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Monday, February 7, 2011

डॉ. देवव्रत जोशी

मालवा अंचल के जिन समर्थ रचनाकारों को देशव्यापी पहचान मिली है कविवर देवव्रत जोशी उनमें से एक महत्वपूर्ण नाम है.प्रगतिशील विचारधारा के इस कवि का तेवर,कहन और शिल्प एकदम अनूठा है. दिनकर,सुमन,बच्चन और भवानीप्रसाद मिश्र जैसे स्वनामधन्य साहित्यकारों का स्नेहपूर्ण सान्निध्य देवव्रतजी को मिला है. वे सुदीर्घ समय तक रतलाम के निकट रावटी क़स्बे में प्राध्यापन करने के बाद अब रतलाम में आ बसे हैं.पिचहत्तर के अनक़रीब देवव्रत जोशी प्रगतिशील लेखक संघ में ख़ासे सक्रिय रहे हैं और अब जनवादी लेखक संघ की रचनात्मक गतिविधियों में संलग्न हैं.

डा. देवव्रत जोशी के बारे में और जानकारी के लिए यहाँ जाएँ:-

http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_9206.html

http://www.lakesparadise.com/madhumati/show-article_1565.html

Friday, February 4, 2011

तेजेन्द्र शर्मा

जन्म: २१ अक्टूबर १९५२ को पंजाब के शहर जगरांव के रेल्वे क्वार्टरों में। उचाना, रोहतक व मंडी में बचपन के कुछ वर्ष बिताकर १९६० में पिता का तबादला उन्हें दिल्ली ले आया।
शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए. (आनर्स) अंग्रेजी, एम.ए. अंग्रेजी, एवं कम्प्यूटर कार्य में डिप्लोमा।
प्रकाशित कृतियां :
कहानी संग्रह : काला सागर (१९९०), ढिबरी टाइट (१९९४ में पुरस्कृत), देह की कीमत (१९९९), ये क्या हो गया? (२००३).
भारत एवं इंग्लैंड की लगभग सभी पत्र पत्रिकाओं में कहानियां, लेख कवितायें ,समीक्षायें, कवितायें, एवं गज़लॆं प्रकाशित।
अंग्रेजी में :1.Lord Byron - Don Juan 2. John Keats - The Two Hyperions
दूरदर्शन के लिये शांति सीरीयल का लेखन
अन्नू कपूर द्वारा निर्देशित फिल्म अभय में नाना पाटेकर के साथ अभिनय
कथा यूके के माध्यम से लंदन में निरंतर साहित्य साधना।
पुरस्कार
१ ढिबरी टाइट के लिये महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९९५ में प्रधानमंत्री अटल जी के हांथों
२सहयोग फाउन्डेशन का युवा साहित्यकार पुरस्कार १९९८।
३ सुपथगा सम्मान १९८७।
४ कृति यूके द्वारा वर्ष २००२ के लिये बेघर आंखे को सर्वश्रेष्ठ कहानी का पुरस्कार।
संप्रति सिल्वरलिंक रेल्वे, लंदन में ड्राइवर के पद पर कार्यरत।
Email : kahanikar@hotmail.com

Wednesday, September 22, 2010

निर्मल वर्मा

 निर्मल वर्मा
जन्म : १९२९ ।
जन्मस्थान : शिमला। बचपन पहाड़ों पर बीता।
शिक्षा : सेंट स्टीफेंसन कालेज, दिल्ली से इतिहास में एम. ए. । कुछ वर्ष अध्यापन भी किया।
१९५९ में प्राग, चेकोस्लोवाकिया के प्राच्यविद्या संस्थान और चेकोस्लोवाकिया लेखक संघ द्वारा आमन्त्रित। सात वर्ष चेकोस्लोवाकिया में रहे और कई चेक कथाकृतियों के अनुवाद किये। कुछ वर्ष लंदन में यूरोप प्रवास के दौरान टाइम्स आफ इन्डिया के लिये वहां की सांस्कृतिक-राज्नीतिक समस्याओं पर लेख और रिपोर्ताज लिखे।
१९७२ में भारत वाप्सी। इसके बाद इन्डियन इंस्टीट्यूट आफ एड्वांस स्टडीज़ (शिमला) में फेलो रहे और मिथक चेतना पर कार्य किया। १९७७ में इंटरनेशनल राइटिंग प्रोग्राम, आयोवा(अमेरिका) में हिस्सेदारी।
उनकी 'मायादर्पण' कहानी पर फिल्म बनी जिसे १९७३ में सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म का पुरस्कार प्राप्त हुआ।
वे निराला सृजन पीठ, भॊपाल (१९८१-८३) और यशपाल सृजन पीठ शिमला(१९८९) के अध्यक्ष भी रहे।
१९८७में इंग्लैंड के प्रकाशक रीडर्स इंटरनेशनल द्वारा निर्मल वर्मा का कहानी संग्रह 'द वर्ल्ड एल्सव्हेयर' प्रकाशित किया गया। उसी अवसर पर उनके व्यक्तित्व पर बी.बी.सी चैनल४ पर एक प्रसारित व इंस्टीट्यूट आफ कान्टेम्प्रेर्री आर्ट्स (आई.सीए.) द्वारा अपने वीडियो संग्रहालय के लिये उनका एक लंबा इंटरव्यू रिकार्डित किया गया।
उनकी पुस्तक क्व्वे और कालापानी को साहित्य अकादमी (१९८५)से सम्मानित किया गया।
संपूर्ण कृतित्व के लिये १९९३ का साधना सम्मान दिया गया।
उ.प्र. हिंदी संस्थान का सर्वोच्च राम मनोहर लोहिया अतिविशिष्ट सम्मान (१९९५) में मिला।
भारतीय ज्ञान पीठ का मूर्तिदेवी सम्मान (१९९७) में मिला।
प्रकाशित पुस्तकें:
वे दिन, लाल टीन की छत, एक चिथड़ा सुख, रात का रिपोर्टर (उपन्यास);
परिंदे, जलती झाड़ी, पिछली गर्मियों में, कव्वे और काला पानी, प्रतिनिधि कहानियां, मेरी प्रिय कहानियां, बीच बहस में, सूखा तथा अन्य कहानियां (कहानी संग्रह);
चीड़ों पर चांदनी, हर बारिश में (यात्रा संस्मरण);
शब्द और स्मृति, कला और जोखिम, ढलान से उतरते हुये, भारत और यूरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र, शताब्दी के ढलते वर्षों में (निबन्ध);
तीन एकांत नाटक)
दूसरी दुनिया (संचयन)
अंग्रेजी में अनुदित :
डेज़ आफ लागिंग. डार्क डिस्पैचेज़, ए रैग काल्ड हैपीनैस (उपन्यास)
हिल स्टेशन, क्रोज़ आफ डिलीवरेम्स, द वर्ल्ड एल्स्व्हेयर, सच ए बिग इयर्निंग (कहानियां)
वर्ल्ड एंद मेरी (निबन्ध)
हिन्दी में अनुदित: कुप्रीन की कहानियां

Wednesday, January 20, 2010

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'


सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' अधुनिक हिन्दी साहित्य के महान महान स्तन्भ थे। वे एक कवि, उपन्यासकार, निबन्धकार और कहानीकार थे। उन्होंने कई रेखाचित्र भी बनाये। उनके जीवन काल में उनकी प्रतिभा को पहचाना नहीं गया। उनके क्रान्तिकारी और स्वच्छन्द लेखन के कारण उनका साहित्य अप्रकाशित ही रहा।
निराला का पूरा जीवन, एक थोङे समय को छोङकर, दुर्भाग्य और विपत्ति का अनुक्रम था। उनका जन्म उन्नाव जिले के गढाकोला गांव के एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में, बसन्त पञ्चमी के दिन, १८९७ में हुआ। उनके पिता का नाम पं रामसहाय था, जो बंगाल के महिषादल राज्य के मेदिनीपुर जिले में एक सरकारी नौकरी करते थे। निराला का बचपन बंगाल के इस क्षेत्र में बीता जिसका उनके मन पर बहुत गहरा प्रभाव रहा है। तीन वर्ष की अवस्था में उनकी मां की मृत्यु हो गयी और उनके पिता ने उनकी देखरेख का भार अपने ऊपर ले लिया।
निराला की शिक्षा यहीं बंगाली माध्यम से शुरु हुई। हाईस्कूल पास करने के पश्चात उन्होंने घर पर ही संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया। प्रारम्भ से ही राम चरित मानस उन्हें बहुत प्रिय था। वे हिन्दी, बंगला, अंग्रेजी और संस्कृत भाषा में निपुण थे और श्री राम कृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द और श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर से विशेष रूप से प्रभावित थे।
निराला स्वच्छन्द प्रकृति के थे और स्कूल में पढने से अधिक उनकी रुचि घुमने, खेलने, तैरने और कुश्ती लङने इत्यादि में थी। संगीत में उनकी विशेष रुचि थी। अध्ययन में उनका विशेष मन नहीं लगता था। इस कारण उनके पिता कभी-कभी उनसे कठोर व्यवहार करते थे, जबकिउनके हृदय में अपने एकमात्र पुत्र के लिये विशेष स्नेह था।
हाईस्कूल करने के पश्चात वे लखनऊ और उसके बाद गढकोला (उन्नाव) आ गये। पन्द्रह वर्ष की अल्पायु में उनका विवाह मनोहरा देवी से हो गया। रायबरेली जिले में डलमऊ के पं. रामदयाल की पुत्री मनोहरा देवी सुन्दर और शिक्षित थीं, उनको संगीत का अभ्यास भी था। पत्नी के जोर देने पर ही उन्होंने हिन्दी सीखी।
इसके बाद अतिशीघ्र ही उन्होंने बंगला के बजाय हिन्दी में कविता लिखना शुरु कर दिया। बचपन के नैराश्य और एकाकी जीवन के पश्चात उन्होंने कुछ वर्ष अपनी पत्नी के साथ सुख से बिताये., किन्तु यह सुख ज्यादा दिनों तक नहीं टिका और उनकी पत्नी की मृत्यु उनकी २० वर्ष की अवस्था मॆं ही हो गयी। बाद में उनकी पुत्री जो कि विधवा थी, की भी मृत्यु हो गयी। वे आर्थिक विषमताओं से भी घिरे रहे। ऎसे समय में उन्होंने विभिन्न प्रकाषकों के साथ प्रूफ रीडर के रूप मॆं काम किया, उन्होंने 'समन्वय' का भी सम्पादन किया।
निराला को सम्मान बहुत मिला। परन्तु उनके संघर्ष के स्तर और संदर्भ को समझना उनके विरोधियों के लिये जितना मुश्किल था, उतना ही उनके प्रशंसको के लिये भी।
अंततः अपने मानसिक और शारीरिक संघर्ष को झेलते हुये निराला की मृत्यु दारागंज ( इलाहाबाद) में १५ अक्टूबर १९६१ में हो गयी।
प्रमुख कृतियां:-
कविता संग्रह: परिमल,अनामिका, गीतिका, कुकुरमुत्ता, आदिमा, बेला, नये पत्त्ते, अर्चना, आराधना, तुलसीदास, जन्मभूमि।
उपन्यास: अप्सरा, अल्का, प्रभावती, निरूपमा, चमेली, उच्च्श्रंखलता, काले कारनामे।
कहानी संग्रह: चतुरी चमार, शुकुल की बीवी, सखी, लिली, देवी।
निबन्ध संग्रह: प्रबन्ध-परिचय, प्रबन्ध प्रतिभा, बंगभाषा का उच्चरन, प्रबन्ध पद्य, प्रबन्ध प्रतिमा, चाबुक, चयन, संघर्ष।
आलोचना: रविन्द्र-कविता-कन्नन।
अनुवाद: आनन्द मठ, विश्व-विकर्ष, कृष्ण कान्त का विल, कपाल कुण्डला, दुर्गेश नन्दिनी, राज सिंह, राज रानी, देवी चौधरानी, युगलंगुलिया, चन्द्रशेखर, रजनी, श्री रामकृष्णा वचनामृत, भारत में विवेकानन्द, राजयोग।

Thursday, December 3, 2009

जयशंकर प्रसाद



जिस समय खङी बोली और आधुनिक हिन्दी साहित्य किशोरावस्था में पदार्पण कर रहे थे; काशी के 'सुंघनी साहू' के प्रसिद्व घराने में श्री जयशंकर प्रसाद का जन्म ३० जनवरी १८९० (संवत१९४६) में हुआ। व्यापार में कुशल और साहित्य सेवी , अपके पिता श्री देवी प्रसाद पर लक्ष्मी की कृपा थी। इस प्रकार प्रसाद का पालन पोषण लक्ष्मी और सरस्वती के कृपापात्र घराने में हुआ। एक अत्यन्त सात्विक और धार्मिक मनोवृत्ति का प्रभाव जो पूरे परिवार में वर्तमान था, प्रसाद जी के ऊपर बचपन से ही पङता सा जान पङता था।उनका बचपन अत्यन्त सुख से व्यतीत हुआ, वे अपनी माता के साथ अनेक तीर्थों की यात्राओं पर भी गये।
जिस समय उनके पिता की मृत्यु हुई ( १९०१) वे क्वींस कालेज में सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। बङे भाई श्री शम्भू रत्न जी पर घर का सारा भार आ पङा। इसके कुछ दिन बाद प्रसाद जी को विवश होकर पढाई छोङकर दुकान पर बैठना पङा। पढाई छोङने के बाद भी वे अध्ययन में लगे रहे और घर पर ही उन्होंने अंग्रेजी, संस्कृत और हिन्दी में पढाई जारी रखी। आठ-नौ वर्ष की अवस्था मॆं ही अमरकोष और लघुकौमुदी कंटस्थ कर लेना अध्ययन की ओर उनकी गहरी निष्ठा का प्रमाण है। इसी आयु में उन्होंने ब्रजभाषा में कवित्त और सवैयों की रचना भी प्रारम्भ कर दी थी। कवि के अन्तर की व्याकुलता के लिये कहीं न कहीं कोई अभिव्यक्ति का मार्ग मिलना ही चाहिये। उनकी प्राम्भिक रचनायें इसी अचेतन व्याकुलता को व्यक्त करती हैं।
प्रसाद जी के सम्पूर्ण साहित्य में णीयति का बङा ही कौशलपूर्ण चित्रण मिलता है। सारे कर्म पुरुषार्थ पर अप्रत्यक्ष रूप से छाई हुई इस नीयति की विडम्बना प्रसाद-साहित्य की एक अप्रतिम विशेषता है। इस नीयति का रूप नाशकारी नहीं है। बहुत कुछ वह मनुष्य के कर्म क्षेत्र में निरपेक्ष होकर कूदने का आग्रह करती है और इसी स्थिति में आनन्द की अवधारण भी ठीक है। नीयति का यह स्वरूप कवि के निजी संघर्ष और भौतिक जीवन की विडम्बना की देन है। कुल सत्रह वर्षोंकी अवस्था में, बङे भाई के देहान्त से उन्हीं के ऊपर घर गॄहस्थी का सारा भार आ गया। एक ओर कवि की कलपना-अभिभूत मानस, दूसरी ओर यथार्त जीवन की कटु यंत्रणायें- उन्हीं के बीच प्रसाद जी का कलाकार जीवन निर्मित हुआ है। अध्ययन उनके इस जीवनानुभव को एक दार्शनिक और चिंतनात्मक आधार देने में सहायक हुआ है। भारतीय दर्शनों का अध्ययन और संस्कृत काव्य का अवगाहन करके प्रसाद जी ने एक शक्तिशाली और पूर्ण मानस-दर्शन की कल्पना की, जिसकी अनुभूति बहुत कुछ उनकी निजी यंत्रणाओं की देन है। उनका निर्माण और उनकी रचना सम्पूर्ण रूप से भारतीय है और भारतीयता के संस्कार उनके काव्य-साहित्य में और अधिक पुष्ट होकर आये हैं।
प्रसाद जी का जीवन कुल ४८ वर्ष का रहा है। इसी में उनकी रचना प्रक्रिया इसी विभीन्न साहित्यिक विद्याओं मॆं प्रतिफलित हुई कि कभी-कभी आश्चर्य होता है। कविता, उपन्यास, नाटक और निबन्ध- सभी में उनकी गति समान है। किन्तु अपनी हर विद्या मॆं उनका कवि सर्वत्र मुखरित है। वस्तुतः एक कवि की गहरी कल्पनाशीलता ने ही साहित्य को अन्य विद्याओं में उन्हें विशिष्ट और व्यक्तिगत प्रयोग करने के लिये अनुप्रेरित किया। उनकी कहानियों का अपना पृथक और सर्वथा मौलिक शिल्प है; उनके चरित्र-चित्रण का, भाषा-सौष्ठव का, वाक्यगठन का एक सर्वथा निजी प्रतिष्ठान है।
उनके नाटकों में भी इसी प्रकार के अभिनव और श्लाघ्य प्रयोग मिलते हैं। अभिनेयता को दृष्टि मॆं रखकर उनकी बहुत आलोचना की गई तो उन्होंने एक बार कहा भी था कि 'रंगमंच नटक के अनुकूल होना चाहिये न कि नाटक रंगमंच के अनुकूल।' उनका यह कथन ही नाटक रचना के आन्तरिक विधान को अधिक महत्वपूर्ण सिद्व कर देता है।
कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास-सभी क्षेत्रों मॆं प्रसाद जी एक नवीन 'स्कूल' और नवीन जीवन-दर्शन की स्थापना करने में सफल हुये हैं। वे 'छायावाद' के संस्थापकों और उन्नायकों में से एक हैं। वैसे सर्वप्रथम कविता के क्षेत्र में इस नव-अनुभूति के वाहक वही रहे हैं और प्रथम विरोध भी उन्हीं को सहना पङा है। भाषा शैली और शब्द-विन्यास के निर्माण के लिये जितना संघर्ष प्रसाद जी को करना पङा है, उतना दूसओं को नही।
यह बहुत अंशो तक सच है कि कलाकार की आस्था उसके जीवन से बङी वस्तु होती है। जीवन तो चारों ओर की विपदाओं से घिरा होता है। उनसे परित्राण कहां! विश्वास और 'आस्था' क के रूप में कलाकार इस जीवन की क्षणिक अनुभूतियों को ऊपर उठाकर एक विशाल और कल्याण्कार मानव-भूमि की रचना करता है। प्रसाद जी ने भी अपने अल्पकालीन जीवन में इसी उच्च्तर संदेश को अपनी कृतियों के माध्यम से वाणी दी है।

प्रसाद जी द्वारा लिखे गये ग्रन्थ
काव्य कानन कुसुम
करुणालय
प्रेम्पथिक
महाराणा का महत्व
झरना
आंसू
लहर
कामायनी
नाटक कामना
विशाख
एक घूंट
अजातशत्रु
जनमेजय का नाग-यज्ञ
राज्यश्री
स्कन्दगुप्त
चन्द्रगुप्त
ध्रुवस्वामिनी
उपन्यास कंकाल
तितली
इरावती (अपूर्ण)
कहानी संग्रह छाया
आंधी
प्रतिध्वनि
इन्द्रजाल
आकाश दीप
निबन्ध संग्रह
काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध
प्रसाद-संगीत

नाटकों में प्रयुक्त गीतों का एकत्र संकलन
चित्राधार (विविध)
कामायनी : आधुनिक सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य
'कामायनी' छायावादी काव्य का एकमात्र महाकाव्य और आधुनिक साहित्य की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। इसमें मनु, श्रद्वा और इङा की पौराणिक कथा को लेकर युग की मानवता को समरसता के आनन्द का संदेश दिया गया है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में, "यह काव्य बङी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से परिपूर्ण है।"
प्रसाद का प्रकृति दर्शन मानव-सापेक्ष होने से उनका काव्य मानव के अत्यन्त मांसल और आकर्षक रूप वर्णन से भरा हुआ है। 'श्रद्वा' का रूप वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल निधि है। मानव जीवन के प्रति कवि का अगाध ममत्व है। इस ममत्व के मूल रूप में कवि का अति मानवीय रूप, जीवन की साधना और वास्तविकता है। इसलिये उसमें प्रेम और त्याग, अधिकार और आत्मविसर्जन, भोग और निग्रह दोंनो ही बातें पायी जाती हैं। अतीत को उन्होंने वर्तमान रूप मॆं ही देखा है। प्रसाद के सम्पूर्ण काव्य में करुणा और विषाद की भावना निष्क्रियता का संदेश न देकर मानव के महत्व और उसके जीवन मॆं आनन्द की प्रकृत अवस्थिति का निर्देश कर उसे जीवन -पथ पर आगे बढने के लिये प्रेरित करती है। प्रसाद के काव्य की यही सर्वश्रेष्ठ विशेषता है। उसमें जीवन की कर्मण्य हलचल और आशा का संगीत है।
प्रसाद काव्य का कलापक्ष
प्रसाद काव्य का कलाप्क्ष भी उसके भावपक्ष के समान ही उत्कृष्ट, प्रभावक और सुन्दर है। उनकी भाषा संस्कृत गर्भित होते हुये भी क्लिष्ट नहीं हो पायी है। शब्द-विन्यास, वस्तु-चयन, अलंकार योजना आदि स्भी की दृष्टि में भावों की व्यंजना सरस, सुन्दर, आकर्षक, प्रतीकात्मक और विशाल बनी है। रस-निरूपण में प्रसाद किसी रस विशेष को अपना लक्ष्य बनाकर नहीं चले हैं। सामान्य रूप से उनके काव्य का आरम्भ श्रघार से होकर उसकी परिणति शान्त या करुण-रस में होती है।

Monday, November 30, 2009

प्रेमचंद



आधुनिक हिन्दी और उर्दू कथा साहित्य के पथ प्रदर्शक, मुंशी प्रेमचन्द का असली नाम धनपत राय था। उनका जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणासी के निकट एक गांव लमही में हुआ था।उनके पिता मुंशी अजायबलाल डाक घर में अत्यन्त मामूली वेतन पाने वाले एक कर्मचारी थे। आठ वर्ष की अल्पायु में ही उन्होने अपनी माँ को खो दिया। उनकी दादी ने उनकी देखभाल करने की जिम्मेदारी ली प्रन्तु वे भी शीघ्र ही इस दुनिया को छोङकर चली गयीं।
उनकी प्राम्भिक शिक्षा एक मदरसे में मौलवी द्वारा हुयी जहां उन्होने उर्दू का अधययन किया। उनका विवाह १५ वर्ष की अल्पायु में, जब वे ९वीं कक्षा मॆं पढ रहे थे, हो गया; परन्तु यह विवाह चल नहीं सका और बाद में उन्होंने दोबारा एक बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया।
बाद में उनके पिता की भी मृत्यु हो गयी और १८९८ में इण्टरमीडीयेट के बाद उन्हे अपनी पढायी छोङनी पङी। वे एक प्राईमरी स्कूल मे अध्यापन का कार्य करने लगे और कई पदोन्नतियों के बाद वे ड्प्युटी इंस्पैक्टर आफ़ स्कूल बन गये। १९१९ में उन्होने अंग्रेजी, पर्षियन,और इतिहास विषयों से स्नातक किया। महात्मा गांधी के 'असहयोग आन्दोलन' में योगदान देते हुये उन्होने अंग्रेजी सरकार की नौकरी को त्याग दिया। उसके बाद उन्होने अपना सारा ध्यान अपने लेखन की ओर लगा दिया। उनकी पहली कहानी कानपुर से प्रकाशित एक पत्रिका 'ज़माना' में प्रकाशित हुयी। उन्होने अपनी प्रारम्भिक लघुकथाओं में उस समय की देश्भक्ति की भावना का चित्रण किया है। 'सोज़-ए-वतन' नाम से उनका देशभक्ति की कहानियों का पहला संग्रह १९०७ में प्रकाशित हुआ,जिसने ब्रिटिश सरकार का ध्यान १९१४ में आकृष्ट किया।
जब प्रेमचन्द ने हिन्दी में लिखना शुरु किया तो उस समय तक उनकी पहचान उर्दू कहानी कार के रूप में बन चुकी थी।
उन्होने अपने उपन्यास और कहानियों में जीवन की वास्तविकताओं को प्रस्तुत किया है और भारतीय गांवो को अपने लेखन का प्रमुख केन्द्रबिन्दु रखा है।उनके उपन्यासों में निम्न-मध्यम वर्ग की समस्याओं और गांवो क चित्रण है। उन्होने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर भी बल दिया।
प्रेमचन्द को उर्दू लघुकथाओं का जनक कहा जाता है। लघु कथायें या 'अफ़साने' प्रेम्चन्द द्वारा ही शुरु किये गये। उनके उपन्यासों की तरह उनके अफ़साने भी समाज का आईना थे।
प्रेमचन्द पहले हिन्दी लेखक थे जिन्होने अपने लेखन में वास्तविकता का परिचय दिया। उन्होने कहानी को एक सामाजिक उद्देश्य से पथ-प्रदर्षित किया। उन्होने गांधी जी के कार्य में सहयोग देते हुये उनके राजनीति क और सामाजिक आदर्शों को अपनी लेखनी का आधार बनाया।
एक महान उपन्यास कार होने के साथ-साथ प्रेमचन्द एक समाज सुधारक और विचारक भी थे। उनके लेखन का उद्देश्य सिर्फ़ मनोरंजन कराना ही नहीं बल्कि सामाजिक कुरीतियों की ओर ध्यान आकृष्ट कराना है। वे सामाजिक क्रान्ति में विश्वास करते थे और उनका विचार था कि सभी को सुअवसर प्राप्त हो। उनकी मृत्यु १९३६ में हो गयी और तब से वो भारत ही नहीं अपितु अन्य देशों में भी उनका अध्ययन सदी के एक महान साहित्यकार के रूप में होता है।
उनकी प्रमुख रचनायें:-
उनके प्रमुख उपन्यास हैं-प्रेमा,वरदान, सेवासदन, प्रेमाश्रमा, प्रतिज्ञान, निर्मला, गबन, रंगभूमि, कायाकल्प, कर्मभूमि, गोदान, और एक अपूर्ण उपन्यास मंगलसूत्र।
उन्होने बहुत सी यादगार लघुकथाऎ लिखी। उनके प्रमुख अफ़सानों में कातिल की मा, जेवर का डिब्बा, गिल्ली डण्डा, ईदगाह, नमक का दरोगा, और कफ़न हैं। उनकी कहानियों के संग्रह प्रेम पचीसी, प्रेम बत्तीसी, वारदात, और ज़ाद-ए-राह के नाम से प्रकाशित हुये।

Wednesday, November 18, 2009

जवाहर सिंह

जन्म : छपरा (बिहार) के एक गा विष्णु पुरा- जलाल पुर बाजार में।

शिक्षा : एम.ए., पी.एह.डी. ।

हिन्दी के आधुनिक कथा लेखन में एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर। आज के बदले हुये ग्रामीण यथार्त और मध्यवर्गीय जीवन की त्रासद विसंगतियों की परख और पकङ के लिय अपने समकालीन लेखकों में एक चर्चित नाम। अब तक पांच उपन्यास और आठ कहानी संग्रह प्रकाशित। हिन्दी की प्रायः सभी स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में पिछले बीस वर्षों से नियमित रचनायें प्रकाशित । अनेक कहानियों का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद।

सम्प्रति : मणिपुर विश्वविद्यालय इम्फाल के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में आचार्य एव< अध्यक्ष

गोपाल दास सक्सेना 'नीरज'


गोपाल दास सक्सेना नीरज का जन्म ४ जनवरी १९२५ को उत्तर प्रदेश के जिला इटावा के गांव पुरावली में हुआ। उन्होंने सन १९५३ में प्रथम श्रेणी में एम.ए. किया। सालों तक सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों में टाइपिसट और क्लर्क की नौकरियां की। बाद में मेरठ कालेज में हिन्दी प्राध्यापक हुये फिर अलीगढ के एक कालेज में पढाया। देश भर में कवि सम्मेलनों में हिस्सा लिया। फिल्मों में यादगार गीत लिखे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर अनेक विश्वविद्यालयों में शोध कार्य हुआ। भारत सरकार द्वारा पदम श्री के अलावा उन्हें अनेक और भी पुरस्कार और सम्मान मिले।
नीरज कहते हैं, “मेरी भाषा के प्रति लोगों की शिकायत रही है कि न तो वह हिंदी है और न उर्दू. उनकी यह शिकायत सही है और इसका कारण यह है कि मेरे काव्य का जो विषय मानव प्रेम है उसकी भाषा भी इन दोनों में से कोई नहीं है।"

Monday, November 16, 2009

श्री शरद आलोक



श्री शरद आलोक जी का वास्तविक नाम सुरेश चन्द्र शुक्ल है। वे गत २१ वर्षों से नार्वे में हिन्दी की पत्रिकाओं 'परिचय' और 'स्पाइल' का संपादन कर रहे हैं।वे हिन्दी के सुपरिचित कवि, लेखक, और पत्र कार हैं।
डा. शुक्ल अनेक भाषाओं में लिखते रहे हैं। हिन्दी में आपके सात कविता संग्रह और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उर्दू में एक कहानी संग्रह और नार्वेजियन भाषा में एक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुका है।

सोनांचल साहित्यकार संस्थान, सोनभद्र आपके नाम पर देश-विदेश के चुने हुये साहित्यकारों को सुरेशचन्द्र शुक्ल नामित राष्ट्र भाषा प्रचार पुरस्कार प्रदान करता है

Saturday, November 14, 2009

यशपाल


यशपाल हिन्दी के उन प्रमुख कथाकारों में से हैं, जिन्होंने प्रेमचन्द की प्रगतिशील परम्पराओं को आगे बढाते हुये कथा साहित्य को जीवन की कथोर वास्तविकताओं से जोड़ा। अपनी प्रत्येक कहानी में वे किसी न किसी पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर हो रहे शोषण और अत्याचार के विरुद्व वे आवाज उठात हैं।
यशपाल मार्क्सवादी जीवन दर्शन से प्रभावित हैं। साहित्य और राजनीति में एक साथ और समान रूप से सक्रिय हस्तक्षेप करने वाले यशपाल जी का वैयक्तिक जीवन घटनाओं और दुर्घटनाओं का लम्बा और प्रेरक दस्तावेज है।
सन १९०३ में फिरोजपुर छावनी में जन्म लेने वाले यशपाल जी प्रारम्भ से ही पर्याप्त साहसी और निडर थे। आगे चलकर जब ये कालेज जीवन में प्रविष्ट हुये तो देश की राजनीति में इनकी गहरी दिलचस्पी हुई। इस दिलचस्पी ने ही इन्हें विद्रोही बनाया। फलतः ये चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह के विद्रोही दल से जा मिले।
केवल कहानीकार ही नहीं, एक सफल उपन्यासकार और सधे व्यंग्यकार के रूप में भी यशपाल हिन्दी जगत में विख्यात रहे हैं। इनकी कहानियों की लोकप्रियता का मूलकारण टेकनीक या भाषा न होकर कथा वस्तु है।

यशपाल की रचनायें

कहानी सांग्रह
लैम्प शेड, धर्मयुद्व, ओ भैरवी, उत्तराधिकारी, चित्र का शीर्षक, अभिशप्त, वो दुनिया, ज्ञान दान, पिंजड़े की उड़ान, तर्क का तूफान, फूलों का कुत्ता, भस्मावृत चिंगारी, भूख के तीन दिन।
[यशपाल की सम्पूर्ण कहानियां चार खन्डों में]
उपन्यास
झूठा सच, मेरी तेरी उसकी बात, देशद्रोही, दादा कामरेड,गीता पार्टी कामरेड, मनुष्य के रूप, पक्का कदम, दिव्या, अमिता, बारह घन्टे, जुलैखां, अप्सरा का शाप।
यात्रा विवरण
लोहे की दीवार के दोनो ओर, राहबीती, स्वर्गयोद्यान बिना सांप।
संस्मरण
सिंहावलोकन [चार भागों में]
निबन्ध
रामराज्य की कथा, गांधीवाद की शव परीक्षा, मार्क्सवाद, देखा सोंचा समझा, चक्कर क्लब, बात-बात में बात, न्याय का संघर्ष, जग का मुजरा, [सम्पूर्ण निबन्ध दो खंडो में विभाजित
नाटक
नशे-नशे की बात

Friday, November 13, 2009

स्नेह मधुर


स्नेह मधुर

इलाहाबाद विश्वविध्यालय से विधि स्नातक।
विगत लगभग दो दशकों से लेखन व पत्रिकारिता में सक्रिय। रचनात्मक लेखन में विशेष रुचि।
फिल्मों में अभिनय सहित निर्माण और पटकथा लेखन में भागीदारी।
सीरिया के स्वतन्त्रता दिवस पर भारत के सांस्कृतिक प्रतिनिध के रूप में वर्ष १९९८ में सीरिया की यात्रा।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पत्रकारिता पुरस्कार के निर्णायक मण्डल के सदस्य भी रहे।
काव्य संग्रह 'पहाङ खामोश है' प्रकाशित। कविता व व्यंग्य के अतिरिक्त इन दिनों एक उपन्यास लिखने में व्यस्त|
सम्प्रति : हिन्दुस्तान के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्व।

सम्पर्क : ए-११ पत्रकार कालोनी,
अशोक नगर
इलाहाबाद. २११००१

Thursday, September 17, 2009

भारतेन्दु 'विमल'

भारतेन्दु 'विमल' का जन्म पंजाब के अमृतसर शहर में हुआ था। आपने गुरुकुल, एटा और महाविद्यालय से स्नातक की उपाधियां लीं तथा डी.ए.वी. कालेज कानपुर से संस्कृत में एम.ए. किया। मुम्बई में पांच वर्षों तक अध्यापन करने के उपरान्त आप केन्या, पूर्वी अफ़्रीका आ गये जहां आप सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यों में लग गये। पिछले पन्द्रह वर्षों से भारतेन्दु 'विमल' जी लंदन में बी.बी.सी. की हिन्दी सेवा से सम्बद्व हैं तथा मुख्यतः स्वतन्त्र प्रसारक और पत्रकार हैं।

आपके पांच उपन्यास प्रकाशन के लिये तैयार हैं। प्रस्तुत कहानी ;विमल; जी के बहुचर्चित उपन्यास 'सोनमछली' के एक पात्र पर आधारित है।

प्रकाशित कृतियां : 'मैं किसका और कौन मेरा' (उपन्यास); 'अभिव्यक्ति' (कविता-संकलन)।

Thursday, September 10, 2009

महादेवी वर्मा


महादेवी जी का जन्म सन १९०७ में फ़रूखाबाद में हुआ था. उनके पिता श्री गोविन्द प्रसाद वर्मा जो एक वकील थे और माता श्रीमती हेमरानी देवी दोनो ही शिक्षा के अनन्य प्रेमी थे. उनकी शिक्षा दीक्षा मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में हुयी. उन दिनों के प्रचलन के अनुसार उनका विवाह छोटी उम्र में ही हो गया था परन्तु महादेवी जी को सांसारिकता से कोई लगाव नहीं था अपितु वे तो बौध धर्म से बहुत प्रभवित थीं और स्वयं भी एक बौध भिक्षुणी बनना चाह्तीं थीं. विवाह के बाद भी उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी और सन १९३३ में इलाहबाद विश्वविध्यालय से संस्कृत में परा स्नातक की उपाधि हासिल की. प्रयाग महिला विध्यापीठ में प्रधानाचार्य के पद पर कार्य करने के बाद वे वहीं कुलपित भी नियुक्त हुयीं. सुप्रसिध हिन्दी पत्रिका 'चांद' की संपदक के रूप में भी उन्होंने कार्य किया. उनकी काव्य प्रतिभा के लिये उन्हे सेक्सरिया सम्मान से विभूषित किया गया. वे राष्ट्रपति द्वारा पदमविभूषण से भी सम्मानित की गयीं. ११ सितम्बर १९८७ को उनकी जीवन लीला सामप्त हो गयी.

हिन्दी साहित्य के छयावादी काल के चार प्रमुख स्तंभों में सुमित्रानन्दन पन्त,जयशंकर प्रसाद और सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के साथ महादेवी जी की गिनती की जाती है.
शिक्षा और साहित्य प्रेम महदेवी जी को एक तरह से विरासत में मिला था. महादेवी जी में काव्यरचना के बीज बचपन से ही विधमान थे. छ: सात वर्ष की अवस्था में भगवान की पूजा करती हुयी मां पर उनकी तुक्बन्दी :
ठंडे पानी से नहलाती
ठंडा चन्दन उन्हे लगाती
उनका भोग हमें दे जाती
तब भी कभी न बोले हैं
मां के ठाकुर जी भोले हैं.
वे हिन्दी के भक्त कवियों की रचनाओं और भगवान बौध के चरित्र से अत्यन्त प्रभावित थीं. उनके गीतों में प्रवाहित करुणा के अनन्त स्त्रोत को इसी कोण से समझा जा सकता है. वेदना और करुणा उनके गीतों की मुख्य प्रवत्ति है. असीम दु:ख के भाव में से ही उनके गीतों का उदय और अन्त दोनो होता है.
उनकी कुछ प्रमुख रचनायें हैं-
स्म्रति की रेखायें ,दीप शिखा, निहार,रश्मि,नीरजा, सान्ध्य गीत
इसके अतिरिक्त श्रन्खला की कडियां, और अतीत के चलचित्र के नाम से उन्होने अनूठे रेखाचित्र हिन्दी को दिये.