Thursday, December 3, 2009

जयशंकर प्रसाद



जिस समय खङी बोली और आधुनिक हिन्दी साहित्य किशोरावस्था में पदार्पण कर रहे थे; काशी के 'सुंघनी साहू' के प्रसिद्व घराने में श्री जयशंकर प्रसाद का जन्म ३० जनवरी १८९० (संवत१९४६) में हुआ। व्यापार में कुशल और साहित्य सेवी , अपके पिता श्री देवी प्रसाद पर लक्ष्मी की कृपा थी। इस प्रकार प्रसाद का पालन पोषण लक्ष्मी और सरस्वती के कृपापात्र घराने में हुआ। एक अत्यन्त सात्विक और धार्मिक मनोवृत्ति का प्रभाव जो पूरे परिवार में वर्तमान था, प्रसाद जी के ऊपर बचपन से ही पङता सा जान पङता था।उनका बचपन अत्यन्त सुख से व्यतीत हुआ, वे अपनी माता के साथ अनेक तीर्थों की यात्राओं पर भी गये।
जिस समय उनके पिता की मृत्यु हुई ( १९०१) वे क्वींस कालेज में सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। बङे भाई श्री शम्भू रत्न जी पर घर का सारा भार आ पङा। इसके कुछ दिन बाद प्रसाद जी को विवश होकर पढाई छोङकर दुकान पर बैठना पङा। पढाई छोङने के बाद भी वे अध्ययन में लगे रहे और घर पर ही उन्होंने अंग्रेजी, संस्कृत और हिन्दी में पढाई जारी रखी। आठ-नौ वर्ष की अवस्था मॆं ही अमरकोष और लघुकौमुदी कंटस्थ कर लेना अध्ययन की ओर उनकी गहरी निष्ठा का प्रमाण है। इसी आयु में उन्होंने ब्रजभाषा में कवित्त और सवैयों की रचना भी प्रारम्भ कर दी थी। कवि के अन्तर की व्याकुलता के लिये कहीं न कहीं कोई अभिव्यक्ति का मार्ग मिलना ही चाहिये। उनकी प्राम्भिक रचनायें इसी अचेतन व्याकुलता को व्यक्त करती हैं।
प्रसाद जी के सम्पूर्ण साहित्य में णीयति का बङा ही कौशलपूर्ण चित्रण मिलता है। सारे कर्म पुरुषार्थ पर अप्रत्यक्ष रूप से छाई हुई इस नीयति की विडम्बना प्रसाद-साहित्य की एक अप्रतिम विशेषता है। इस नीयति का रूप नाशकारी नहीं है। बहुत कुछ वह मनुष्य के कर्म क्षेत्र में निरपेक्ष होकर कूदने का आग्रह करती है और इसी स्थिति में आनन्द की अवधारण भी ठीक है। नीयति का यह स्वरूप कवि के निजी संघर्ष और भौतिक जीवन की विडम्बना की देन है। कुल सत्रह वर्षोंकी अवस्था में, बङे भाई के देहान्त से उन्हीं के ऊपर घर गॄहस्थी का सारा भार आ गया। एक ओर कवि की कलपना-अभिभूत मानस, दूसरी ओर यथार्त जीवन की कटु यंत्रणायें- उन्हीं के बीच प्रसाद जी का कलाकार जीवन निर्मित हुआ है। अध्ययन उनके इस जीवनानुभव को एक दार्शनिक और चिंतनात्मक आधार देने में सहायक हुआ है। भारतीय दर्शनों का अध्ययन और संस्कृत काव्य का अवगाहन करके प्रसाद जी ने एक शक्तिशाली और पूर्ण मानस-दर्शन की कल्पना की, जिसकी अनुभूति बहुत कुछ उनकी निजी यंत्रणाओं की देन है। उनका निर्माण और उनकी रचना सम्पूर्ण रूप से भारतीय है और भारतीयता के संस्कार उनके काव्य-साहित्य में और अधिक पुष्ट होकर आये हैं।
प्रसाद जी का जीवन कुल ४८ वर्ष का रहा है। इसी में उनकी रचना प्रक्रिया इसी विभीन्न साहित्यिक विद्याओं मॆं प्रतिफलित हुई कि कभी-कभी आश्चर्य होता है। कविता, उपन्यास, नाटक और निबन्ध- सभी में उनकी गति समान है। किन्तु अपनी हर विद्या मॆं उनका कवि सर्वत्र मुखरित है। वस्तुतः एक कवि की गहरी कल्पनाशीलता ने ही साहित्य को अन्य विद्याओं में उन्हें विशिष्ट और व्यक्तिगत प्रयोग करने के लिये अनुप्रेरित किया। उनकी कहानियों का अपना पृथक और सर्वथा मौलिक शिल्प है; उनके चरित्र-चित्रण का, भाषा-सौष्ठव का, वाक्यगठन का एक सर्वथा निजी प्रतिष्ठान है।
उनके नाटकों में भी इसी प्रकार के अभिनव और श्लाघ्य प्रयोग मिलते हैं। अभिनेयता को दृष्टि मॆं रखकर उनकी बहुत आलोचना की गई तो उन्होंने एक बार कहा भी था कि 'रंगमंच नटक के अनुकूल होना चाहिये न कि नाटक रंगमंच के अनुकूल।' उनका यह कथन ही नाटक रचना के आन्तरिक विधान को अधिक महत्वपूर्ण सिद्व कर देता है।
कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास-सभी क्षेत्रों मॆं प्रसाद जी एक नवीन 'स्कूल' और नवीन जीवन-दर्शन की स्थापना करने में सफल हुये हैं। वे 'छायावाद' के संस्थापकों और उन्नायकों में से एक हैं। वैसे सर्वप्रथम कविता के क्षेत्र में इस नव-अनुभूति के वाहक वही रहे हैं और प्रथम विरोध भी उन्हीं को सहना पङा है। भाषा शैली और शब्द-विन्यास के निर्माण के लिये जितना संघर्ष प्रसाद जी को करना पङा है, उतना दूसओं को नही।
यह बहुत अंशो तक सच है कि कलाकार की आस्था उसके जीवन से बङी वस्तु होती है। जीवन तो चारों ओर की विपदाओं से घिरा होता है। उनसे परित्राण कहां! विश्वास और 'आस्था' क के रूप में कलाकार इस जीवन की क्षणिक अनुभूतियों को ऊपर उठाकर एक विशाल और कल्याण्कार मानव-भूमि की रचना करता है। प्रसाद जी ने भी अपने अल्पकालीन जीवन में इसी उच्च्तर संदेश को अपनी कृतियों के माध्यम से वाणी दी है।

प्रसाद जी द्वारा लिखे गये ग्रन्थ
काव्य कानन कुसुम
करुणालय
प्रेम्पथिक
महाराणा का महत्व
झरना
आंसू
लहर
कामायनी
नाटक कामना
विशाख
एक घूंट
अजातशत्रु
जनमेजय का नाग-यज्ञ
राज्यश्री
स्कन्दगुप्त
चन्द्रगुप्त
ध्रुवस्वामिनी
उपन्यास कंकाल
तितली
इरावती (अपूर्ण)
कहानी संग्रह छाया
आंधी
प्रतिध्वनि
इन्द्रजाल
आकाश दीप
निबन्ध संग्रह
काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध
प्रसाद-संगीत

नाटकों में प्रयुक्त गीतों का एकत्र संकलन
चित्राधार (विविध)
कामायनी : आधुनिक सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य
'कामायनी' छायावादी काव्य का एकमात्र महाकाव्य और आधुनिक साहित्य की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। इसमें मनु, श्रद्वा और इङा की पौराणिक कथा को लेकर युग की मानवता को समरसता के आनन्द का संदेश दिया गया है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में, "यह काव्य बङी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से परिपूर्ण है।"
प्रसाद का प्रकृति दर्शन मानव-सापेक्ष होने से उनका काव्य मानव के अत्यन्त मांसल और आकर्षक रूप वर्णन से भरा हुआ है। 'श्रद्वा' का रूप वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल निधि है। मानव जीवन के प्रति कवि का अगाध ममत्व है। इस ममत्व के मूल रूप में कवि का अति मानवीय रूप, जीवन की साधना और वास्तविकता है। इसलिये उसमें प्रेम और त्याग, अधिकार और आत्मविसर्जन, भोग और निग्रह दोंनो ही बातें पायी जाती हैं। अतीत को उन्होंने वर्तमान रूप मॆं ही देखा है। प्रसाद के सम्पूर्ण काव्य में करुणा और विषाद की भावना निष्क्रियता का संदेश न देकर मानव के महत्व और उसके जीवन मॆं आनन्द की प्रकृत अवस्थिति का निर्देश कर उसे जीवन -पथ पर आगे बढने के लिये प्रेरित करती है। प्रसाद के काव्य की यही सर्वश्रेष्ठ विशेषता है। उसमें जीवन की कर्मण्य हलचल और आशा का संगीत है।
प्रसाद काव्य का कलापक्ष
प्रसाद काव्य का कलाप्क्ष भी उसके भावपक्ष के समान ही उत्कृष्ट, प्रभावक और सुन्दर है। उनकी भाषा संस्कृत गर्भित होते हुये भी क्लिष्ट नहीं हो पायी है। शब्द-विन्यास, वस्तु-चयन, अलंकार योजना आदि स्भी की दृष्टि में भावों की व्यंजना सरस, सुन्दर, आकर्षक, प्रतीकात्मक और विशाल बनी है। रस-निरूपण में प्रसाद किसी रस विशेष को अपना लक्ष्य बनाकर नहीं चले हैं। सामान्य रूप से उनके काव्य का आरम्भ श्रघार से होकर उसकी परिणति शान्त या करुण-रस में होती है।

5 comments:

सागर said...

पुनः च... ब्लॉग पर ऐसी जानकारी !!!! हैरत है... आजकल उनकी 'आंसू' पढ़ रहा हूँ...

"जो घनीभूत पीड़ा थी
मस्तक में स्मृति सी छाई
दुर्दिन में आंसू बनकर
वह आज बरसने को आई"

"यह सब स्फुलिंग हैं मेरे
इस ज्वालामयी जलन के
कुछ शेष चिन्ह बाकी हैं,
मेरे उस महामिलन के"

Sarika Saxena said...

शब्दांजलि पसंद करने के लिये धन्यवाद!
यूं तो ये सब हमने ही टाइप किया था, पर करीब चार साल पहले जब शब्दांजलि एक पत्रिका के रूप में निकलती थी। अभी तो बस यूं ही इसे पोस्ट कर देते हैं कि और लोगों को भी पढकर इसका फायदा पहुंचे।

अपूर्व said...

हमारे कालजयी और प्रातःस्मरणीय लेखकों के जीवन से जुड़े हुए प्रसंग और उनके रचनाकर्म को ब्लॉग पर लाने का जो महान काम आप कर रहे हैं उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाय..वो बेहद कम होगी..
प्रसाद जी सदैव मेरे प्रिय लेखक रहे..विशेषकर उनकी कविताएं और कहानियाँ हिंदी साहित्य के मील का पत्थर रहीं..और जो आँसू’ की जो लाइने सागर ने उ्द्धृत की हैं वो किसी जमाने मे मेरे दिमाग को भी पागल करने के लिये काफ़ी थीं..

DAMANDELHI.BLOGSPOT.COM said...

प्रसाद हिंदी भाषा एवं साहित्य के सच में प्रसाद थे ।

DAMANDELHI.BLOGSPOT.COM said...

हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रचार- प्रसार के लिए आप सभी साहित्य प्रेमियों/ भाषा प्रेमियों से अनुरोध है कि आप सभी जहाँ कहीं भी रहते हैं, अपने दैनिक कार्यों में हिंदी भाषा में बात करें और हिंदी भाषा के प्रति विशेष अभिरुचि/ समपॆण/ अपनत्व एवं हिंदी साहित्य के प्रति विशेष अभिरुचि प्रकट करें । हिन्दी भाषा राष्ट्रीय एकता/ सम्मान और देश प्रेम की भावना का स्पर्श कराती है । हम सब भारतीय अपनी दैनिक जरूरतों को हिंदी भाषा में ही पूरा करतें हैं और अपनी सहभागिता भी प्रत्येक कार्यों में हिंदी भाषा में ही निभाने में सक्षम हैं । फिर अन्य भाषा के प्रति अकारण मोह किस बात का । हिन्दी भाषा की विविध बोलियाॅ हैं और विविध बोलियों के कारण ही हिंदी को पहचाना जाता है । कहा जा सकता है कि हिंदी भाषा एवं साहित्य विविधता में एकता का प्रतीक है । इसे सीमित दायरे में रखने के बहाने तलाश न करें । हम सबको मिलकर क्षेत्रीयता की राजनीति से बाहर निकलने की कोशिश करनी होगी । हिन्दी भाषा को विविध बोलियों की भाषा बनाकर विकास किया जा सकता है नया शोध किया जा सकता है परंतु अलग भाषा/ बोली बनाकर विकास नहीं होगा । इस प्रकार तो हिंदी भाषा के विभाजन का खतरा मंडरायेगा । इस कार्यक्रम में हम सबको मिलकर प्रयत्न करना है । हम सबको मिलकर क्षेत्रीयता से बाहर निकलते का प्रयास करना है । भारत विभिन्न प्रान्तों का देश है । हर राज्य ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है । सबकी राष्ट्र के प्रति विशेष अभिरुचि/ विशिष्ट पहचान एवं अपनी सहभागिता है । हर राज्य की सरकार एवं प्रत्येक नागरिक का राज्य के प्रति समर्पण है । परंतु प्रश्न भारतीयता का है ? नागरिकता का है? मानवता का है? विश्वशिखर पर राष्ट्रीय एकता और सम्मान का है ? तो सबसे बड़ा प्रश्न तो भाषा का है । मेरा सभी भारतीयों से विनम्र निवेदन है कि आप अपनी भारतीयता को भाषा के सूत्र में एकत्र करें । देखियेगा विकास के मार्ग पर भाषा कभी भी आड़े नहीं आती है । मेरा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण के दीघॆ समंदर तक पूर्व से लेकर पश्चिम की अनंत सीमाओं तक जहाँ तक भारतीय एकता की आवाज की प्रतिध्वनि सुनाई देती है अनुरोध है कि आप सभी जहाँ कहीं हों हिंदी भाषा एवं साहित्य को माता की तरह प्रेम करेंगे । तभी सच्चे अर्थों में हम सभी मातृभाषा के प्रति समर्पित होकर राष्ट्रीय विकास की दौड़ में शामिल हो सकेंगे ।

"जागो-जागो हिंदी के नायक ,
भारत-भाग्य-विधाता ,
हे दक्षिण के दीर्घ समंदर,
उत्तर सागरमाथा ।!!"

डॉ चन्द्रकान्त तिवारी /नई दिल्ली !

सभी साहित्य प्रेमियों से अनुरोध है कि आप सभी जहाँ कहीं भी रहते हैं हिंदी भाषा के प्रति अपना प्रेम बनाये रखें ।