Wednesday, November 18, 2009

यह आदमी

यह आदमी
सुधा इस अदमी से अब बुरी तरह तंग आ चुकी है। 'इस आदमी' से अर्थात अपने पति शिवनाथ से। पुराने संस्कारों के कारण वह अपने पति को नाम लेकर तो संबोधित नहीं कर सकती है, किन्तु प्रचलित परंपरा के अनुसार अपने बच्चों के नाम लेकर 'शेखर के डैडी' या 'सरो के बाबू' कहकर भी उसे अपने पति को सम्बोधित करना अच्छा नहीं लगता। पता नहीं क्योंइस तरह के सम्बोधनों से उसे ढलती उम्र या बुढापे के अरुआये-बसियाये दाम्पत्य की बू आती है। इसलिये शिवनाथ के लिये वह हमेशा 'इस आदमी' या 'यह आदमी' जैसे सर्वनामों का ही प्रयोग करती है।
शादी के बाद कुछ दिनों तक यह आदमी उसे थोङा अटपटा सा....कुछ-कुछ खक्की किस्म का जरूर लगा था, लिकिन वैसा कुछ नहीं जिसको लेकर चिन्तित हुआ जाये या इसके बारे में कुछ अन्यथा सोंचा जाय। बात बेबात खिजते कुढते रहना या छोटी-छोटी बातों पर भी उत्तेजित होकर देर तक बङबङाते- भूनभुनाते रहने जैसी इसकी हरक्तों को सुधा इस आदमी का स्वभाव ही मानकर अपने मन को तसल्ली दे दिया करती थी।
उसे विश्वास था कि उसके अनुभवी पिता अपनी बेटी की शादी किसी सिरफिरे पगलेट से नहीं कर सकते। इस आदमी के बारे में पूरी तरह जांच-पङताल करके और देखसुनक्र ही उन्होंने उसका रिशा तय किया था।
उसके पिता ने इस आदमी को दो साल तक हाई स्कूल में पढाया भी था और इसके पिता से भी उनकी पुरानी जान-पहचान थी। ऎसी स्थिति में धोखा खाने जैसी किसी बात की सम्भावना नहीं की जा सकती थी। रिश्ता तय करके जब पिता जी घर लौटे थे तो इस आदमी की तारीफ करते नहीं अघाते थे। जो कोई भी लङके और उसके घ र परिवार के बारे मेंउनसे पूंछता,वे एक ही बात पर जोर देकर सबसे कहते, "देखो भई, हमने धन-दौलत, कोठा अभारी नहीं देखी है, बस केवल लङका देखा है जो लाखों मॆं एक है। वैसा सज्जन, सच्चरित्र और मेधावी लङका आज के युग में विरले ही मिलता है। 'सिंपल लिविंग और हाई थिंकिग वाला लङका है। सरकारी नौकरी में भी लगा है। वैसे घर पर साधारण खेती-बाङी भी है। उसके पिता मिडिल स्कूल के प्राधानाध्यापक के पद से पिछले साल ही सेवानिवृत्त हुये हैं। पुरानी जान-पहचान और दोस्ती थी, इसलिये यह काम इतनी आसानी से बन गया, अन्यथा आज के जमाने में सरकाई नौकई में लगे लङकों की कीमत कितनी बढ गई है, आप सब लोग जानते ही हैं। मेरी सुधा बिटिया बङी किस्मतवाली है कि ऎसा लङका इतनी आसानी से मिल गया।"
इसलिये सुधा आश्वस्त थी कि यह आदमी दूसरे लोगों से थोङा भिन्न जरूर है, लिकिन पागल वागल तो कतई नहीं है। वैसे भी इस आदमी में सुधा को कुछ खास खराबी नहीं दिखाई देती है। पढा-लिखा है, व्यक्तित्व भी आकर्षक है, जुआ शराब, औरतबाजी या इस तरह की कोई बुरी लत भी नहीं है। और सबसे बङी बात जो यह कि शादी के पहले से ही अच्छी सरकारी नौकरी में लगा है। लोकनिर्माण विभाग में जूनियर इंजीनियर की नौकरी कोई ऎसी वैसी साधारण नौकरी तो नहीम है! इसी नौकरी में रहकर कितने लोगों ने लाखों-लाख कमाये हैं, जमीन मकान खङे कर लिये हैं....क्या-क्या न कर लिया है! अब कोई कुछ करना ही न चाहे तो इसमें पद और विभाग का क्या दोष?
सुधा जनती है कि उस जैसी एक साधारण शिक्षक की हाईस्कूल पास बेटी को इससे बढिया दूल्हा मिल भी कैसे सकता था! अपनी शिक्षा, रूप-गुण और परिवार की स्थिति की सीमाओं को देखते हुये उसने अपने पति के रूप में किसी आई.ए.एस-आई.पी.एस य बङे घराने के किसी राजकुमार का सपना भी नहीं देखा था। इसलिये शादी के स्मय शिवनाथ जैसा सुन्दर, स्वस्थ, वरित्र्वान और कमाऊ पति पाकर उसने अपने भाग्य को सराहा भी था।
लेकिन तब उसे कहां मालूम था कि यह आदमी ऎसा भी होगा। वेश-भूषा, रहन-सहन और बात-व्यवहार में इतना सीधा-सरल....एकदम सिधुआ सा, किंतु भीतर-भीतर तितलौकी सा कङवा....कच्चे कोयले की अंगीठी सा अंदर ही अंदर धुंआते-सुलगते रहने वाला. तेज आंच में पक रही बेसन की कढी सा भीतर ही भीतर खदबदाते, खौलते रहने वाला.....
कभी कभी तो वह इस आदमी की हरकतों से इतनी खीज और झल्ला उठती है कि अपने सिर पर दोहत्ती मार-मारकर अपने करम को कोसने लगती है। उसकी समझ में नहीं आता कि यह आदमी सारी दुनिया से खार खाये क्यूं बैठा रहता है! हर बात और हर आदमी से इसे शिकायत ही शिकायत क्यों र्हती है? क्या अपने देश में, अपने समाज में, आफिसों में, सरकार में कहीं भी कुछ अच्छा नही हो रहा है? क्या कहीं कुछ भी नहीं ऎसा जो इस आदमी को अच्छा लगे? जिसकी यह तारीफ कर सके?

सब लोग जनते हैं कि सरकार गरीबों की भलाई के लिये तरह-तरह की योजनायें चला रही है। लाखों लोगो को गरीबी की रेखा से ऊपर उठा दिया गया है, बेघर-बार लोगों के लिये घर बनाकर दिये जा रहे हैं। ये सारी बातें तो रोज-रोज अखबारों में भी छपती हैं रेडियो में भी सुनायी जाती हैं। क्या रेडियो और अखबार झूठ बोलते हैं? लेकिन यह आदमी मानता ही नहीं है। जब भी अखबार मॆं ऎसी कोई खबर छपती है, या रेडियो में सुनाई जाती है, इस आदमी पर बकने-बोलने के दौरे पङने लगते हैं। रेडियो और अखबार वालों को गाली देने लगता है, "साले सब के सब सरकार के दलाल बन गये हैं....पैसों पर बिक गये हैं। ये लोग देश और जनता के गद्दार हैं। झूठ बोलकर लोगों को फुसलाते -बरगलाते हैं। कहां गरीबी मिटी है? किसकी गरीबी मिटी है? लोग तो पहले से भी अधिक गरीब होते जा रहे हैं...."

बकता जायेगा...बकता रहेगा यह आदमी बिना सांस लिए। चाहें कोई सुने या नहीं, इसका भाषण जारी रहेगा। हर समय खीजे-कुढे रहना, चिङचिङाये-पिनपिनाये रहना, बङबङाते-मिनमिनाते रहना-भला यह भी कोई ढंग है! हमेशा थोबङा लटकाये रहेगा, जैसे दुनिया जहान की सारी विपत्ति इसी के सर आ पङी है। क्या तुम्हारे कुढने बङबङाने और थोबङा लटकाये रहने से कहीं कुछ बदल जायेगा? क्या देश-दुनिया से अत्याचार, अन्याय शोषण-उत्पीङन, गुंडागर्दी और रिश्वतखोरी तुम्हारे कुढने-बङबङाने से मिट जायेगी? क्क्या तुम्हारे कहने से सरकार पूंजीपतियों-उद्योगपतियों से धन छीनकर गरीबों में बांट देगी? क्या मंत्री और नेता लोग अपने सजे -सजाये विशाल बंगलों और फ्लैटों में झोपङपट्टी और फुटपाथ वालों को बुलाकर बैठा लेंगे? अगर कभी इसकी ऎसी आलतू-फाल्तू बातें सुनते-सुनते मन ऊब जाता है और कुछ बोल देती हुं, तो इसे जैसे मिर्ची लग जाती है और अधिक बौखला कर बोलने लगता है। कहता है, "जब ये बेईमान दगाबाज लोग खुद अपनी बातों पर अमल नहीं करते, तो मंच पर खङे होकर जनता के सामने ऎसा भाषण देते ही क्यों हैं? चुनाव के समय झूठे वायदे क्यों करते हैं?"

अब भला इस सिरफिरे आदमी को कौन समझाये कि मंच से भाषण देना तथा चुनाव के समय लम्बी लम्बी बातें करना दीगर बात है औ उस पर अमल करना दीगर बात। लाखों रुपये जो चुनाव में फूंकेगा, वह किसी न किसी तरह अपने रुपए निकालेगा कि नहीं? फिर उसे आगे भी तो चुनाव लङना है। कमायेगा नहीं तो अगले चुनाव में खर्च कहां से करेगा?
माना कि हर विभाग और महकमे में कुछ न कुछ गङबङी है। हर आफिस में भ्रष्टाचार है। काम ठीक ढंग से नहीं होता है। घूस-रिश्वत का बाजार है, गलत ढंग के लोगों का बोलबाला बढ गया है। लेकिन क्या तुम यह सब रोक सकते हो? क्या तुम्हारे पास इसे रोकने-बदलने की कुव्वत है? जब तुम्हारे किये कुछ होने वाला नहीं तो कुढ-खीजकर अपनी सेहत खराब करने का क्या फायदा? पहाङ से सिर टकराओगे तो तुम्हारा ही सिर फूटेगा, पहाङ का क्या बिगङेगा?
जब भी समझाने की कोशिश करती हूं, यह आदमी और भङक उठता है। लगता है चीखने-चिल्लाने और बकवास करने। मुझसे कहता है, "तुम्हारे जैसे सङे-गले बीमार दिमाग वालों के चलते ही इस देश में न सामाजिक परिवर्तन हो पा रहा है, न आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन। सूअर की तरह गंदगी को ही अपना स्वर्ग मानकर जैसे-तैसे अपनी जिन्दगी गुजार देने वाले लोग ही ॓सी बेहूदी बातें कर स्कते हैं। ऎसे ही लोग कह सकते हैं कि पहाङ से सिर टकराने से क्या होगा? गलत को गलत कहने से क्या होगा? करने से सब्कुछ होता है, सब कुछ हो स्कता है देवी जी! कभी न कभी तो टूटेगा ही। आदमी में बदलने और तोङने की इच्छा होनी चाहिये। दृढ संकल्प और पक्का इरादा होना चाहिये। अत्याचार अन्याय को सिर झुकाकर चुपचाप सहते रहकर जीने और उसका विरोध कर करते हुये उसे अस्वीकार करते हुये जीने में बहुत फर्क होता है...बहुत।"

इस तरह की अनाप-शनाप बातें बकता रहता है यह आदमी। पूरा पागल है पागल। मुझे सङियल दिमाग और नाबदान का कीङा कहता है। भला कोई सही दिमाग वाला आदमी अपनी पत्नी को ऎसा कहता है?

इसी पागलपन के चलते तो आज तक इनको पदोन्नति नहीं हुई। इससे जूनियर शर्मा भाई साहब अभियन्ता बन गये। जमीन खरीदकर इसी शहर में अपना दोमंजिला मकान बनवा लिया। पांच-पांच बच्चों को पब्लिक स्कूल में डाल रखा है। फ्रिज, टीवी, वीसीआर क्या नहीं है उनके घर में?इधर खुद सरकारी क्वार्टर में रहते हैं उधर हर महीने डेढ हजार रुपये अपने मकान का भाङा भी उथाते हैं। और एक यह आदमी है....सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र! दो ही तो बच्चे हैं, उन्हें भी नगर पालिका के स्कूल में डाला हुआ है। बच्चे छिप-छिप कर पङोसियों के घर टीवी देखने जाते हैं। मैंने कई बार कहा कि न बङा वाला तो एक छोटा वाला ही टीवी लेलो। किरानियों और चपरासियों के घर तक में टीवी आ गया है। क्या हम उनसे भी गये-गुजरे हैं? लेकिन इसके कान पर जूं तक नहीं रेंगती। एक दिन बहुत जिद करने लगी तो अलमारी में से सेविंग बैंक की पासबुक निकालकर मेरे आगे पटक दी, " लो, देख लो, तीन सौ इकत्तीस रुपये पङे हैं बैंक में। अगर इतने में टीवी मिलता हो तो जाकर आज ही खरीद लाओ बाजार से।"

भला तीन सौ इकतीस रुपये में कहीं टीवी मिलता है? टीवी फ्रिज तो गया भाङ चूल्हे में, शादी के बाद से अभी तक इस आदमी ने एक भी धंग की साङी दी है मुझे खरीदकर! कहीं आने-जाने के लिये सिल्क की एक अच्छी साङी लेने का मन कितने दिनों से कर रहा है। जब भी कहती हूं, लगता है दुनिया भर का लेक्चर झाङने कि इस महंगाई के जामाने में पेट में डालने के लिये मोटा अन्न और तन ढकने के लिये कैसा भी कपङा मिल जाये यही बहुत है। ये सिल्क और टेरेलीन बङे लोगों के चोंचले हैं। हम लोग एसा शौक नहीं पाल सकते। जानती हो इसी देश में हजारों लाखों लोग हैं जो कपङे और अन्न के अभाव में नंगे-भूंखे रहते हैं, दवा के बिना घुट-घुट कर मर रहे हैं और तुम चार-पांच सौ की एक साङी पहनना चाहती हो?
अब इस पगले को कैसे बताया जाय कि उन लाखों करोङो के अन्न-वस्त्र और दवा के बारे मॆं चिन्ता करने की जिम्मेदारी सरकार की है, तुम्हारी नहीं। काजी जी को शहर के अंदेशों से दुबला होने की जरूरत नहीं। तुम्हारे खद्दर के कुर्ता-पायजामा पहनने से सिल्क और टेरेलीन की बिक्री इस देश में रुक तो नहीं गई है!

मैं पूंछती हूं, उसी आफिस मॆं शर्मा भाईसाहब भी तो काम करते हैं, सक्सेना जी और तिवारी जी भी तो करते हैं! तुम्हारी तरह कौन अपने बङे आफिसरों और ठेकेदारों से लङता झगङता रहता है? ठीक है, तुम बङे संत महात्मा हो, तो मत लो घूस और रिश्वत, मत करो ठेकेदारों के जाली बिलों पर हस्ताक्षर, मत करो उनके गलत बिल पास, लेकिन दूसरों के पीछे लट्ठ लेकर क्यों पङे रहते हो? तुमने क्या दुनिया-जहन को सुधारने का ठेका ले रखा है? लेकिन यह आदमी मेरी कुछ सुने तब न! कभी इस आफिसर से लङाई करके बौखलाया हुआ घर लौटेगा, तो कभी उस आफिसर से डांट-फटकार खाकर घोंघा जैसा मुंह बनाये घर लौटेगा। ठेकेदार लोग धमकी देते रहते हैं। किसी दिन कोई गुंडा-बदमाश पीछॆ लगा देगा तब इसकी बात समझ में आयेगी। हड्डी -पसली तोङ कर रख देंगे सब।

मुझे तो कभी-कभी इस आदमी की हरकतों पर हंसी भी आती है और रोना भी। अब भला अखबार में छपी किसी खबर को लेकर कोई किसी से गाली-गलौज और हाथापाई करता है। अभी चार-पांच दिन पहले की ही बात है। अखबार मॆं कोई खबर छपी थी किबिहार के किसी गांव के उच्चवर्ग के लोगों ने हरिजलों के घर में आग लगा दी, जिससे सात हरिजन जिन्दा ही जलमरे। इनमें बच्चे और बूढे भी थे।
तिवारी भाई साहब भी वहीं बैठे थे। खबर पढने के बाद वे केवल इतना ही बोले थे, " ठीक किया बिहार वालों ने, इन लोगों को अप्नी औकात पर ल दिया।"

इतना सुनना था कि यह आदमी अगिया बेताल बन गया। लगा तिवारी जी से तू-तङाक करने। गुस्से मॆं आकर उन्हे गालियां बकने लगा, " देखो तिवारी, मेरे सामने ऎसी घिनौनी बातें करोगे तो ठीक नहीं होगा। तुममें और जानवर में कोई अन्तर नहीं है। तुम्हारा दिमाग सङ गया है। तुम्हारे भीतर आदमीयत नाम की चीज है ही नहीं। इतनी शर्मनाक अमानुषिक घटना घट गई और तुम कह रहे हो ठीक हुआ!
हरिजन क्या आदमी नहीं है? उन्हे क्या हमारे तुम्हारे जैसा जीने और रहने का अधिकार नहीं है? शर्म नहीं आती तुम्हे इस तरह की बातें करते हुये और सोंचते हुये?"

इस पर तिवारी जी भङक उठे थे। दोनो मॆं हाथा पाई की नौबत आ गई थी। वह तो पङिसी नन्द्लाल बाबू आकर बीच बचाव न करते तो उस दिन न जाने क्या हो जाता।

अब भला अखबार में छपी बात को लेकर कोई किसी से झगङा करता है! अखबार में तो रोज ही ऎसी रोज ही झूठी-सच्ची खबरें छपती रहती हैं। कौन उनको लेकर अपना सिर धुनता है। कल ही तो खबर छपी थी कि पुलिसवालों ने हिरासत में बन्द एक औरत के साथ जबर्दस्टी मुंह काला किया। खबर पढने के बाद घांटॊ यह आदमी बकता-झकता रहा, सरकार और पुलिसवालों को गालियां देता रहा, अपना सिर पीटता रहा, और फिर इसी चिन्ता में बिना खाये-पिये ही आफिस चला गया।

यह सब पागलपन नहीं है तो और क्या है? अपने बाल-बच्चों और घर-परिवार की चिन्ता नहीं और दुनिया जहान के बारे में सोंचकर अपना खून जलाते रहना। मुझे तो लगता है, यह आदमी कुछ ही दिनों में पूरा का पूरा पागल हो जायेगा। तीन बार नौकरी से सस्पेंड किया जा चुका है। इस बार किसी से लङ झगङ लिया तो नौकरी से ही निकाल दिया जायेगा। हे भगवान! तब क्या होगा हमारे बाल-बच्चों का?

लेकिन अचरज तो मुझे इस बात पर होता है कि आज भी मेरे पिता जी इस आदमी की तारीफ करते नहीं थकते। कहते हैं, "अगर इस देश में थोङे से नौजवान भी मेरे शिवनाथ बेटे जैसे हो जायं तो इस देश का नक्शा ही बदल जाय। आज देश को ऎसे ही युवकों की जरूरत है।"

खाक जरूरत है! ऎसे पागलों से कहीं देश का नक्शा बदलता है!
पता नहीं मेरे पिताजी के दिमाग में भी कोई गङबङी शुरु हो गई है क्या? न जाने कैसी एक हवा चली है, बहुत लोग इसी तरह के पागल हो रहे हैं। हे भगवान! मेरे शेखर और सरो को बचाना इस बीमारी से। सुनती हूं, यह बीमारी खानदानी होती है। तो क्या मेरे बच्चे भी...

-जवाहर सिंह

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