तुम कनक किरण के अन्तराल में
लुक-छिप कर चलते हो क्यों?
नत मस्तक गर्व वहन करते
यौवन के घन, रस-कन ढरते।
हे लाज भरे सौन्दर्य! बता दो
मौन बने रहते हो क्यों?
अधरों के मधुर कगारॊं में
कल-कल ध्वनि की गुंजारों में!
मधुसरिता- सी यह हंसी तरल
अपनी पीते रहते हो क्यों?
बेला विभ्रम की बीत चल्ली
रजनी गंधा की कली खिली-
अब सान्ध्य - मलय - आकुलित
दुकूल कलित हो, वों छिपते हो क्यों?
वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे!
जब सावन - घन - सघन बरसते-
इन आंखों की छाया भर थे!
सुर धनु रंजित नव -जल धर से-
भरे, क्षितिज व्यापी अम्बर से,
मिले चूमते जब सरिता के ,
हरित फूल युग मधुर अधर से।
प्राण पपीहा के स्वर वाली-
बरस रही थी जब हरियाली-
रस जल कन या लती -मुकुल से-
जो मदकाते गन्ध विधुर थे,
चित्र खींचती थी जब चपला,
नील मेघ-पट पर वह विरला,
मेरी जीवन-स्मृति के जिसमें-
खिल उठते वे रूप मधुर थे।
[लहर- जयशंकर प्रसाद/ भारती भंडार, लीडर प्रेस-प्रयाग]
4 comments:
जयशंकर प्रसाद जी की इतनी श्रेष्ठ कविता पढ़वाने के लिए आभार।
बहुत सुन्दर कविता। धन्यवाद्
सुंदर वर्णन।
इस कविता को हमारे साथ बांटने के लिए आभार।
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सांसद/विधायक की बात की तनख्वाह लेते हैं?
अंधविश्वास से जूझे बिना नारीवाद कैसे सफल होगा ?
ओह! दूसरा झटका... ऐसे तो ऑल आउट हो जाऊंगा...
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