Thursday, December 10, 2009

मैंने भी किया मतदान

जब मेरे मित्र ने मुझसे मतदान करने के लिये कहा तो तमाम उदासीन मतदाताओं की तरह मैंने भी अनिच्छा जाहिर कर दी। मित्र ने जब जोर दिया कि इस देश की आधी आबादी तक इस जल्दी-जल्दी आने वाले राष्ट्रीय पर्व पर मतदान करती है। इसलिये वक्त के साथ चलने के लिये मतदान करने वाले लोगों में नाम शुमार करना जरूरी है, इस पर मैंने जवाब दिया कि जो आधी आबादी मतदान नहीं करती है, मैं उसमें शामिल होना पसंद करूंगा। इसके कई फायदे भी हैं। बिना वोट डाले मतदान करने वाली आधी आबादी को हासिल होने वाली सुविधाओं का उपयोग मैं भी कर सकता हूं। महंगाई, गन्दगी बेरोजगारी, असुरक्षा जैसी जब तमाम दिक्कतों से मुझ जैसे मतदान न करने वाले लोग पीड़ित हैं उसी पीड़ा से मतदान करने वाले लोग भी ग्रसित हैं तो मेरे जैसों में और उन जैसों में क्या फर्क है?
मित्र ने जब यह कहा कि मेरे पास शताब्दी में पहली और आखिरी बार मतदान करने का यह आखिरी अवसर है तो मैं निरुत्तर हो गया। वास्तव में यह ऎसा अवसर था जिसका लाभ न उठाने पर अगली शताब्दी में मुझे अफसोस होता। मैं नहीं चाहता था कि इस शताब्दी में किये गये कुकर्मों का फल अगली शताब्दी में भुगतूं। इसलिये मैं अपने मित्र की राय से सहमत हो गया। मैं मतदान के लिये मित्रों के साथ निकल पड़ा। मैंने देखा कि सड़क के किनारे तख्त पर पंडो की तरह कुछ लोग बैठे थे जिनके पास सिर झुकाये हुये कुछ लोग किसी लिस्ट में अपना नाम खोज रहे थे। जैसे अक्सर लाटरी की दुकान पर लोग सिर झुकाये नम्बर मिलाते नज़र आते हैं। सिर झुकाये - झुकाये ही वापस भी चले जाते हैं। कम से कम यहां अपना नाम मिल जाने पर सिर उठाकर चलने के अवसर ज्यादा थे इसलिये मैं भी अपना नाम तलाशने वहां पहुंच गया।
बहुत खोजने पर एक वोटर लिस्ट में मुझे मेरा नाम दिख ही गया। वोटर लिस्ट में अपना नाम देखते ही मुझे गर्व का अहसास हुआ क्योंकि बहुत से लोगों के नाम लिस्ट में नहीं मिल रहे थे और उनके चेहरे पर निराशा के भाव स्प्ष्ट दिख रहे थे। मैं भी कैसा मूर्ख था। जिसके लिये लोग परेशान घूम रहे थे, उस अवसर को मैं यूं ही गंवा रहा था। विजय के भाव से मैं मतदान केन्द्र पर पहुंचा तो वहां की सूची में मुझे मेरा नाम नहीं मिला। मैं झटका खा गया। मतदान के लिये अचानक मैं बेताब हो गया था और इसी चक्कर में बूथों के चक्कर लगाने लगा।
कई बूथों के चक्कर लगाने पर मुझे एक बूथ में अपना नाम मिल ही गया। पीठासीन अधिकारी से कुछ देर की बहस के बाद मुझे पता चला कि मेरा नाम दो अलग-अलग सूचियों में दर्ज है अर्थात दो अलग-अलग केन्द्रों पर। इस अहसास के साथ ही मैं दोहरे उल्लास से भर गया कि मेरा नाम दो-दो जगहों पर दर्ज है। लोग एक सूची में नाम पाने को तरस रहे थे, और मेरा नाम दो-दो सूची में था, वाह!
जब मैंने इलैक्ट्रानिक मशीन पर बतन दबाया और मुझे बताया गया कि मेरा वोट पड़ गया है तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। क्या इतनी जल्दी मैंने देश के भाग्य का फैसला कर दिया था? एक अजीब सी रिक्तता का आभास होने लगा था। मैंने अपनी भावना से जब अपने मित्र को अवगत कराया तो वह मुस्कुराने लगे, "क्या दोबारा वोट डालने की इच्छा हो रही है? अभी मन भरा नहीं है? चलिये, एक और वोट डाल दीजिये।"
मैंने सोंचा कि वे मजाक कर रहे हैं। पीठासीन अधिकारी बैठे हैं, तमाम पार्टियों के एजेन्ट बैठे हैं, पुलिस मौजूद है। ऎसे में दूसरा वोट? और सबसे बड़ी बात तो उंगली पर स्याही भी लग चुकी है उसे कैसे छुपायेंगे?
मेरा अंतर्द्वन्द मित्र की समझ में आ गया, " चिन्ता मत करिये, कुछ नहीं होगा, चलिये वोट डालिये।" यह कहकर उन्होंने जेब से एक पर्ची निकालकर मुझे थमाया जिस पर राम सुमेर सोनकर लिखा हुआ था। मैं अपनी जगह से नहीं हिला तो मित्र ने मुझे समझाया, "यहां बैठे लोगों से आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है, सभी लोग अपने हैं। कहीं कुछ नहीं होगा। मैं साथ में जो हूं।"
मेरी हिम्मत मेरा साथ छोड़ गई थी। मान भी लिया कि ये सब लोग नहीं बोलेंगे लेकिन अपनी नैतिकता भी तो कोई चीज़ होती है। मैं किस मुंह से सबके सामने से गुजरुंगा? कहीं पकड़ गया तो लोग क्या कहेंगे? वैसे भी बूथ कैप्चरिंग के कोई चिन्ह नहीं दिख रहे थे। सभी लोग शान्ति पूर्वक अपना काम कर रहे थे। ऎसे लोगों से बिके हुये होने की उम्मीद कैसे की जा सकती थी?
मित्र ने मुझे समझाया कि यहां पर जितने पोलिंग ऎजेन्ट बैठे हैं , सब अपने हैं। भले ही वे किसी भी पार्टी के ऎजेन्ट दिख रहे हों, लेकिन हैं अपने आदमी। आप घबरा क्यों रहे हैं? अच्छा आप, मेरे पीछे -पीछे रहिये। बोलियेगा कुछ नहीं।
मैं मित्र के पीछे खड़ा हो गया। पर्ची दिखाई तो दस्तखत करने के लिये कहा गया। राम सुमेर के नाम का हस्ताक्षर कर दिया तो स्याही लगाने वाले के पास पहुंचा।
उसने मेरी उंगली में लगी स्याही देखी तो मित्र ने उसे कुछ इशारा कर दिया। उसने स्याही के ऊपर दुबारा स्याही लगाकर मुझे वोटिंग मशीन के पास जाने को कहा। मेरा दिल जोरों से धडक रहा था। बटन दबाने तक मुझे पकड़े जाने का अहसास जोरों से होने लगा था लेकिन बटन दबाते ही जैसे सारा भय उड़न छू हो गया। मैं सही सलामत बूथ से बाहर निकला तो ऎसा लगा कि चुनाव जीत गया हूं।
मेरे मित्र ने मेरी तरफ मुस्कुराते हुये देखा और मुझसे पूंछा कि कौन सा बटन दबाया था? मैंने बताया कि टेंशन के कारण मुझे याद ही नहीं रहा कि कौन सा बटन दब गया था। मेरे मित्र ने अपने माथे पर हांथ मारते हुये कहा कि 'नास कर दिया।' जाओ एक और वोट डालकर आओ। यह कहते हुये उन्होंने एक और पर्ची निकालकर मुझे दे दी और बूथ पर किसी को इशारा करते हुये कहा कि 'जरा इनका वोट भी डलवा देना।'
इस बार मैंने बिना किसी शर्म, हिचक और भय के मतदान कर दिया। वक्त वक्त की बात है। आधे घन्टे के भीतर मेरी ज़िन्दगी और दृष्टि तक बदल गई थी। कहां मैं वोट डालना नहीं चाहता था और कहां एक ही बूथ पर तीन तीन बार वोट डाल चुका था। मेरी हिम्मत बढ चुकी थी। अचानक मुझे मेरी एक रिश्तेदार दिखाई दीं। अपना रौब गालिब करने के लिये मैं उनके पास पहुंचा और पूंछा कि क्या आप दोबारा वोट डालना चाहेंगी?
आगे की बातचीत में वही सब कुछ हुआ जो थोड़ी देर पहले मेरे साथ हुआ था। मैंने महिला को तैयार कर लिया था और उसके लिये पर्ची मांग ली थी। लेकिन जब वह महिला स्याही लगाने वाले के पास पहुंची तो हांथ दिखाने से मना कर दिया। वह रंगे हांथो नहीं पकड़ना चाह्ती थीं, या फिर उनके सिद्वान्त मुझसे ज्यादा मजबूत थे। कुछ देर की जिद के बाद अंततः बिना स्याही लगाये ही उसे मतदान करने की अनुमति दे दी गई। अनुभव के नय-नये क्षितिज मेरे सामने खुलने लगे थे।
अब मैंने अपनी दृष्टि खोलकर जब मतदान केन्द्र पर किसी तरह का बाहरी कब्जा नहीं था बल्कि सभी के भीतरी तार जुड़े हुये थे। विभिन्न पार्टियों के लोगों का दबदबा कायम था। कोई किसी के मामले में हस्तक्षेप नहीं कर रहा था। जो कोई अपने साथियों को वोट डालने के लिये ला रहा था, उसके वोट पड़ जा रहे थे। भले ही उसका नाम मतदाता सूची में हो या न हो या वह पहले भी चार बार वोट डाल चुका हो।
हां, इतनी सावधानी जरूर बरती जा रही थी कि एक ही बूथ पर एक ही व्यक्ति से कई बार मतदान न कराकर मतदाता की सेवा कई बूथों पर ली जा रही थी। सबकी अपेक्षा थी कि मतदान शान्तिपूर्ण हो। कोई लफड़ा न हो। किसी की नौकरी या प्रतिष्ठा खतरे में न पड़े। यही चुनाव आयोग चाहता है, यही निर्वाचन अधिकारी और यही प्रत्याशियों के समर्थक। जीते कोई भी लेकिन अशान्ति पैदा करके नहीं। यही है समय की पुकार!
--स्नेह मधुर

Thursday, December 3, 2009

सौन्दर्य

तुम कनक किरण के अन्तराल में
लुक-छिप कर चलते हो क्यों?

नत मस्तक गर्व वहन करते
यौवन के घन, रस-कन ढरते।
हे लाज भरे सौन्दर्य! बता दो
मौन बने रहते हो क्यों?

अधरों के मधुर कगारॊं में
कल-कल ध्वनि की गुंजारों में!
मधुसरिता- सी यह हंसी तरल
अपनी पीते रहते हो क्यों?

बेला विभ्रम की बीत चल्ली
रजनी गंधा की कली खिली-

अब सान्ध्य - मलय - आकुलित
दुकूल कलित हो, वों छिपते हो क्यों?
वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे!
जब सावन - घन - सघन बरसते-
इन आंखों की छाया भर थे!
सुर धनु रंजित नव -जल धर से-
भरे, क्षितिज व्यापी अम्बर से,
मिले चूमते जब सरिता के ,
हरित फूल युग मधुर अधर से।
प्राण पपीहा के स्वर वाली-
बरस रही थी जब हरियाली-
रस जल कन या लती -मुकुल से-
जो मदकाते गन्ध विधुर थे,
चित्र खींचती थी जब चपला,
नील मेघ-पट पर वह विरला,
मेरी जीवन-स्मृति के जिसमें-
खिल उठते वे रूप मधुर थे।
[लहर- जयशंकर प्रसाद/ भारती भंडार, लीडर प्रेस-प्रयाग]

उठ उठ री लघु लोल लहर

उठ उठ री लघु लोल लहर
करुणा की नव अंगराई सी,
मलयानिल की परछाई सी,
इस सूखे तट पर छिटक छहर।
शीतल कोमल चिर कम्पन सी,
दुर्लभित हठीले बचपन सी,
तू लौट कहां जाती है री-
यह खेल खेल ले ठहर ठहर!
उठ-उठ गिर-गिर फिर-फिर आती,
नर्तित पद-चिन्ह बना जाती,
सिकता की रेखायें उभार-
भर जाती अपनी तरल सिहर!
तू भूल न री, पंकज वन में,
जीवन के इस सूने पन में,
ओ प्यार पुलक हे भरी धुलक!
आ चूम पुलिन के विरस अधर!

दो बूंद
शरद का सुन्दर नीलाकाश,
निशा निखरी, था निर्मल हास।
बह रही छाया पथ में स्वच्छन्द,
सुधा सरिता लेती उच्छवास।
पुलक कर लगी देखने धरा,
प्रकृति भी सकी न आंखे मूंद,
सुशीतल कारी शशि आया,
सुधा की मानो बङि सी बूंद।
हरित किसलय मय कोमल वृक्ष,
झुक रहा जिसका --- भार,
उसई पर रे मत वाले मधुप!
बैठकर भरता तू गुञ्जार,
न आशा कर तू अरे! अधीर
कुसुम रस- रस ले लूंगा मूंद,
फूल है नन्हा सा नादान,
भरा मकरन्द एक ही बूंद।
[झरना- जय शंकर प्रसाद ]

जयशंकर प्रसाद



जिस समय खङी बोली और आधुनिक हिन्दी साहित्य किशोरावस्था में पदार्पण कर रहे थे; काशी के 'सुंघनी साहू' के प्रसिद्व घराने में श्री जयशंकर प्रसाद का जन्म ३० जनवरी १८९० (संवत१९४६) में हुआ। व्यापार में कुशल और साहित्य सेवी , अपके पिता श्री देवी प्रसाद पर लक्ष्मी की कृपा थी। इस प्रकार प्रसाद का पालन पोषण लक्ष्मी और सरस्वती के कृपापात्र घराने में हुआ। एक अत्यन्त सात्विक और धार्मिक मनोवृत्ति का प्रभाव जो पूरे परिवार में वर्तमान था, प्रसाद जी के ऊपर बचपन से ही पङता सा जान पङता था।उनका बचपन अत्यन्त सुख से व्यतीत हुआ, वे अपनी माता के साथ अनेक तीर्थों की यात्राओं पर भी गये।
जिस समय उनके पिता की मृत्यु हुई ( १९०१) वे क्वींस कालेज में सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। बङे भाई श्री शम्भू रत्न जी पर घर का सारा भार आ पङा। इसके कुछ दिन बाद प्रसाद जी को विवश होकर पढाई छोङकर दुकान पर बैठना पङा। पढाई छोङने के बाद भी वे अध्ययन में लगे रहे और घर पर ही उन्होंने अंग्रेजी, संस्कृत और हिन्दी में पढाई जारी रखी। आठ-नौ वर्ष की अवस्था मॆं ही अमरकोष और लघुकौमुदी कंटस्थ कर लेना अध्ययन की ओर उनकी गहरी निष्ठा का प्रमाण है। इसी आयु में उन्होंने ब्रजभाषा में कवित्त और सवैयों की रचना भी प्रारम्भ कर दी थी। कवि के अन्तर की व्याकुलता के लिये कहीं न कहीं कोई अभिव्यक्ति का मार्ग मिलना ही चाहिये। उनकी प्राम्भिक रचनायें इसी अचेतन व्याकुलता को व्यक्त करती हैं।
प्रसाद जी के सम्पूर्ण साहित्य में णीयति का बङा ही कौशलपूर्ण चित्रण मिलता है। सारे कर्म पुरुषार्थ पर अप्रत्यक्ष रूप से छाई हुई इस नीयति की विडम्बना प्रसाद-साहित्य की एक अप्रतिम विशेषता है। इस नीयति का रूप नाशकारी नहीं है। बहुत कुछ वह मनुष्य के कर्म क्षेत्र में निरपेक्ष होकर कूदने का आग्रह करती है और इसी स्थिति में आनन्द की अवधारण भी ठीक है। नीयति का यह स्वरूप कवि के निजी संघर्ष और भौतिक जीवन की विडम्बना की देन है। कुल सत्रह वर्षोंकी अवस्था में, बङे भाई के देहान्त से उन्हीं के ऊपर घर गॄहस्थी का सारा भार आ गया। एक ओर कवि की कलपना-अभिभूत मानस, दूसरी ओर यथार्त जीवन की कटु यंत्रणायें- उन्हीं के बीच प्रसाद जी का कलाकार जीवन निर्मित हुआ है। अध्ययन उनके इस जीवनानुभव को एक दार्शनिक और चिंतनात्मक आधार देने में सहायक हुआ है। भारतीय दर्शनों का अध्ययन और संस्कृत काव्य का अवगाहन करके प्रसाद जी ने एक शक्तिशाली और पूर्ण मानस-दर्शन की कल्पना की, जिसकी अनुभूति बहुत कुछ उनकी निजी यंत्रणाओं की देन है। उनका निर्माण और उनकी रचना सम्पूर्ण रूप से भारतीय है और भारतीयता के संस्कार उनके काव्य-साहित्य में और अधिक पुष्ट होकर आये हैं।
प्रसाद जी का जीवन कुल ४८ वर्ष का रहा है। इसी में उनकी रचना प्रक्रिया इसी विभीन्न साहित्यिक विद्याओं मॆं प्रतिफलित हुई कि कभी-कभी आश्चर्य होता है। कविता, उपन्यास, नाटक और निबन्ध- सभी में उनकी गति समान है। किन्तु अपनी हर विद्या मॆं उनका कवि सर्वत्र मुखरित है। वस्तुतः एक कवि की गहरी कल्पनाशीलता ने ही साहित्य को अन्य विद्याओं में उन्हें विशिष्ट और व्यक्तिगत प्रयोग करने के लिये अनुप्रेरित किया। उनकी कहानियों का अपना पृथक और सर्वथा मौलिक शिल्प है; उनके चरित्र-चित्रण का, भाषा-सौष्ठव का, वाक्यगठन का एक सर्वथा निजी प्रतिष्ठान है।
उनके नाटकों में भी इसी प्रकार के अभिनव और श्लाघ्य प्रयोग मिलते हैं। अभिनेयता को दृष्टि मॆं रखकर उनकी बहुत आलोचना की गई तो उन्होंने एक बार कहा भी था कि 'रंगमंच नटक के अनुकूल होना चाहिये न कि नाटक रंगमंच के अनुकूल।' उनका यह कथन ही नाटक रचना के आन्तरिक विधान को अधिक महत्वपूर्ण सिद्व कर देता है।
कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास-सभी क्षेत्रों मॆं प्रसाद जी एक नवीन 'स्कूल' और नवीन जीवन-दर्शन की स्थापना करने में सफल हुये हैं। वे 'छायावाद' के संस्थापकों और उन्नायकों में से एक हैं। वैसे सर्वप्रथम कविता के क्षेत्र में इस नव-अनुभूति के वाहक वही रहे हैं और प्रथम विरोध भी उन्हीं को सहना पङा है। भाषा शैली और शब्द-विन्यास के निर्माण के लिये जितना संघर्ष प्रसाद जी को करना पङा है, उतना दूसओं को नही।
यह बहुत अंशो तक सच है कि कलाकार की आस्था उसके जीवन से बङी वस्तु होती है। जीवन तो चारों ओर की विपदाओं से घिरा होता है। उनसे परित्राण कहां! विश्वास और 'आस्था' क के रूप में कलाकार इस जीवन की क्षणिक अनुभूतियों को ऊपर उठाकर एक विशाल और कल्याण्कार मानव-भूमि की रचना करता है। प्रसाद जी ने भी अपने अल्पकालीन जीवन में इसी उच्च्तर संदेश को अपनी कृतियों के माध्यम से वाणी दी है।

प्रसाद जी द्वारा लिखे गये ग्रन्थ
काव्य कानन कुसुम
करुणालय
प्रेम्पथिक
महाराणा का महत्व
झरना
आंसू
लहर
कामायनी
नाटक कामना
विशाख
एक घूंट
अजातशत्रु
जनमेजय का नाग-यज्ञ
राज्यश्री
स्कन्दगुप्त
चन्द्रगुप्त
ध्रुवस्वामिनी
उपन्यास कंकाल
तितली
इरावती (अपूर्ण)
कहानी संग्रह छाया
आंधी
प्रतिध्वनि
इन्द्रजाल
आकाश दीप
निबन्ध संग्रह
काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध
प्रसाद-संगीत

नाटकों में प्रयुक्त गीतों का एकत्र संकलन
चित्राधार (विविध)
कामायनी : आधुनिक सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य
'कामायनी' छायावादी काव्य का एकमात्र महाकाव्य और आधुनिक साहित्य की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। इसमें मनु, श्रद्वा और इङा की पौराणिक कथा को लेकर युग की मानवता को समरसता के आनन्द का संदेश दिया गया है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में, "यह काव्य बङी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से परिपूर्ण है।"
प्रसाद का प्रकृति दर्शन मानव-सापेक्ष होने से उनका काव्य मानव के अत्यन्त मांसल और आकर्षक रूप वर्णन से भरा हुआ है। 'श्रद्वा' का रूप वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल निधि है। मानव जीवन के प्रति कवि का अगाध ममत्व है। इस ममत्व के मूल रूप में कवि का अति मानवीय रूप, जीवन की साधना और वास्तविकता है। इसलिये उसमें प्रेम और त्याग, अधिकार और आत्मविसर्जन, भोग और निग्रह दोंनो ही बातें पायी जाती हैं। अतीत को उन्होंने वर्तमान रूप मॆं ही देखा है। प्रसाद के सम्पूर्ण काव्य में करुणा और विषाद की भावना निष्क्रियता का संदेश न देकर मानव के महत्व और उसके जीवन मॆं आनन्द की प्रकृत अवस्थिति का निर्देश कर उसे जीवन -पथ पर आगे बढने के लिये प्रेरित करती है। प्रसाद के काव्य की यही सर्वश्रेष्ठ विशेषता है। उसमें जीवन की कर्मण्य हलचल और आशा का संगीत है।
प्रसाद काव्य का कलापक्ष
प्रसाद काव्य का कलाप्क्ष भी उसके भावपक्ष के समान ही उत्कृष्ट, प्रभावक और सुन्दर है। उनकी भाषा संस्कृत गर्भित होते हुये भी क्लिष्ट नहीं हो पायी है। शब्द-विन्यास, वस्तु-चयन, अलंकार योजना आदि स्भी की दृष्टि में भावों की व्यंजना सरस, सुन्दर, आकर्षक, प्रतीकात्मक और विशाल बनी है। रस-निरूपण में प्रसाद किसी रस विशेष को अपना लक्ष्य बनाकर नहीं चले हैं। सामान्य रूप से उनके काव्य का आरम्भ श्रघार से होकर उसकी परिणति शान्त या करुण-रस में होती है।