Thursday, September 17, 2009

चांदनी--भारतेन्दु विमल


जीवन में पहली बार चन्दन ने मुम्बई के एक लेडीज़ बीयर बार में कदम रखे थे। 'सनलाइट' बार एण्ड रेस्टोरेंट ' की स्टेज पर बीस-पच्चीस लङकियां फिल्मी गानों पर डांस कर रही थीं। डिस्को हाल मॆं लगभग डेढ सौ कस्टमर जरूर रहे होंगे। लाल परी की लाली चन्दर की आंखों में छप गयी थी।
डांस करते हुये डॉली की नीली साङी का पल्लू सरक गया। फ़र्श को छूने लगा तो चन्दर को कालिदास याद आने लगे। " नदी किनारे सरकण्डों के पेङ। तेज धारा ने किनारे की जमीन काटी। सरकण्डों की जङें उखङ गयीं। डाली नीचे झुककर नदी की धार छूने लगी, मानो कोई अल्हङ नवयौवना साङी के खिसके पल्लू को जमीन तक झुककर उठाने की कोशिश कर रही थी।" वह नदी का किनारा रहा होगा। यह बीसवीं सदी में मुम्बई के बीयर-बार के फ़र्श पर बिछा नीले रंग का कालीन था।
डॉली से नज़र हटी तो रज्जो, सायराकी पीठ पर उसकी चोली के फ़ीते कस रही थी। चन्दर को याद आया-दुष्यन्त वाली शकुन्तला ने, उसका साज-सिंगार करती उन सहेलियों से शिकायत की थी, जो उसकी चोली कस रहीं थी। सहेलियों ने खिलखिला कर जवाब दिया था, "चोली को मत कोस, हमें दोष मत दे, अपनी जवानी क उभार को सम्भाल।"
....और अब, चन्दर के बिल्कुल सामने, स्टेज पर, गीता की फैलती सिकुङती जांघे, आधुनिक गीत-संगीत की तरह बिखरी-पसरी दिखाई दे रहीं थी। उसके दिमाग में कालिदास की पंक्ति बिजली की तरह कौंधी- 'ज्ञातास्वादो विवृत जघनां को विहातुं समर्थः'...खुली जांघे देख... कौन छोङ सकता है। 'जय कालिदास', चन्दर बुदबुदाया...'मैं चला घर।'
सनलाइट से बाहर निकलकर, चन्दर नुक्कङ वाली पान की दुकान पर खङा था। सनलाइट की रोप-लाइट एक सिरे से दूसरे तक दौङ लगा रही थी। प्लास्टिक ट्यूब के अन्दर बन्द नन्हे-नन्हे बल्ब बिजली के करन्ट से मानो गति पाकर दौङ रहे थे। सनलाइट के अन्दर किस्मत की लकीरों के घेरे में भारत के कोने-कोने से मुम्बई आयी सुन्दरियों के पांव संगीत की धुन पर थिरक रहे थे। इन पांवों ने कितनी टेढी-मेढी राहें नापी थी, कितने कांटे झेले थे और कितने पत्थरों की ठोकरें खाईंथी - हिसाब कौन जाने...?
ग्वालियर वाली मुम्बई क्यों आई? डकैतों वाले मुरैना और भिन्ड की कन्याओं ने मुम्बई आकर घुंघरू क्यों बांधे?...कौन कानपुर का स्कूल छुङाकर मम्मी पापा ने अपनी लाङली को मुम्बई के फ़ारस रोड वाली मौसी के पास क्यों भेजा? सवाल भारी थे। चन्दर के हल्के दिमाग के पास इन भारी सवालों का कोई जवाब नहीं था।
सामने सिनेमा हाल था। नौ से बारह वाला शो छूटा था। चन्दर से पहले चांदनी और रेहाना के पान लग रहे थे। एक पुलिस वाला अपनी मूंछे मरोङते, माणीकचन्द थूकते और दायें हांथ मॆं पकङी हुई सोंटी को बायें हांथ की हथेली पर बजाते चांदनी के पास आ खङा हुआ था।
"यहां रण्डियों के बाजार में इतनी रात क्या कर रही है रे?" पुलिस वाले की बात सुनकर चन्दर का नशा रफ़ूचक्कर हो गया था।
"किसी भङुये की तलाश कर रही हूं।" चांदनी ने पान मुंह में दबाते हुये कहा, "तू करेगा मेरी दलाली?"
चांदनी की बात पर रेहाना हंसी तो पुलिस वाले ने अपनी अथॉरिटी कायम रखने के लिये अपनी सोंटी धीरे से चांदनी की कमर पर जमाई और बोला, "चल थाने।"
"नोट हैं?" चांदनी ने मजाक उङाया।
"ये ले", जेब से पांच रुपये का पुराना नोट निकालकर, पुलिस वाला खींसे निपोर रहा था।
चांदनी जोर से हंसी, "जेब में नोट छोटे और पतलून में औजार मोटे... पांच के पुराने नोट पे थाने ले जायेगा....अभी तेरे साहब ने हफ्ते का हिस्सा नहीं दिया लगता.... या बीवी के लिये नयी चड्ढियां खरीदने में पैसे खर्च कर दिये?"
तभी चांदनी की नज़र चंदर पर पङी, जो चांदनी की बातों पर मुस्कुरा रहा था।
चांदनी को न जाने क्या सूझी। उसने पान वाले से चन्दर का पान अपने हांथों में ले लिया और चन्दर को देते हुये पुलिस वाले से कहने लगी, "अपना दोस्त है, मुलुक से आया है, सिनेमा दिखाया...पान खिलाने लायी हूं...समझा क्या?"
"समझा... खूब सम्झा। गिराहक फ़ंसा कर ले जा रही है और मुलुक वाला बोलती है।"
"अरे जा भङुये। तुम लोग तो रण्डीखाने के दलालों से भी गये-गुज़रे हो",चांदनी ने पान चबाते हुये पुलिस वाले से कहा और अचानक चन्दर का हांथ पकङकर बोली, "चल चन्दा, अपन इनके मुंह नही लगते।"...और चांदनी हांथ पकङकर चन्दर को खींचे लिये जा रही थी। रेहाना पीछे थी। चन्दर ने मुङकर पीछॆ देखा तो पुलिसवाला मूंछॊ पर ताव देकर माणीकचन्द की पीक मार रहा था....सङक पर। चन्दर खिंचा चला गया...पास वाली तंग गली में। गली में अंधेरा था...अंधेरे में कालिदास की काल्पनिक छवि थी...चन्दर को याद आया...'ज्ञातास्वादः'...गीता याद आयी...विवृत जघनां'...अंधेरे का इशारा था, शर्मिन्दगीपर पङे काले पर्दे की ओर। गली के दायें बांये नालियां.. सैकङों कुकर्म घुले पानी की सङांध... आखिर मॆं मद्विम सी रोशनी... सीढियां....खुले दरवाजे के पास हॉल में सोफ़े पर पालथी मारकर पान चबाती दीदी और बाल्टी भर पानी लिये चांदनी के पिंजरे नुमा कमरे की ओर जाती हुई मेहरी।
चांदनी चंदर को खींचकर अन्दर ले गई। दीदी मुस्कुरा रहीं थीं। चन्दर की झिझक देखकर सोंच रहीं थी-कोई नया परिन्दा है। भटककर इस डाल पर आ बैठा है। चांदनी मुर्गा लाई है। हलाल करने के लिये।
गलियारे के दूसरे छोर पर चांदनी का कमरा था। एक पलंग... एक मोरी..पलंग पर बिछी मैली सी चादर...बीच में पाप के चकत्ते...लिज़लिज़े। चन्दर की उबकाई चांदनी के खिले चेहरे को देखकर रुकी रही। चांदनी के चेहरे पर मासूमियत थी...शरारत का पुट था...मजबूरी के निशान थे। लेकिन साथ ही चन्दर के लिये किसी कोमल भाव से भीगा आमन्त्रण था।
"बैठो", चांदनी ने चन्दर का हाथ पकङकर पलंग पर बैथने का इशारा किया।
"चादर मैली है।" चन्दर सहमा हुआ था।
"अपनी ज़िन्दगी ही मैली है, चादर की परवाह कौन करे?" चांदनी ने जवाब के साथ चन्दर की कमर पर दोनों हांथ टिकाकर उसे एक ओर खिसकाया...बक्सा खोला, नयी चादर निकालकर बिछायी और बोली, "अब तुम मैले नहीं होगे।"...और वह कहती गई..."हम तो इतने मैले हो चुके हैं...क्या नाम बताया था तुमने?...हां चन्दर...तुम जनम-जनम घिस कर हमें धोते रहो तो भी साफ नहीं होंगे। छॊङो ये बातें। मेरी कहानी की भूल-भुलैया में न फ़ंसना, पछताओगे। चलो निकालो दो सौ रुपये ...शार्ट टाइम के। अगर एक घन्टे बैठना है तो चार सौ रुपये... और बीस रुपये मेहरी के।"
चन्दर मुस्कुराया...चार सौ रुपये चांदनी के हवाले किये और नयी चादर की इज्जत में औंधा लेट गया। चांदनी ने बत्ती बुझा दी थी। बस, लाल रंग का एक बल्ब जल रहा था-हल्की रौशनी के लिये। चन्दर ने कनखियों से देखा था। चांदनी का घाघरा कमर से सरककर हौले-हौले फ़र्श पर गिरा था और तभी उस तंग से पलंग पर बैठने की कोशिश में चांदनी ने अपने कूल्हे से चन्दर को हल्का सा धकिया दिया था। चांदनी के हांथ चोली के फीते पर थे गांठ ढूंढते हुये पीठ पर पहुंचे थे कि चांदनी का स्पर्श पाकर करवट बदले चन्दर ने हांथो से चांदनी के हांथों को वहीं रोक लिया। चारों हांथ कुछ पल के लिये वहीं रुके रहे। वक्त ठहर गया था और चन्दर को कालिदास फ़िर याद आ रहे थे। उसे लगा-कालिदास की 'विवृत जघनां' आज उसके सामने थी।...'को विहातुम समर्थः'-कौन छोङ सकता है? चुनौती थी।
चन्दर के हांथ पीठ से सरककर बांहों पर ...और बांहो से कन्धों पर पहुंचकर टिके। चन्दर ने हल्के से चांदनी को अपनी ओर खींचा तो जाने -अनजाने चांदनी का सिर चन्दर की बांह पर आ टिका...बांह नई चादर से ढके पुराने तकिये पर।
"कुछ बात करो ", चन्दर ने कहा।
"बात करने के पैसे दिये हैं?" चांदनी ने उलाहना दिया।
"यही समझ लो।" जवाब दिया चन्दर ने।
चांदनी से हुई बातों से उसकी कहानी मिली-चन्दर को। चांदनी कलकत्ता से घः महीने पहले बम्बई आई थी। घर मॆं एक बीमार मां थी और एक छोटा भाई। शराब पीकर ट्रक चलाते हुये बाप, एक्सीडेंट में मर गया था। इन्श्योरेंस का पैसा भी नहीं मिला था। चांदनी नर्सिंग की ट्रेनिम्ग कर रही थी, एक साल बाकी था। ट्रेनिंग पूरी करने के लिये पैसे नहीम थे।
"कोई नौकरी नहीं मिली?" चन्दर ने पूंछा था।
"नौकरी के लिये ही तो यहां आई थी।" चांदनी की कहानी के कुछ और पन्ने खुले-"रिस्ते में मौसी लगती थी वह, जो मुझे नौकरी का वादा करके यहां लाई थी। बेच दिया उसने मुझे, बाहर जो दीदी बैथी है न उसी का आदमी यहां सेठ है। कहता है, धन्धा करके पच्चीस हजार चुका दे और वापस चली जा। छः महीने में खा-पी कर, घर भेज कर, सिर्फ दस हजार कर्जा चुकाया है। पन्द्रह हजार बाकी है। उसके बाद धन्धे में बीस हजार जमा करूंगी ताकि बाकी ट्रेनिंग पूरी कर सकूं।"
चांदनी की कहानी सुनते-सुनते चंदर को झपकी आने लगी थी। चांदनी ने ताङ लिया था। एक घन्टा पूरा होने में बीस मिनट बाकी थे।
"सो रहे हो बैठोगे नहीं?" चांदनी ने चन्दर को हिलाया।
"आज मेरी कमर में दर्द है?" चन्दर ने जवाब दिया और मुंह दीवार की ओर फेर लिया।
"तो फिर औंधे हो जाओ। लाओ मसाज कर दूं। कहा न, साल भर नर्सिंग सीखी थी-फ़िज़ियोथेरेपी के साथ।"
चन्दर कुछ कह पाता उससे पहले ही चांदनी ने उसे औंधा पलट दिया। चन्दर की कमर की दोनों ओर घुटने टिका कर उसके ऊपर बैठ गई। उसके नर्म हांथों ने चन्दर की गर्दन से सरकते हुये कन्धों की मसाज शुरु कर दी। चन्दर की आंखों में अब भी खुमार था। कब आंखे झपकी, पता ही नहीं चला। चांदनी ने हल्की-हल्की मसाज करते हुये अपना बदन चन्दर की पीथ पर टिका, कान वन्दर के मुंह के नज़दीक लेजाकर, उसे बुदबुदाते हुये सुना था-'विवृत जघनां को विहातुं समर्थः'-'विवॄत जघनां-चुनौती ...हा-हा-हा'और बस, एकदम चुप्पी छा गई थी। चन्दर को सोता छोङ, चांदनी ने कपङे पहने, अपना बक्सा खोलकर छः सौ रुपये और निकाले और चन्दर के दिये चार सौ जोङकर पूरे एक हजार दीदी के हांथो में रख दिये जाकर। चन्दर के पूरी रात वहां रुकने के लिये। गलियारे के दूसरे छोर पर मछली का मसाला भुन रहा था। तीन बजे सब लङकियों के साथ खाना खा कर वह भी सो जायेगी। आज सोने से पहले उसे नहाने की जरूरत नहीं थी। आज चादर मैली नहीं थी।
सुबह सात बजे नहा-धोकर पूजा करने के बाद चाय की प्याली हांथ मॆं लिये चांदनी अपने कमरे में पहुंची तो चन्दर जूते पहन रहा था।
"चाय पी लो-फिर जाना", चांदनी ने चाय देते हुये पूंछ भी लिया, "फिर कब आओगे?"
"जब तुम बुलाओगी", चन्दर ने कहा, "लेकिन यहां कभी नहीं।"
"मतलब?"
"समझाता हूं", चन्दर ने अपनी पतलून की पेटी ढीली करके अन्दर की जेब से पांच-पांच सौ सुपये की मोटी गड्डी निकाली। दस हजार के नोट गिनकर वापस अपनी जेब में रखे और बाकी चांदनी को देते हुये बोला, "लंदन से सोंचकर आया था कि इस बार की छुटिट्यों कलकत्ता और मौका लगा तो दार्जीलिंग में काटूंगा। आज या कल की फ्लाइट पकङने का इरादा था। उसके लिये कल एक हजार पाउन्ड के रुपये लिये थे बैंक से। मेरा कलकत्ता जाना इतना जरूरी नहीं है जितना तुम्हारा कलकत्ता लौट्ना।...पूर चालीस हजार हैं। पन्द्रह हजार कर्जा चुकाने के...बीस हजार एक साल की ट्रेनिंग का खर्चा, पांच हजार हांथ खर्च और टिकट के।...और ये है मेरा टेलीफोन नम्बर और पता।"
चांदनी ने नोटो की गड्डी पलंग पर पटकी और चन्दर की गर्दन पर झूल गई।
"हटॊ मुझे जाना है।" चन्दर ने चांदनी की बाहों के हार से अपनी गर्दन छुङाते हुये कहा।
"और मुझे भी....आज शाम की गाङी से", चांदनी ने जवाब दिया।
"कलकत्ता आओगे?" चांदनी ने पूंछ भी लिया।
"घुमाओगी?... और दार्जीलिंग?"
"वादा रहा-और कर्जा चुकाने का भी।"
दोनो ने हांथ मिलाये। और फिर चन्दर सीढियां उतरने लगा था। चांदनी, रेहाना का हांथ पकङकर उसे बालकनी मॆं खींच लाई थी। मुंडेर पर टिककर, तंग गली से बाहर निकलते हुये चन्दर को हांथ हिलाकर , उस दिन की की विदाई देने के लिये।
(यह कहानी भारतेन्दु विमल के बहुचर्चित उपन्यास 'सोनमछली' के एक पात्र पर आधारित है।)

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