लगा है। वैसे घर पर साधारण खेती-बाङी भी है। उसके पिता मिडिल स्कूल के प्राधानाध्यापक के पद से पिछले साल ही सेवानिवृत्त हुये हैं। पुरानी जान-पहचान और दोस्ती थी, इसलिये यह काम इतनी आसानी से बन गया, अन्यथा आज के जमाने में सरकाई नौकई में लगे लङकों की कीमत कितनी बढ गई है, आप सब लोग जानते ही हैं। मेरी सुधा बिटिया बङी किस्मतवाली है कि ऎसा लङका इतनी आसानी से मिल गया।"<br />इसलिये सुधा आश्वस्त थी कि यह आदमी दूसरे लोगों से थोङा भिन्न जरूर है, लिकिन पागल वागल तो कतई नहीं है। वैसे भी इस आदमी में सुधा को कुछ खास खराबी नहीं दिखाई देती है। पढा-लिखा है, व्यक्तित्व भी आकर्षक है, जुआ शराब, औरतबाजी या इस तरह की कोई बुरी लत भी नहीं है। और सबसे बङी बात जो यह कि शादी के पहले से ही अच्छी सरकारी नौकरी में लगा है। लोकनिर्माण विभाग में जूनियर इंजीनियर की नौकरी कोई ऎसी वैसी साधारण नौकरी तो नहीम है! इसी नौकरी में रहकर कितने लोगों ने लाखों-लाख कमाये हैं, जमीन मकान खङे कर लिये हैं....क्या-क्या न कर लिया है! अब कोई कुछ करना ही न चाहे तो इसमें पद और विभाग का क्या दोष?<br />सुधा जनती है कि उस जैसी एक साधारण शिक्षक की हाईस्कूल पास बेटी को इससे बढिया दूल्हा मिल भी कैसे सकता था! अपनी शिक्षा, रूप-गुण और परिवार की स्थिति की सीमाओं को देखते हुये उसने अपने पति के रूप में किसी आई.ए.एस-आई.पी.एस य बङे घराने के किसी राजकुमार का सपना भी नहीं देखा था। इसलिये शादी के स्मय शिवनाथ जैसा सुन्दर, स्वस्थ, वरित्र्वान और कमाऊ पति पाकर उसने अपने भाग्य को सराहा भी था।<br />लेकिन तब उसे कहां मालूम था कि यह आदमी ऎसा भी होगा। वेश-भूषा, रहन-सहन और बात-व्यवहार में इतना सीधा-सरल....एकदम सिधुआ सा, किंतु भीतर-भीतर तितलौकी सा कङवा....कच्चे कोयले की अंगीठी सा अंदर ही अंदर धुंआते-सुलगते रहने वाला. तेज आंच में पक रही बेसन की कढी सा भीतर ही भीतर खदबदाते, खौलते रहने वाला.....<br />कभी कभी तो वह इस आदमी की हरकतों से इतनी खीज और झल्ला उठती है कि अपने सिर पर दोहत्ती मार-मारकर अपने करम को कोसने लगती है। उसकी समझ में नहीं आता कि यह आदमी सारी दुनिया से खार खाये क्यूं बैठा रहता है! हर बात और हर आदमी से इसे शिकायत ही शिकायत क्यों र्हती है? क्या अपने देश में, अपने समाज में, आफिसों में, सरकार में कहीं भी कुछ अच्छा नही हो रहा है? क्या कहीं कुछ भी नहीं ऎसा जो इस आदमी को अच्छा लगे? जिसकी यह तारीफ कर सके?<br /><br />सब लोग जनते हैं कि सरकार गरीबों की भलाई के लिये तरह-तरह की योजनायें चला रही है। लाखों लोगो को गरीबी की रेखा से ऊपर उठा दिया गया है, बेघर-बार लोगों के लिये घर बनाकर दिये जा रहे हैं। ये सारी बातें तो रोज-रोज अखबारों में भी छपती हैं रेडियो में भी सुनायी जाती हैं। क्या रेडियो और अखबार झूठ बोलते हैं? लेकिन यह आदमी मानता ही नहीं है। जब भी अखबार मॆं ऎसी कोई खबर छपती है, या रेडियो में सुनाई जाती है, इस आदमी पर बकने-बोलने के दौरे पङने लगते हैं। रेडियो और अखबार वालों को गाली देने लगता है, "साले सब के सब सरकार के दलाल बन गये हैं....पैसों पर बिक गये हैं। ये लोग देश और जनता के गद्दार हैं। झूठ बोलकर लोगों को फुसलाते -बरगलाते हैं। कहां गरीबी मिटी है? किसकी गरीबी मिटी है? लोग तो पहले से भी अधिक गरीब होते जा रहे हैं...."<br /><br />बकता जायेगा...बकता रहेगा यह आदमी बिना सांस लिए। चाहें कोई सुने या नहीं, इसका भाषण जारी रहेगा। हर समय खीजे-कुढे रहना, चिङचिङाये-पिनपिनाये रहना, बङबङाते-मिनमिनाते रहना-भला यह भी कोई ढंग है! हमेशा थोबङा लटकाये रहेगा, जैसे दुनिया जहान की सारी विपत्ति इसी के सर आ पङी है। क्या तुम्हारे कुढने बङबङाने और थोबङा लटकाये रहने से कहीं कुछ बदल जायेगा? क्या देश-दुनिया से अत्याचार, अन्याय शोषण-उत्पीङन, गुंडागर्दी और रिश्वतखोरी तुम्हारे कुढने-बङबङाने से मिट जायेगी? क्क्या तुम्हारे कहने से सरकार पूंजीपतियों-उद्योगपतियों से धन छीनकर गरीबों में बांट देगी? क्या मंत्री और नेता लोग अपने सजे -सजाये विशाल बंगलों और फ्लैटों में झोपङपट्टी और फुटपाथ वालों को बुलाकर बैठा लेंगे? अगर कभी इसकी ऎसी आलतू-फाल्तू बातें सुनते-सुनते मन ऊब जाता है और कुछ बोल देती हुं, तो इसे जैसे मिर्ची लग जाती है और अधिक बौखला कर बोलने लगता है। कहता है, "जब ये बेईमान दगाबाज लोग खुद अपनी बातों पर अमल नहीं करते, तो मंच पर खङे होकर जनता के सामने ऎसा भाषण देते ही क्यों हैं? चुनाव के समय झूठे वायदे क्यों करते हैं?"<br /><br />अब भला इस सिरफिरे आदमी को कौन समझाये कि मंच से भाषण देना तथा चुनाव के समय लम्बी लम्बी बातें करना दीगर बात है औ उस पर अमल करना दीगर बात। लाखों रुपये जो चुनाव में फूंकेगा, वह किसी न किसी तरह अपने रुपए निकालेगा कि नहीं? फिर उसे आगे भी तो चुनाव लङना है। कमायेगा नहीं तो अगले चुनाव में खर्च कहां से करेगा?<br />माना कि हर विभाग और महकमे में कुछ न कुछ गङबङी है। हर आफिस में भ्रष्टाचार है। काम ठीक ढंग से नहीं होता है। घूस-रिश्वत का बाजार है, गलत ढंग के लोगों का बोलबाला बढ गया है। लेकिन क्या तुम यह सब रोक सकते हो? क्या तुम्हारे पास इसे रोकने-बदलने की कुव्वत है? जब तुम्हारे किये कुछ होने वाला नहीं तो कुढ-खीजकर अपनी सेहत खराब करने का क्या फायदा? पहाङ से सिर टकराओगे तो तुम्हारा ही सिर फूटेगा, पहाङ का क्या बिगङेगा?<br />जब भी समझाने की कोशिश करती हूं, यह आदमी और भङक उठता है। लगता है चीखने-चिल्लाने और बकवास करने। मुझसे कहता है, "तुम्हारे जैसे सङे-गले बीमार दिमाग वालों के चलते ही इस देश में न सामाजिक परिवर्तन हो पा रहा है, न आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन। सूअर की तरह गंदगी को ही अपना स्वर्ग मानकर जैसे-तैसे अपनी जिन्दगी गुजार देने वाले लोग ही ॓सी बेहूदी बातें कर स्कते हैं। ऎसे ही लोग कह सकते हैं कि पहाङ से सिर टकराने से क्या होगा? गलत को गलत कहने से क्या होगा? करने से सब्कुछ होता है, सब कुछ हो स्कता है देवी जी! कभी न कभी तो टूटेगा ही। आदमी में बदलने और तोङने की इच्छा होनी चाहिये। दृढ संकल्प और पक्का इरादा होना चाहिये। अत्याचार अन्याय को सिर झुकाकर चुपचाप सहते रहकर जीने और उसका विरोध कर करते हुये उसे अस्वीकार करते हुये जीने में बहुत फर्क होता है...बहुत।"<br /><br />इस तरह की अनाप-शनाप बातें बकता रहता है यह आदमी। पूरा पागल है पागल। मुझे सङियल दिमाग और नाबदान का कीङा कहता है। भला कोई सही दिमाग वाला आदमी अपनी पत्नी को ऎसा कहता है?<br /><br />इसी पागलपन के चलते तो आज तक इनको पदोन्नति नहीं हुई। इससे जूनियर शर्मा भाई साहब अभियन्ता बन गये। जमीन खरीदकर इसी शहर में अपना दोमंजिला मकान बनवा लिया। पांच-पांच बच्चों को पब्लिक स्कूल में डाल रखा है। फ्रिज, टीवी, वीसीआर क्या नहीं है उनके घर में?इधर खुद सरकारी क्वार्टर में रहते हैं उधर हर महीने डेढ हजार रुपये अपने मकान का भाङा भी उथाते हैं। और एक यह आदमी है....सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र! दो ही तो बच्चे हैं, उन्हें भी नगर पालिका के स्कूल में डाला हुआ है। बच्चे छिप-छिप कर पङोसियों के घर टीवी देखने जाते हैं। मैंने कई बार कहा कि न बङा वाला तो एक छोटा वाला ही टीवी लेलो। किरानियों और चपरासियों के घर तक में टीवी आ गया है। क्या हम उनसे भी गये-गुजरे हैं? लेकिन इसके कान पर जूं तक नहीं रेंगती। एक दिन बहुत जिद करने लगी तो अलमारी में से सेविंग बैंक की पासबुक निकालकर मेरे आगे पटक दी, " लो, देख लो, तीन सौ इकत्तीस रुपये पङे हैं बैंक में। अगर इतने में टीवी मिलता हो तो जाकर आज ही खरीद लाओ बाजार से।"<br /><br />भला तीन सौ इकतीस रुपये में कहीं टीवी मिलता है? टीवी फ्रिज तो गया भाङ चूल्हे में, शादी के बाद से अभी तक इस आदमी ने एक भी धंग की साङी दी है मुझे खरीदकर! कहीं आने-जाने के लिये सिल्क की एक अच्छी साङी लेने का मन कितने दिनों से कर रहा है। जब भी कहती हूं, लगता है दुनिया भर का लेक्चर झाङने कि इस महंगाई के जामाने में पेट में डालने के लिये मोटा अन्न और तन ढकने के लिये कैसा भी कपङा मिल जाये यही बहुत है। ये सिल्क और टेरेलीन बङे लोगों के चोंचले हैं। हम लोग एसा शौक नहीं पाल सकते। जानती हो इसी देश में हजारों लाखों लोग हैं जो कपङे और अन्न के अभाव में नंगे-भूंखे रहते हैं, दवा के बिना घुट-घुट कर मर रहे हैं और तुम चार-पांच सौ की एक साङी पहनना चाहती हो?<br />अब इस पगले को कैसे बताया जाय कि उन लाखों करोङो के अन्न-वस्त्र और दवा के बारे मॆं चिन्ता करने की जिम्मेदारी सरकार की है, तुम्हारी नहीं। काजी जी को शहर के अंदेशों से दुबला होने की जरूरत नहीं। तुम्हारे खद्दर के कुर्ता-पायजामा पहनने से सिल्क और टेरेलीन की बिक्री इस देश में रुक तो नहीं गई है!<br /><br />मैं पूंछती हूं, उसी आफिस मॆं शर्मा भाईसाहब भी तो काम करते हैं, सक्सेना जी और तिवारी जी भी तो करते हैं! तुम्हारी तरह कौन अपने बङे आफिसरों और ठेकेदारों से लङता झगङता रहता है? ठीक है, तुम बङे संत महात्मा हो, तो मत लो घूस और रिश्वत, मत करो ठेकेदारों के जाली बिलों पर हस्ताक्षर, मत करो उनके गलत बिल पास, लेकिन दूसरों के पीछे लट्ठ लेकर क्यों पङे रहते हो? तुमने क्या दुनिया-जहन को सुधारने का ठेका ले रखा है? लेकिन यह आदमी मेरी कुछ सुने तब न! कभी इस आफिसर से लङाई करके बौखलाया हुआ घर लौटेगा, तो कभी उस आफिसर से डांट-फटकार खाकर घोंघा जैसा मुंह बनाये घर लौटेगा। ठेकेदार लोग धमकी देते रहते हैं। किसी दिन कोई गुंडा-बदमाश पीछॆ लगा देगा तब इसकी बात समझ में आयेगी। हड्डी -पसली तोङ कर रख देंगे सब।<br /><br />मुझे तो कभी-कभी इस आदमी की हरकतों पर हंसी भी आती है और रोना भी। अब भला अखबार में छपी किसी खबर को लेकर कोई किसी से गाली-गलौज और हाथापाई करता है। अभी चार-पांच दिन पहले की ही बात है। अखबार मॆं कोई खबर छपी थी किबिहार के किसी गांव के उच्चवर्ग के लोगों ने हरिजलों के घर में आग लगा दी, जिससे सात हरिजन जिन्दा ही जलमरे। इनमें बच्चे और बूढे भी थे।<br />तिवारी भाई साहब भी वहीं बैठे थे। खबर पढने के बाद वे केवल इतना ही बोले थे, " ठीक किया बिहार वालों ने, इन लोगों को अप्नी औकात पर ल दिया।"<br /><br />इतना सुनना था कि यह आदमी अगिया बेताल बन गया। लगा तिवारी जी से तू-तङाक करने। गुस्से मॆं आकर उन्हे गालियां बकने लगा, " देखो तिवारी, मेरे सामने ऎसी घिनौनी बातें करोगे तो ठीक नहीं होगा। तुममें और जानवर में कोई अन्तर नहीं है। तुम्हारा दिमाग सङ गया है। तुम्हारे भीतर आदमीयत नाम की चीज है ही नहीं। इतनी शर्मनाक अमानुषिक घटना घट गई और तुम कह रहे हो ठीक हुआ!<br />हरिजन क्या आदमी नहीं है? उन्हे क्या हमारे तुम्हारे जैसा जीने और रहने का अधिकार नहीं है? शर्म नहीं आती तुम्हे इस तरह की बातें करते हुये और सोंचते हुये?"<br /><br />इस पर तिवारी जी भङक उठे थे। दोनो मॆं हाथा पाई की नौबत आ गई थी। वह तो पङिसी नन्द्लाल बाबू आकर बीच बचाव न करते तो उस दिन न जाने क्या हो जाता।<br /><br />अब भला अखबार में छपी बात को लेकर कोई किसी से झगङा करता है! अखबार में तो रोज ही ऎसी रोज ही झूठी-सच्ची खबरें छपती रहती हैं। कौन उनको लेकर अपना सिर धुनता है। कल ही तो खबर छपी थी कि पुलिसवालों ने हिरासत में बन्द एक औरत के साथ जबर्दस्टी मुंह काला किया। खबर पढने के बाद घांटॊ यह आदमी बकता-झकता रहा, सरकार और पुलिसवालों को गालियां देता रहा, अपना सिर पीटता रहा, और फिर इसी चिन्ता में बिना खाये-पिये ही आफिस चला गया।<br /><br />यह सब पागलपन नहीं है तो और क्या है? अपने बाल-बच्चों और घर-परिवार की चिन्ता नहीं और दुनिया जहान के बारे में सोंचकर अपना खून जलाते रहना। मुझे तो लगता है, यह आदमी कुछ ही दिनों में पूरा का पूरा पागल हो जायेगा। तीन बार नौकरी से सस्पेंड किया जा चुका है। इस बार किसी से लङ झगङ लिया तो नौकरी से ही निकाल दिया जायेगा। हे भगवान! तब क्या होगा हमारे बाल-बच्चों का?<br /><br />लेकिन अचरज तो मुझे इस बात पर होता है कि आज भी मेरे पिता जी इस आदमी की तारीफ करते नहीं थकते। कहते हैं, "अगर इस देश में थोङे से नौजवान भी मेरे शिवनाथ बेटे जैसे हो जायं तो इस देश का नक्शा ही बदल जाय। आज देश को ऎसे ही युवकों की जरूरत है।"<br /><br />खाक जरूरत है! ऎसे पागलों से कहीं देश का नक्शा बदलता है!<br />पता नहीं मेरे पिताजी के दिमाग में भी कोई गङबङी शुरु हो गई है क्या? न जाने कैसी एक हवा चली है, बहुत लोग इसी तरह के पागल हो रहे हैं। हे भगवान! मेरे शेखर और सरो को बचाना इस बीमारी से। सुनती हूं, यह बीमारी खानदानी होती है। तो क्या मेरे बच्चे भी...<br /><br /><a href="http://shabdokiunjali.blogspot.com/2009/11/blog-post_9175.html">-जवाहर सिंह</a>Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-14528857972374950292009-11-18T21:52:00.000-08:002009-11-18T22:04:24.208-08:00जवाहर सिंहजन्म : छपरा (बिहार) के एक गा विष्णु पुरा- जलाल पुर बाजार में।<br /><br />शिक्षा : एम.ए., पी.एह.डी. ।<br /><br />हिन्दी के आधुनिक कथा लेखन में एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर। आज के बदले हुये ग्रामीण यथार्त और मध्यवर्गीय जीवन की त्रासद विसंगतियों की परख और पकङ के लिय अपने समकालीन लेखकों में एक चर्चित नाम। अब तक पांच उपन्यास और आठ कहानी संग्रह प्रकाशित। हिन्दी की प्रायः सभी स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में पिछले बीस वर्षों से नियमित रचनायें प्रकाशित । अनेक कहानियों का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद।<br /><br />सम्प्रति : मणिपुर विश्वविद्यालय इम्फाल के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में आचार्य एव< अध्यक्षSarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-7967554878081742482009-11-18T18:57:00.000-08:002009-11-18T19:06:38.411-08:00गोपाल दास सक्सेना 'नीरज'<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXmds_sBHCG7yhUECaFJlF4pQkAc5OIIXm1RjhVhT-hbmMvvnlLQj4zQkonNqYu8rVvfR5X3FI5ZOqoUu4hYyZSwXKSDstYrZGdFkcZe31_yhKegfSOmgaGEC6ddLv35BN5UW1fEpUYms/s1600/niraj.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 203px; height: 152px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXmds_sBHCG7yhUECaFJlF4pQkAc5OIIXm1RjhVhT-hbmMvvnlLQj4zQkonNqYu8rVvfR5X3FI5ZOqoUu4hYyZSwXKSDstYrZGdFkcZe31_yhKegfSOmgaGEC6ddLv35BN5UW1fEpUYms/s320/niraj.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5405644872092558338" /></a><br />गोपाल दास सक्सेना नीरज का जन्म ४ जनवरी १९२५ को उत्तर प्रदेश के जिला इटावा के गांव पुरावली में हुआ। उन्होंने सन १९५३ में प्रथम श्रेणी में एम.ए. किया। सालों तक सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों में टाइपिसट और क्लर्क की नौकरियां की। बाद में मेरठ कालेज में हिन्दी प्राध्यापक हुये फिर अलीगढ के एक कालेज में पढाया। देश भर में कवि सम्मेलनों में हिस्सा लिया। फिल्मों में यादगार गीत लिखे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर अनेक विश्वविद्यालयों में शोध कार्य हुआ। भारत सरकार द्वारा पदम श्री के अलावा उन्हें अनेक और भी पुरस्कार और सम्मान मिले।<br />नीरज कहते हैं, “मेरी भाषा के प्रति लोगों की शिकायत रही है कि न तो वह हिंदी है और न उर्दू. उनकी यह शिकायत सही है और इसका कारण यह है कि मेरे काव्य का जो विषय मानव प्रेम है उसकी भाषा भी इन दोनों में से कोई नहीं है।"Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-46345890301386605412009-11-18T18:46:00.000-08:002009-11-18T19:11:29.257-08:00अंधियार ढल कर ही रहेगा।रोशनी पूंजी नहीं है, जो तिजोरी में समाये,<br />वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर गाहक लगाये,<br />वह पसीने की हंसी है, वह शहीदों की उमर है,<br />जो नया सूरज उगाये जब तड़पकर तिलमिलाये,<br />उग रही लौ को न टोको,<br />ज्योति के रथ को न रोको,<br />यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा।<br />जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।<br /><br />दीप कैसा हो, कहीं हो, सूर्य का अवतार है वह,<br />धूप में कुछ भी न, तम में किन्तु पहरेदार है वह,<br />दूर से तो एक ही बस फूंक का वह है तमाशा,<br />देह से छू जाय तो फिर विप्लवी अंगार है वह,<br />व्यर्थ है दीवार गढना,<br />लाख लाख किवाड़ जड़ना,<br />मृतिका के हांथ में अमरित मचलकर ही रहेगा।<br />जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।<br /><br />है जवानी तो हवा हर एक घूंघट खोलती है,<br />टोक दो तो आंधियों की बोलियों में बोलती है,<br />वह नहीं कानून जाने, वह नहीं प्रतिबन्ध माने,<br />वह पहाड़ों पर बदलियों सी उछलती डोलती है,<br />जाल चांदी का लपेटो,<br />खून का सौदा समेटो,<br />आदमी हर कैद से बाहर निकलकर ही रहेगा।<br />जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।<br /><br />वक्त को जिसने नहीं समझा उसे मिटना पड़ा है,<br />बच गया तलवार से तो फूल से कटना पड़ा है,<br />क्यों न कितनी ही बड़ी हो, क्यों न कितनी ही कठिन हो,<br />हर नदी की राह से चट्टान को हटना पड़ा है,<br />उस सुबह से सन्धि कर लो,<br />हर किरन की मांग भर लो,<br />है जगा इन्सान तो मौसम बदलकर ही रहेगा।<br />जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।<br /><br /><a href="http://shabdokiunjali.blogspot.com/2009/11/blog-post_8045.html">--गोपाल दास नीरज</a>Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-42871597350046325192009-11-16T19:16:00.000-08:002009-11-18T19:24:08.278-08:00चौराहापुरानी सड़क का सबसे खूबसूरत बाजार चंदनी चौक है। जहां सदा मेला लगा रहता है। सड़क के दोनों ओर फुटपाथ पर दुकाने सजी हुई हैं। रंग-बिरंगे खिलौने। भालू, बंदर, गाय, बत्तख और न जाने कैसे कैसे खिलौने थे जिन्हें देखकर किसका मन न ललचाये। एक दुकान पर कुछ लड़कियां चूड़ियां खरीद रही थीं। १० वर्षीय रीना दूर से खड़ी चूड़ियों की दुकान को देख रही थी। फिर कुछ सोंचकर दुकान पर आई और दुकानदार से पूंछा, "ये हरी-हरी चूड़ियां कैसी दीं?" "२४ रुपये दर्जन"। "२ चूड़ियां देना।" दुकानदार ने उसे दो चूड़ियां दीं। वह एक एक चूड़ी दोनों हांथों में पहनकर बहुत खुश हुई। फिर उसे ध्यान आया कि उसके पास तो पैसे भी नहीं हैं। घर में पैसे नहीं हैं यह बात वह बहुत अच्छे से जानती थी। पिता बीमार रहते थे। मां लोगों के घर बर्तन साफ करती थी। जैसे तैसे घर का खर्चा चल रहा था। रीना पिता की देखभाल व घर का चूल्हा चौका करती। उसने भी कुछ काम करके पैसे कमाने की सोंची। फिर वह काम मांगने इधर उधर जाने लगी। पर सब उसे बच्ची कहकर भगा देते। तभी उसे विचार आया कि वह चौराहे पर जाकर अपने लिये कोई काम देखे। अक्सर उसके सोनू भईया वहां अखबार बेचते और राधा गजक बेचती। यह सब देखकर रीना ने सोंचा कि वह भी कुछ काम करेगी। कभी कभी रीना सोंचती वह भीख मांगेगी पर लोग क्या कहेंगे। वह यह जानती थी कि भीक मांगना अच्छी बात नहीं है। चोरी करना भी पाप है। पर नाटक तो किया ही जा सकता है। उसने कुछ सोंचकर अपना एक हांथ फ्राक में छुपा लिया और भीक मांगने लगी। "बाबू जी पैसे दे दो। एक नहीं तो दो दे दो!" ऎसे कभी उसे पैसे मिलते कभी दुत्कार। एक बार रीना चौराहे पर भीक मांग रही थी। लाल बत्ती हुई तो एक तिपहिया आकर रुका। रीना ने उससे पैसे मांगे। तिपहिये में बैठे व्यक्ति ने उससे पूंछा, "बिटिया तुम भीख क्यों मांग रही हो? तुम्हारी क्या मजबूरी है?" "मुझे हरी हरी चूड़ियां खरीदनी हैं अंकल जी। मैं आपसे भीक नहीं मांग रही बल्कि अपना अभिनय दिखा रही हूं।" "पर तुम्हारा तो एक ही हांथ है फिर २ चूड़ियां क्या करोगी?" "नहीं अंकल जी मेरा हांथ टूटा नहीं है बल्कि मैं अपाहिज होने का नाटक कर रही हूं।" कहते हुये उसने अपना हांथ फ्राक से बाहर निकाल दिया। "तुम एक दिन महान अभिनेत्री बनोगी।" कहते हुये उस व्यक्ति ने रीना के हांथ में बीस रुपये पकड़ा दिये। "पर अकंल इतने पैसे.." बत्ती हरी हो चुकी थी। अंकल जी का तिपहिया जा चुका था। लाल से हरी व संतरी होती बत्तियों को देखते हुये रीना सोंच रही थी कि क्या वह कभी बड़ी अभिनेत्री बन सकेगी।<br /><a href="http://shabdokiunjali.blogspot.com/2009/11/blog-post_16.html">--शरद आलोक</a>Sarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-14674073597108709542009-11-16T19:07:00.000-08:002009-11-16T19:09:17.357-08:00श्री शरद आलोक<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjOK2maB5NIGKMq2uasgRJGTy36CurcpAtNWoAO6PCQszlxpUzi9v3ZJunnwVX8B0_-hEp1VbrFrooH6zU9Q63lt6x5AkISUzgU9x4agH3m_vFBhwXlqe-Pvs5V_NGQ9TWzRvNvURIYxF8/s1600/sharad+alok.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 199px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjOK2maB5NIGKMq2uasgRJGTy36CurcpAtNWoAO6PCQszlxpUzi9v3ZJunnwVX8B0_-hEp1VbrFrooH6zU9Q63lt6x5AkISUzgU9x4agH3m_vFBhwXlqe-Pvs5V_NGQ9TWzRvNvURIYxF8/s320/sharad+alok.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5404904237239193106" /></a><br /><br />श्री शरद आलोक जी का वास्तविक नाम सुरेश चन्द्र शुक्ल है। वे गत २१ वर्षों से नार्वे में हिन्दी की पत्रिकाओं 'परिचय' और 'स्पाइल' का संपादन कर रहे हैं।वे हिन्दी के सुपरिचित कवि, लेखक, और पत्र कार हैं।<br />डा. शुक्ल अनेक भाषाओं में लिखते रहे हैं। हिन्दी में आपके सात कविता संग्रह और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उर्दू में एक कहानी संग्रह और नार्वेजियन भाषा में एक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुका है।<br /><br />सोनांचल साहित्यकार संस्थान, सोनभद्र आपके नाम पर देश-विदेश के चुने हुये साहित्यकारों को सुरेशचन्द्र शुक्ल नामित राष्ट्र भाषा प्रचार पुरस्कार प्रदान करता हैSarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8466001109017344879.post-69760419844948694072009-11-14T03:06:00.000-08:002009-11-14T03:22:25.404-08:00यशपाल<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1fnApUdXv0Ecr9Xd1ytEOQ4tAr2Okl4sYeT0ZDYQvdCdc_sj4yKjI_TslAGTXU227MDDVn-L8pF4RcHpFyxdk8O1VdIHtsP5tkLeyNvjhyphenhyphenClXRCjQ_1SV66sUPpDq8ijuuUtngcm_AWE/s1600-h/yashpal.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 246px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1fnApUdXv0Ecr9Xd1ytEOQ4tAr2Okl4sYeT0ZDYQvdCdc_sj4yKjI_TslAGTXU227MDDVn-L8pF4RcHpFyxdk8O1VdIHtsP5tkLeyNvjhyphenhyphenClXRCjQ_1SV66sUPpDq8ijuuUtngcm_AWE/s320/yashpal.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5403916734153300754" /></a><br />यशपाल हिन्दी के उन प्रमुख कथाकारों में से हैं, जिन्होंने प्रेमचन्द की प्रगतिशील परम्पराओं को आगे बढाते हुये कथा साहित्य को जीवन की कथोर वास्तविकताओं से जोड़ा। अपनी प्रत्येक कहानी में वे किसी न किसी पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर हो रहे शोषण और अत्याचार के विरुद्व वे आवाज उठात हैं।<br />यशपाल मार्क्सवादी जीवन दर्शन से प्रभावित हैं। साहित्य और राजनीति में एक साथ और समान रूप से सक्रिय हस्तक्षेप करने वाले यशपाल जी का वैयक्तिक जीवन घटनाओं और दुर्घटनाओं का लम्बा और प्रेरक दस्तावेज है।<br />सन १९०३ में फिरोजपुर छावनी में जन्म लेने वाले यशपाल जी प्रारम्भ से ही पर्याप्त साहसी और निडर थे। आगे चलकर जब ये कालेज जीवन में प्रविष्ट हुये तो देश की राजनीति में इनकी गहरी दिलचस्पी हुई। इस दिलचस्पी ने ही इन्हें विद्रोही बनाया। फलतः ये चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह के विद्रोही दल से जा मिले।<br />केवल कहानीकार ही नहीं, एक सफल उपन्यासकार और सधे व्यंग्यकार के रूप में भी यशपाल हिन्दी जगत में विख्यात रहे हैं। इनकी कहानियों की लोकप्रियता का मूलकारण टेकनीक या भाषा न होकर कथा वस्तु है।<br /><br />यशपाल की रचनायें<br /><br />कहानी सांग्रह<br />लैम्प शेड, धर्मयुद्व, ओ भैरवी, उत्तराधिकारी, चित्र का शीर्षक, अभिशप्त, वो दुनिया, ज्ञान दान, पिंजड़े की उड़ान, तर्क का तूफान, फूलों का कुत्ता, भस्मावृत चिंगारी, भूख के तीन दिन।<br />[यशपाल की सम्पूर्ण कहानियां चार खन्डों में]<br />उपन्यास<br />झूठा सच, मेरी तेरी उसकी बात, देशद्रोही, दादा कामरेड,गीता पार्टी कामरेड, मनुष्य के रूप, पक्का कदम, दिव्या, अमिता, बारह घन्टे, जुलैखां, अप्सरा का शाप।<br />यात्रा विवरण<br />लोहे की दीवार के दोनो ओर, राहबीती, स्वर्गयोद्यान बिना सांप।<br />संस्मरण<br />सिंहावलोकन [चार भागों में]<br />निबन्ध<br />रामराज्य की कथा, गांधीवाद की शव परीक्षा, मार्क्सवाद, देखा सोंचा समझा, चक्कर क्लब, बात-बात में बात, न्याय का संघर्ष, जग का मुजरा, [सम्पूर्ण निबन्ध दो खंडो में विभाजित<br />नाटक<br />नशे-नशे की बातSarika Saxenahttp://www.blogger.com/profile/07060610260898563919noreply@blogger.com1