Thursday, December 10, 2009

मैंने भी किया मतदान

जब मेरे मित्र ने मुझसे मतदान करने के लिये कहा तो तमाम उदासीन मतदाताओं की तरह मैंने भी अनिच्छा जाहिर कर दी। मित्र ने जब जोर दिया कि इस देश की आधी आबादी तक इस जल्दी-जल्दी आने वाले राष्ट्रीय पर्व पर मतदान करती है। इसलिये वक्त के साथ चलने के लिये मतदान करने वाले लोगों में नाम शुमार करना जरूरी है, इस पर मैंने जवाब दिया कि जो आधी आबादी मतदान नहीं करती है, मैं उसमें शामिल होना पसंद करूंगा। इसके कई फायदे भी हैं। बिना वोट डाले मतदान करने वाली आधी आबादी को हासिल होने वाली सुविधाओं का उपयोग मैं भी कर सकता हूं। महंगाई, गन्दगी बेरोजगारी, असुरक्षा जैसी जब तमाम दिक्कतों से मुझ जैसे मतदान न करने वाले लोग पीड़ित हैं उसी पीड़ा से मतदान करने वाले लोग भी ग्रसित हैं तो मेरे जैसों में और उन जैसों में क्या फर्क है?
मित्र ने जब यह कहा कि मेरे पास शताब्दी में पहली और आखिरी बार मतदान करने का यह आखिरी अवसर है तो मैं निरुत्तर हो गया। वास्तव में यह ऎसा अवसर था जिसका लाभ न उठाने पर अगली शताब्दी में मुझे अफसोस होता। मैं नहीं चाहता था कि इस शताब्दी में किये गये कुकर्मों का फल अगली शताब्दी में भुगतूं। इसलिये मैं अपने मित्र की राय से सहमत हो गया। मैं मतदान के लिये मित्रों के साथ निकल पड़ा। मैंने देखा कि सड़क के किनारे तख्त पर पंडो की तरह कुछ लोग बैठे थे जिनके पास सिर झुकाये हुये कुछ लोग किसी लिस्ट में अपना नाम खोज रहे थे। जैसे अक्सर लाटरी की दुकान पर लोग सिर झुकाये नम्बर मिलाते नज़र आते हैं। सिर झुकाये - झुकाये ही वापस भी चले जाते हैं। कम से कम यहां अपना नाम मिल जाने पर सिर उठाकर चलने के अवसर ज्यादा थे इसलिये मैं भी अपना नाम तलाशने वहां पहुंच गया।
बहुत खोजने पर एक वोटर लिस्ट में मुझे मेरा नाम दिख ही गया। वोटर लिस्ट में अपना नाम देखते ही मुझे गर्व का अहसास हुआ क्योंकि बहुत से लोगों के नाम लिस्ट में नहीं मिल रहे थे और उनके चेहरे पर निराशा के भाव स्प्ष्ट दिख रहे थे। मैं भी कैसा मूर्ख था। जिसके लिये लोग परेशान घूम रहे थे, उस अवसर को मैं यूं ही गंवा रहा था। विजय के भाव से मैं मतदान केन्द्र पर पहुंचा तो वहां की सूची में मुझे मेरा नाम नहीं मिला। मैं झटका खा गया। मतदान के लिये अचानक मैं बेताब हो गया था और इसी चक्कर में बूथों के चक्कर लगाने लगा।
कई बूथों के चक्कर लगाने पर मुझे एक बूथ में अपना नाम मिल ही गया। पीठासीन अधिकारी से कुछ देर की बहस के बाद मुझे पता चला कि मेरा नाम दो अलग-अलग सूचियों में दर्ज है अर्थात दो अलग-अलग केन्द्रों पर। इस अहसास के साथ ही मैं दोहरे उल्लास से भर गया कि मेरा नाम दो-दो जगहों पर दर्ज है। लोग एक सूची में नाम पाने को तरस रहे थे, और मेरा नाम दो-दो सूची में था, वाह!
जब मैंने इलैक्ट्रानिक मशीन पर बतन दबाया और मुझे बताया गया कि मेरा वोट पड़ गया है तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। क्या इतनी जल्दी मैंने देश के भाग्य का फैसला कर दिया था? एक अजीब सी रिक्तता का आभास होने लगा था। मैंने अपनी भावना से जब अपने मित्र को अवगत कराया तो वह मुस्कुराने लगे, "क्या दोबारा वोट डालने की इच्छा हो रही है? अभी मन भरा नहीं है? चलिये, एक और वोट डाल दीजिये।"
मैंने सोंचा कि वे मजाक कर रहे हैं। पीठासीन अधिकारी बैठे हैं, तमाम पार्टियों के एजेन्ट बैठे हैं, पुलिस मौजूद है। ऎसे में दूसरा वोट? और सबसे बड़ी बात तो उंगली पर स्याही भी लग चुकी है उसे कैसे छुपायेंगे?
मेरा अंतर्द्वन्द मित्र की समझ में आ गया, " चिन्ता मत करिये, कुछ नहीं होगा, चलिये वोट डालिये।" यह कहकर उन्होंने जेब से एक पर्ची निकालकर मुझे थमाया जिस पर राम सुमेर सोनकर लिखा हुआ था। मैं अपनी जगह से नहीं हिला तो मित्र ने मुझे समझाया, "यहां बैठे लोगों से आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है, सभी लोग अपने हैं। कहीं कुछ नहीं होगा। मैं साथ में जो हूं।"
मेरी हिम्मत मेरा साथ छोड़ गई थी। मान भी लिया कि ये सब लोग नहीं बोलेंगे लेकिन अपनी नैतिकता भी तो कोई चीज़ होती है। मैं किस मुंह से सबके सामने से गुजरुंगा? कहीं पकड़ गया तो लोग क्या कहेंगे? वैसे भी बूथ कैप्चरिंग के कोई चिन्ह नहीं दिख रहे थे। सभी लोग शान्ति पूर्वक अपना काम कर रहे थे। ऎसे लोगों से बिके हुये होने की उम्मीद कैसे की जा सकती थी?
मित्र ने मुझे समझाया कि यहां पर जितने पोलिंग ऎजेन्ट बैठे हैं , सब अपने हैं। भले ही वे किसी भी पार्टी के ऎजेन्ट दिख रहे हों, लेकिन हैं अपने आदमी। आप घबरा क्यों रहे हैं? अच्छा आप, मेरे पीछे -पीछे रहिये। बोलियेगा कुछ नहीं।
मैं मित्र के पीछे खड़ा हो गया। पर्ची दिखाई तो दस्तखत करने के लिये कहा गया। राम सुमेर के नाम का हस्ताक्षर कर दिया तो स्याही लगाने वाले के पास पहुंचा।
उसने मेरी उंगली में लगी स्याही देखी तो मित्र ने उसे कुछ इशारा कर दिया। उसने स्याही के ऊपर दुबारा स्याही लगाकर मुझे वोटिंग मशीन के पास जाने को कहा। मेरा दिल जोरों से धडक रहा था। बटन दबाने तक मुझे पकड़े जाने का अहसास जोरों से होने लगा था लेकिन बटन दबाते ही जैसे सारा भय उड़न छू हो गया। मैं सही सलामत बूथ से बाहर निकला तो ऎसा लगा कि चुनाव जीत गया हूं।
मेरे मित्र ने मेरी तरफ मुस्कुराते हुये देखा और मुझसे पूंछा कि कौन सा बटन दबाया था? मैंने बताया कि टेंशन के कारण मुझे याद ही नहीं रहा कि कौन सा बटन दब गया था। मेरे मित्र ने अपने माथे पर हांथ मारते हुये कहा कि 'नास कर दिया।' जाओ एक और वोट डालकर आओ। यह कहते हुये उन्होंने एक और पर्ची निकालकर मुझे दे दी और बूथ पर किसी को इशारा करते हुये कहा कि 'जरा इनका वोट भी डलवा देना।'
इस बार मैंने बिना किसी शर्म, हिचक और भय के मतदान कर दिया। वक्त वक्त की बात है। आधे घन्टे के भीतर मेरी ज़िन्दगी और दृष्टि तक बदल गई थी। कहां मैं वोट डालना नहीं चाहता था और कहां एक ही बूथ पर तीन तीन बार वोट डाल चुका था। मेरी हिम्मत बढ चुकी थी। अचानक मुझे मेरी एक रिश्तेदार दिखाई दीं। अपना रौब गालिब करने के लिये मैं उनके पास पहुंचा और पूंछा कि क्या आप दोबारा वोट डालना चाहेंगी?
आगे की बातचीत में वही सब कुछ हुआ जो थोड़ी देर पहले मेरे साथ हुआ था। मैंने महिला को तैयार कर लिया था और उसके लिये पर्ची मांग ली थी। लेकिन जब वह महिला स्याही लगाने वाले के पास पहुंची तो हांथ दिखाने से मना कर दिया। वह रंगे हांथो नहीं पकड़ना चाह्ती थीं, या फिर उनके सिद्वान्त मुझसे ज्यादा मजबूत थे। कुछ देर की जिद के बाद अंततः बिना स्याही लगाये ही उसे मतदान करने की अनुमति दे दी गई। अनुभव के नय-नये क्षितिज मेरे सामने खुलने लगे थे।
अब मैंने अपनी दृष्टि खोलकर जब मतदान केन्द्र पर किसी तरह का बाहरी कब्जा नहीं था बल्कि सभी के भीतरी तार जुड़े हुये थे। विभिन्न पार्टियों के लोगों का दबदबा कायम था। कोई किसी के मामले में हस्तक्षेप नहीं कर रहा था। जो कोई अपने साथियों को वोट डालने के लिये ला रहा था, उसके वोट पड़ जा रहे थे। भले ही उसका नाम मतदाता सूची में हो या न हो या वह पहले भी चार बार वोट डाल चुका हो।
हां, इतनी सावधानी जरूर बरती जा रही थी कि एक ही बूथ पर एक ही व्यक्ति से कई बार मतदान न कराकर मतदाता की सेवा कई बूथों पर ली जा रही थी। सबकी अपेक्षा थी कि मतदान शान्तिपूर्ण हो। कोई लफड़ा न हो। किसी की नौकरी या प्रतिष्ठा खतरे में न पड़े। यही चुनाव आयोग चाहता है, यही निर्वाचन अधिकारी और यही प्रत्याशियों के समर्थक। जीते कोई भी लेकिन अशान्ति पैदा करके नहीं। यही है समय की पुकार!
--स्नेह मधुर

Thursday, December 3, 2009

सौन्दर्य

तुम कनक किरण के अन्तराल में
लुक-छिप कर चलते हो क्यों?

नत मस्तक गर्व वहन करते
यौवन के घन, रस-कन ढरते।
हे लाज भरे सौन्दर्य! बता दो
मौन बने रहते हो क्यों?

अधरों के मधुर कगारॊं में
कल-कल ध्वनि की गुंजारों में!
मधुसरिता- सी यह हंसी तरल
अपनी पीते रहते हो क्यों?

बेला विभ्रम की बीत चल्ली
रजनी गंधा की कली खिली-

अब सान्ध्य - मलय - आकुलित
दुकूल कलित हो, वों छिपते हो क्यों?
वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे!
जब सावन - घन - सघन बरसते-
इन आंखों की छाया भर थे!
सुर धनु रंजित नव -जल धर से-
भरे, क्षितिज व्यापी अम्बर से,
मिले चूमते जब सरिता के ,
हरित फूल युग मधुर अधर से।
प्राण पपीहा के स्वर वाली-
बरस रही थी जब हरियाली-
रस जल कन या लती -मुकुल से-
जो मदकाते गन्ध विधुर थे,
चित्र खींचती थी जब चपला,
नील मेघ-पट पर वह विरला,
मेरी जीवन-स्मृति के जिसमें-
खिल उठते वे रूप मधुर थे।
[लहर- जयशंकर प्रसाद/ भारती भंडार, लीडर प्रेस-प्रयाग]

उठ उठ री लघु लोल लहर

उठ उठ री लघु लोल लहर
करुणा की नव अंगराई सी,
मलयानिल की परछाई सी,
इस सूखे तट पर छिटक छहर।
शीतल कोमल चिर कम्पन सी,
दुर्लभित हठीले बचपन सी,
तू लौट कहां जाती है री-
यह खेल खेल ले ठहर ठहर!
उठ-उठ गिर-गिर फिर-फिर आती,
नर्तित पद-चिन्ह बना जाती,
सिकता की रेखायें उभार-
भर जाती अपनी तरल सिहर!
तू भूल न री, पंकज वन में,
जीवन के इस सूने पन में,
ओ प्यार पुलक हे भरी धुलक!
आ चूम पुलिन के विरस अधर!

दो बूंद
शरद का सुन्दर नीलाकाश,
निशा निखरी, था निर्मल हास।
बह रही छाया पथ में स्वच्छन्द,
सुधा सरिता लेती उच्छवास।
पुलक कर लगी देखने धरा,
प्रकृति भी सकी न आंखे मूंद,
सुशीतल कारी शशि आया,
सुधा की मानो बङि सी बूंद।
हरित किसलय मय कोमल वृक्ष,
झुक रहा जिसका --- भार,
उसई पर रे मत वाले मधुप!
बैठकर भरता तू गुञ्जार,
न आशा कर तू अरे! अधीर
कुसुम रस- रस ले लूंगा मूंद,
फूल है नन्हा सा नादान,
भरा मकरन्द एक ही बूंद।
[झरना- जय शंकर प्रसाद ]

जयशंकर प्रसाद



जिस समय खङी बोली और आधुनिक हिन्दी साहित्य किशोरावस्था में पदार्पण कर रहे थे; काशी के 'सुंघनी साहू' के प्रसिद्व घराने में श्री जयशंकर प्रसाद का जन्म ३० जनवरी १८९० (संवत१९४६) में हुआ। व्यापार में कुशल और साहित्य सेवी , अपके पिता श्री देवी प्रसाद पर लक्ष्मी की कृपा थी। इस प्रकार प्रसाद का पालन पोषण लक्ष्मी और सरस्वती के कृपापात्र घराने में हुआ। एक अत्यन्त सात्विक और धार्मिक मनोवृत्ति का प्रभाव जो पूरे परिवार में वर्तमान था, प्रसाद जी के ऊपर बचपन से ही पङता सा जान पङता था।उनका बचपन अत्यन्त सुख से व्यतीत हुआ, वे अपनी माता के साथ अनेक तीर्थों की यात्राओं पर भी गये।
जिस समय उनके पिता की मृत्यु हुई ( १९०१) वे क्वींस कालेज में सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। बङे भाई श्री शम्भू रत्न जी पर घर का सारा भार आ पङा। इसके कुछ दिन बाद प्रसाद जी को विवश होकर पढाई छोङकर दुकान पर बैठना पङा। पढाई छोङने के बाद भी वे अध्ययन में लगे रहे और घर पर ही उन्होंने अंग्रेजी, संस्कृत और हिन्दी में पढाई जारी रखी। आठ-नौ वर्ष की अवस्था मॆं ही अमरकोष और लघुकौमुदी कंटस्थ कर लेना अध्ययन की ओर उनकी गहरी निष्ठा का प्रमाण है। इसी आयु में उन्होंने ब्रजभाषा में कवित्त और सवैयों की रचना भी प्रारम्भ कर दी थी। कवि के अन्तर की व्याकुलता के लिये कहीं न कहीं कोई अभिव्यक्ति का मार्ग मिलना ही चाहिये। उनकी प्राम्भिक रचनायें इसी अचेतन व्याकुलता को व्यक्त करती हैं।
प्रसाद जी के सम्पूर्ण साहित्य में णीयति का बङा ही कौशलपूर्ण चित्रण मिलता है। सारे कर्म पुरुषार्थ पर अप्रत्यक्ष रूप से छाई हुई इस नीयति की विडम्बना प्रसाद-साहित्य की एक अप्रतिम विशेषता है। इस नीयति का रूप नाशकारी नहीं है। बहुत कुछ वह मनुष्य के कर्म क्षेत्र में निरपेक्ष होकर कूदने का आग्रह करती है और इसी स्थिति में आनन्द की अवधारण भी ठीक है। नीयति का यह स्वरूप कवि के निजी संघर्ष और भौतिक जीवन की विडम्बना की देन है। कुल सत्रह वर्षोंकी अवस्था में, बङे भाई के देहान्त से उन्हीं के ऊपर घर गॄहस्थी का सारा भार आ गया। एक ओर कवि की कलपना-अभिभूत मानस, दूसरी ओर यथार्त जीवन की कटु यंत्रणायें- उन्हीं के बीच प्रसाद जी का कलाकार जीवन निर्मित हुआ है। अध्ययन उनके इस जीवनानुभव को एक दार्शनिक और चिंतनात्मक आधार देने में सहायक हुआ है। भारतीय दर्शनों का अध्ययन और संस्कृत काव्य का अवगाहन करके प्रसाद जी ने एक शक्तिशाली और पूर्ण मानस-दर्शन की कल्पना की, जिसकी अनुभूति बहुत कुछ उनकी निजी यंत्रणाओं की देन है। उनका निर्माण और उनकी रचना सम्पूर्ण रूप से भारतीय है और भारतीयता के संस्कार उनके काव्य-साहित्य में और अधिक पुष्ट होकर आये हैं।
प्रसाद जी का जीवन कुल ४८ वर्ष का रहा है। इसी में उनकी रचना प्रक्रिया इसी विभीन्न साहित्यिक विद्याओं मॆं प्रतिफलित हुई कि कभी-कभी आश्चर्य होता है। कविता, उपन्यास, नाटक और निबन्ध- सभी में उनकी गति समान है। किन्तु अपनी हर विद्या मॆं उनका कवि सर्वत्र मुखरित है। वस्तुतः एक कवि की गहरी कल्पनाशीलता ने ही साहित्य को अन्य विद्याओं में उन्हें विशिष्ट और व्यक्तिगत प्रयोग करने के लिये अनुप्रेरित किया। उनकी कहानियों का अपना पृथक और सर्वथा मौलिक शिल्प है; उनके चरित्र-चित्रण का, भाषा-सौष्ठव का, वाक्यगठन का एक सर्वथा निजी प्रतिष्ठान है।
उनके नाटकों में भी इसी प्रकार के अभिनव और श्लाघ्य प्रयोग मिलते हैं। अभिनेयता को दृष्टि मॆं रखकर उनकी बहुत आलोचना की गई तो उन्होंने एक बार कहा भी था कि 'रंगमंच नटक के अनुकूल होना चाहिये न कि नाटक रंगमंच के अनुकूल।' उनका यह कथन ही नाटक रचना के आन्तरिक विधान को अधिक महत्वपूर्ण सिद्व कर देता है।
कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास-सभी क्षेत्रों मॆं प्रसाद जी एक नवीन 'स्कूल' और नवीन जीवन-दर्शन की स्थापना करने में सफल हुये हैं। वे 'छायावाद' के संस्थापकों और उन्नायकों में से एक हैं। वैसे सर्वप्रथम कविता के क्षेत्र में इस नव-अनुभूति के वाहक वही रहे हैं और प्रथम विरोध भी उन्हीं को सहना पङा है। भाषा शैली और शब्द-विन्यास के निर्माण के लिये जितना संघर्ष प्रसाद जी को करना पङा है, उतना दूसओं को नही।
यह बहुत अंशो तक सच है कि कलाकार की आस्था उसके जीवन से बङी वस्तु होती है। जीवन तो चारों ओर की विपदाओं से घिरा होता है। उनसे परित्राण कहां! विश्वास और 'आस्था' क के रूप में कलाकार इस जीवन की क्षणिक अनुभूतियों को ऊपर उठाकर एक विशाल और कल्याण्कार मानव-भूमि की रचना करता है। प्रसाद जी ने भी अपने अल्पकालीन जीवन में इसी उच्च्तर संदेश को अपनी कृतियों के माध्यम से वाणी दी है।

प्रसाद जी द्वारा लिखे गये ग्रन्थ
काव्य कानन कुसुम
करुणालय
प्रेम्पथिक
महाराणा का महत्व
झरना
आंसू
लहर
कामायनी
नाटक कामना
विशाख
एक घूंट
अजातशत्रु
जनमेजय का नाग-यज्ञ
राज्यश्री
स्कन्दगुप्त
चन्द्रगुप्त
ध्रुवस्वामिनी
उपन्यास कंकाल
तितली
इरावती (अपूर्ण)
कहानी संग्रह छाया
आंधी
प्रतिध्वनि
इन्द्रजाल
आकाश दीप
निबन्ध संग्रह
काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध
प्रसाद-संगीत

नाटकों में प्रयुक्त गीतों का एकत्र संकलन
चित्राधार (विविध)
कामायनी : आधुनिक सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य
'कामायनी' छायावादी काव्य का एकमात्र महाकाव्य और आधुनिक साहित्य की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। इसमें मनु, श्रद्वा और इङा की पौराणिक कथा को लेकर युग की मानवता को समरसता के आनन्द का संदेश दिया गया है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में, "यह काव्य बङी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से परिपूर्ण है।"
प्रसाद का प्रकृति दर्शन मानव-सापेक्ष होने से उनका काव्य मानव के अत्यन्त मांसल और आकर्षक रूप वर्णन से भरा हुआ है। 'श्रद्वा' का रूप वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल निधि है। मानव जीवन के प्रति कवि का अगाध ममत्व है। इस ममत्व के मूल रूप में कवि का अति मानवीय रूप, जीवन की साधना और वास्तविकता है। इसलिये उसमें प्रेम और त्याग, अधिकार और आत्मविसर्जन, भोग और निग्रह दोंनो ही बातें पायी जाती हैं। अतीत को उन्होंने वर्तमान रूप मॆं ही देखा है। प्रसाद के सम्पूर्ण काव्य में करुणा और विषाद की भावना निष्क्रियता का संदेश न देकर मानव के महत्व और उसके जीवन मॆं आनन्द की प्रकृत अवस्थिति का निर्देश कर उसे जीवन -पथ पर आगे बढने के लिये प्रेरित करती है। प्रसाद के काव्य की यही सर्वश्रेष्ठ विशेषता है। उसमें जीवन की कर्मण्य हलचल और आशा का संगीत है।
प्रसाद काव्य का कलापक्ष
प्रसाद काव्य का कलाप्क्ष भी उसके भावपक्ष के समान ही उत्कृष्ट, प्रभावक और सुन्दर है। उनकी भाषा संस्कृत गर्भित होते हुये भी क्लिष्ट नहीं हो पायी है। शब्द-विन्यास, वस्तु-चयन, अलंकार योजना आदि स्भी की दृष्टि में भावों की व्यंजना सरस, सुन्दर, आकर्षक, प्रतीकात्मक और विशाल बनी है। रस-निरूपण में प्रसाद किसी रस विशेष को अपना लक्ष्य बनाकर नहीं चले हैं। सामान्य रूप से उनके काव्य का आरम्भ श्रघार से होकर उसकी परिणति शान्त या करुण-रस में होती है।

Monday, November 30, 2009

उन्माद प्रेमचन्द

मनहर ने अनुरक्त होकर कहा-यह सब तुम्हारी कुर्बानियों का फल है वागी। नहीं तो आज मैं किसी अन्धेरी गली में, किसी अंधेरे मकान के अन्दर अंधेरी जिन्दगी के दिन काट र्हा होता। तुम्हारी सेवा और उपकार हमेशा याद रहेंगे, तुमने मेरा जीवन सुधार दिया -मुझे आदमी बना दिया।
वागेश्वरी ने सिर झुकाये नम्रता से उत्तर दिया-यह तुम्हारी सज्जनता मानूं,मैं बेचारी भला तुम्हारी जिन्दगी क्या सुधारूंगी? हां, तुम्हारे साथ रहकर मैं भी एक दिन अदमी बन जाऊंगी। तुमने परिश्रम किया, उसका पुरस्कार पाया। जो अपनी मदद आप करते हैं उनकी मद परमात्मा भी करते हैं, अगर मुझ-जैसी गंवारन किसी और के पाले पङती, तो अब तक न जाने क्या गत बनी होती।
मनहर मानो इस बहस में अपना पक्ष-समर्थ करने के लिये कमर बांधता हुआ बोला-तुम जैसी गंवारन पर मैं एक लाख सजी हुयी गुङियों और रंगीन तितलियों को निछावर कर सकता हूं। तुमने मेहनत करने का वह अवसर और अवकाश दिया जिनके बिना कोई सफल हो ही नहीं सकता। अगर तुमने अपनी अन्य विलास प्रिय, रंगीन मिजाज बहनों की तरह मुझे अपने तकाजों से दबा रखा होता, तो मुझे उन्नति करने का अवरर कहां मिलता? तुमने मुझे निश्चिन्तता प्रदान की, जो स्कूल के दिनों में भी न मिली थी। अपने और सहकारियों को देखता हूं, तो मुझे उन पर दया आती है। किसी का खर्च पूरा नहीं पङता। आधा महीना भी नहीं जाने पाता और हांथ खाली हो जाता है। कोई दोस्तों से उधार मांगता है, कोई घरवालों को खत लिखता है। कोई गहनों की फिक्र में मरा जाता है कोई कपङों की। कभी नौकर की टोह में हैरान, कभी वैध की टोह में परेशान। किसी को शान्ति नहीं। आये दिन स्त्री-पुरुष मॆं जूते चलते हैं। अपना जैसा भाग्यवान तो मुझे कोई नहीं दीख पङता। मुझे घर के सारे आनन्द प्राप्त हैं और जिम्मेदारी एक भी नहीं। तुमने ही मेरे हौसलों को उभारा, मुझे उत्तेजना दी। जब कभी मेरा उत्साह टूटने लगता, तो तुम मुझे तसल्ली देती थीं। मुझे मालूम ही नहीं हुआ कि तुम घर का प्रबन्ध कैसे करती हो। तुमने मोटे से मोटा काम अपने हाथों से किया, जिससे मुझे पुस्तकों के लिये रुपयों की कमी न हो। तुम्ही मेरी देवी हो और तुम्हारी ही बदौलत आज मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है। मैं तुम्हारी इन सेवाओं की स्मृति को हृदय में सुरक्षित रखूंगा वागी, और एक दिन वह आयेगा, जब तुम अपने त्याग और तप का आनन्द उठाओगी।
वागेश्वरी ने गदगद होकर कहा-तुम्हारे ये शब्द मेरे लिये सबसे बङे पुरस्कार हैं, मानू! मैं और किसी पुरस्कार की भूखी नहीं! मैंने जो कुछ तुम्हारी थोङी बहुत सेवा की, उसका इतना यश मुझे मिलेगा, मुझे तो आशा भी न थी।
मनहरनाथ का हृदय इस समय उदार भावों से उमङा हुआ था। वह यों बहुत ही अल्पभाषी, कुछ रूखा आदमी था और शायद बागेश्वरी के मन में उसकी शुष्कता पर दःख भी हुआ हो; पर इस समय सफलता के नशे ने उसकी वाणी मॆं पर लगा दिये थे। बोला- जिस समय मेरे विवाह की बात चल रही थी, मैं बहुत शंकित था। समझ गया कि मुझे जो कुछ होना था हो गया। अब सारी उम्र देवी जी की नाजबरदारी में गुजरेगी। बङे-बङे अंग्रेज विद्वानों की पुस्तकें पढने से मुझे विवाह से घृणा हो गयी थी। मैं इसे उम्र कैद समझने लगा था, जो आत्मा और बुधि की उन्नति का मार्ग बन्द क्र देती है, जो मनुष्य को स्वार्थ का भक्त बना देती है, जो जीवन के क्षेत्र को संकीर्ण कर देती है। मगर दो ही चार मास के बाद मुझे अपनी भूल मालूम हुयी। मुझे मालूम हुआ कि सुभार्या स्वर्ग की सबसे बङी विभूति है, जो मनुष्य को उज्जवल और पूर्ण बना देती है, जो आत्मोन्नति का मूलमन्त्र है। मुझे मालूम हुआ कि विवाह का उद्देश्य भोग नहीं, आत्मा का विकास है।
वागेश्वरी मनहर की नम्रता सहन नहीं कर सकी। वह किसी बात के बहाने से उठकर चली गयी।
मनहर और वागेश्वरी का विवाह हुये तीन साल गुजरे थे। मनहर उस समय एक दफ्तर में क्लर्क था। सामान्य युवकों की भांति उसे भी जासूसी उपन्यासों से बहुत प्रेम था। धीरे-धीरे उसे जासूसी का शौक हुआ। इस विषय पर उसने बहुत सा साहित्य जमा किया और बङे मनोयोग से उसका अध्ययन किया। इसके बाद उसने इस विषय पर स्वयं एक किताब लिखी। रचना में उसने ऎसी विलक्षण विवेचन-शक्ति का परिचय दिया, उसकी शैली भी इतनी रोचक थी, कि जनता ने उसे हाथों-हाथ लिया। इस विषय पर वह सर्वोत्तम ग्रन्थ था।
देश में धूम मच गयी। यहां तक कि इटली और जर्मनी-जैसे देशों से उसके पास प्रशंसा-[अत्र आये और इस विषय की पत्रिकाओं में अच्छी-अच्छी आलोचनाएं निकली। अन्त में सरकार ने भी अपनी गुण्ग्राहकता का परिचय दिया-उसे इंग्लैण्ड जाकर इस कला का अभ्यास करने के लिये वृत्ति प्रदान की। और यह सब कुछ वागेश्वरी की भहोरणा का शूभ-फल था।
मनहर की इच्छा थी कि वागेश्वरी भी साथ चले, पर वागेश्वरी उनके पांव की बेङी नहीं बनना चाहती थी। उसने घर रहकर सास-ससुर की सेवा करना ही उचित समझा।
मनहर के लिये इंग्लैण्ड एक दूसरी दुनिया थी, जहां उन्नति के मुख्य साधनों में एक रूपवती पत्नी का होना भी जरूरी था। अगर पत्नी रूपवती है, चपल है, वाणी कुशल है, प्रगल्भ है, तो समझ लो उसके पति को सोने की खान मिल गयी। अब वह उन्नति के शिखर पर पहुंच सकता है। मलोयोग और तपस्या के बलबूते पर नहीं, पत्नी के प्रभाव और आकर्षण के तेज पर। उस संसार में रूप और लावण्य व्रत के बन्धनों से मुक्त, एक अबाध सम्मपत्ति थी। जिसने किसी रमणी को प्राप्त कर लिया, उसकी मानो तकदीर खुल गयी। यदि कोई सुन्दरी कोई सहधर्मिणी नहीं है, तो तुम्हारा सारा उध्योग, सारी कार्य पटुता निष्फल है, कोई तुम्हारा पुरसाहाल न होगा; अतएव वहां रूप को लोग व्यापारिक दृष्टि से देखते थे।
साल ही भर के अंग्रेजी समाज के संसर्ग ने मनहर की मनोवृत्तियों में क्रान्ति पैदा कर दी। उसके मिजाज ने सांसारिकता का इतना प्रधान्य हो गया कि कोमल भावों के लिये वहां कोई स्थान ही न रहा। वागेश्वरी उसके विध्याभ्यास में सहायक होती थी, पर उस अधिकार और पद की ऊचाइयों तक न पहुंचा सकती थी। उसके त्याग और सेवा का महत्व भी अब मनहर की निगाहों में कम होता जा रहा था। वागेश्वरी अब उसे एक व्यर्थ सी वस्तु मालूम होती थी, क्योंकि भौतिक दृष्टि से हर एक वस्तु का मूल्य उससे होने वाले साथ पर ही अवलम्बित था। अपना पूर्व जीवन अब उसे हास्यास्पद जान पङता था। चंचल, हंसमुख, विनोदिनी अंग्रेज युवतियों के सामने वागेश्वरी एक हल्की तुच्छ सी वस्तु जान पङती-इस विधुत प्रकाश में वह दीपक अब मलिन पङ गया था। यहां तक कि शनैः शनैः उसका वह मलिन प्रकाश भी अब लुप्त हो गया।
मनहर ने अपने भविष्य का निष्चय कर लिया। वह भी एक रमणी की रूप नौका द्वारा ही अपने लक्ष्य तक पहुंचेगा। इसके सिवा कोई और उपाय न था।

रात के नौ बजे थे। मनहर लंदन के एक फैशनेबल रेस्ट्रां में बना-ठना बैठा था। उसका रंग-रूप और ठाठ-बाट देखकर सहसा कोई नहीं कह सकता था कि वह अंग्रेज नहीं है। लंदन ने भी उसके सौभाग्य ने उसका साथ दिया था। उसने चोरी के कई गहरे मुआमलों का पता लगा लिया था, इसलिये उसे धन और यश दोनो ही मिल रहा था। वह अब यहां के भरतीय समाज का प्रमुख अंग बन गया था, जिसके आथित्य और सौजन्य की सभी सराहना करते थे। उसका लबो-लहजा भी अंग्रेजों से मिलता जुलता था। उसके सामने मेज के दूसरी ओर एक रमणी बैठी हुई उनकी बातें बङे ध्यान से सुन रही थी। उसके अंग-अंग से यौवन ट्पका पङता था। भारत के अदभुत वृत्तान्त सुनकर उसकी आंखे खुशी से चमक रही थीं। मनहर चिङिया के सामने दाने बिखेर रहा था।
मनहर-विचित्र देश है जेनी, अत्यन्त विचित्र।पांच-पांच साल के दूल्हे तुम्हे भारत के सिवा कहीं देखने को नहीं मिलेंगे। लाल रंग के चमकदार कपङे, सिर पर चमकता हुआ लम्बा टोप, चेहर पर फूलों का झालर्दार बुर्का, घोङे पर सवार चले जा रहे हैं। दो आदमी दोनों तरफ़ से छतरी लगाये हुए हैं। हांथो में मेंहदी लगी हुयी है।
जेनी- मेंहदी क्यों लगाते हैं?
मनहर- जिससे हांथ लाल हो जायें। पैरों मीं भी रंग भरा जाता है। उंगलियों के नाखून लाल रंग दिये जाते हैं। वह दृष्य देखते ही बनता है।
जेनी-यह तो दिल में सनसनी पैदा करने वाला दृष्य होगा। दुल्हन भी इसी तरह सजायी जाती होगी?
मनहर-इससे कई गुनी अधिक। सिर से पांव तक सोने चांदी के गहनों से लदी हुयी। ऎसा कोई अंग नहीं जिसमें दो-चार जेवर न हों।
जेनी-तुम्हारी शादी भी इसी तरह हुयी होगी। तुम्हे तो बङा आनन्द आया होगा?
मनहर-हां, वही आनन्द आया था जो तुम्हे मेरी-गोराउण्ड पर चढने में आता है। अच्छी-अच्छी चीजे खाने को मिलती हैं, अच्छे कपङे पहनने को मिलते हैं। खूब नाच तमाशे देखता था और शहनाइयों का गाना सुनता था। मजा तो तब आता है जब दुलहन अपने घर से बिदा होती है। सारे घर में कुहराम मच जाता है। दुलहन हर एक से लिपट-लिपट कर रोती है, जैसे मातम कर रही हो।
जेनी-दुलहन रोती क्यों है?
मनहर-रोने का रिवाज चला आता है। हालांकि सभी लोग जानते हैं कि वह हमेशा के लिये नही जा रही है, फिर भी सारा घर इस तरह फूट फूट कर रोता है, मानो वह काले पानी भेजी जा रही हो।
जेनी-मैं तो इस तमाशे पर खूब हंसू।
मनहर-हंसने की बात ही है।
जेनी-तुम्हारीबीवी भी रोयी होगी?
मनहर-अजी कुछ न पूंछो, पछाङे खा रही थी, मानो मैं उसका गला घॊंट दूंगा। मएरी पालकी से निकलकर भागी जाती थी, पर मैंने जोर से पकङ कर अपनी बगल में बैठा लिया। तब मुझे दांत काटने दौङी।
मिस जेनी ने जोर का कहकहा मारा और हंसी के साथ लोट गयीं। बोलीं-हारिबल! हारिबल! क्या अब भी दांत काटती है?
मनहर-वह अब इस संसार में नहीं रही जेनी! मैं उससे खूब काम लेता था। मैं सोता था तो वो बदन में चम्पी लगाती थी, मेरे सिर में तेल डालती थी, पंखा झलती थी।
जेनी-मुझे तो विश्वास नहीं आता। बिल्कुल मूर्ख थी!
मनहर-कुछ न पूंछॊ।दिन को किसी के सामने मुझसे बोलती भी न थी, मगर मैं उसका पीछा करता रहता था।
जेनी-ओ!नाटी ब्वाय! तुम बङे शरीफ हो। थी तो रूपवती?
मनहर-हां उसका मुंह तुम्हारे तलवों जैसा था।
जेनी-नान्सेन्स! तुम ऎसी औरत के पीछे कभी न दौङते।
मनहर-उस वक्त मैं भी मूर्ख था जेनी।
जेनी-ऎसी मूर्ख लङकी से तुमने विवाह क्यों किया?
मनहर-विवाह न करता तो मां बाप जहर खा लेते।
जेनी-वह तुम्हे प्यार कैसे करने लगी?
मनहर-और करती क्या? मेरे सिवा दूसरा था ही कौन? घर से बाहर न निकलने पाति थी, मगर प्यार हममें से किसी को न था। वह मेरी आत्मा को और हृदय को सन्तुष्ट न कर सकती थी ,जेनी! मुझे उन दिनों की याद आती है, तो ऎसा मालूम होता है कि कोई भयंकर स्वप्न था। उफ! अगर वह स्त्री आज जीवित होती, तो मैं किसी अंधेरे दफ्तर में बैठा कलम घिस रहा होता। इस देश में आकर मुझे यथार्त ज्ञान हुआ कि संसार में स्त्री का क्या स्थान है, उसका क्या दायित्व है और जीवन उसके कारण कितना आनन्दप्रद हो जाता है। और जिस दिन तुम्हारे दर्शन हुये, वह तो मेरी जिन्दगी का सबसे मुबारक दिन था। याद है तुम्हे वो दिन? तुम्हारी वह सूरत मेरी आंखोंं में अब भी फिर रही है।
जेनी-अब मैं चली जाऊंगी। तुम मेरी खुशामद करने लगे।

भारत के मजदूरदल-सचिव थे लार्ड बारबर, और उनके प्राइवेट सेक्रेट्ररी थे मि.कावर्ड। लार्ड बार्बर भारत के सच्चे मित्र समझे जाते थे। जब कंजर्वेटिव और लिबरल दलों का अधिकार था, तो लार्ड बारबर भारत की बङे जोरों से वकालत करते थे। वह उन मन्त्रियों पर ऎसे ऎसे कटाक्ष करते थे कि उन बेचारों को कोई जवाब न सूझता था। एक बार वे हिन्दुस्तान आये थे और यहां कांग्रेस में शरीक हुये थे। उस समय उनकी उदार वक्तृताओं ने समस्त देश में आशा और उत्साह की एक लहर दौङा दी थी। कांग्रेस के जलसे के बाद वह जिस शहर में गये, जनता ने उनके रास्ते में आंखे बिछायीं, उनकी गाङियां खींची, उन पर फ़ूल बरसाये। चारों ओर से यही आवाज आती थी-यह है भारत का उद्वार करने वाला। लोगों को विश्वास हो गया कि भारत के सौभाग्य से अगर कभी लार्ड बारबर को अधिकार प्राप्त हुआ, तो वह दिन भारत के इतिहास में मुबारक होगा।
लेकिन अधिकार पाते ही लार्ड बारबर में एक विचित्र परिवर्तन हो गया। उनके सारे स्वभाव, उनकी उदारता, न्यायपरायणत, सहातुभूति ये सभी अधिकार के भंवर में पङ गये। और अब लार्ड बारबर और उनके पूर्वाधिकार के व्यव्हार में लेशमात्र भी अन्तर न था। वह भी वही कर रहे थे जो उनके पहले के लोगों ने किया। वही दमन था, वही जातिगत अभिमान, वही कट्टरता, वही संकीर्णता। देवता अधिकार के सिंघासन पर पांव रखते ही अपना देवत्व खो बैठा था। अपने दो साल के अधिकार काल में उन्होने सैकङों ही अपसर नियुक्त किये थे; पर उनमें एक भी हिन्दुस्तानी न था। भारत्वासी निराश होकर उन्हें 'डाईहार्ड' 'धन का उपासक' और 'साम्राज्यवाद का पुजारी' कहने लगे थे। यह खुला हुआ रहस्य था कि जो कुछ करते थे मि. कावर्ड करते थे। हक यह था कि लार्ड बारबर नीयत के जितने शेर थे, जितने दिल के कमजोर। हालांकि परिणाम दोनों दिशाओम में एक सा था।
यह मि. कावर्ड एक ही महापुरुष थे। उनकी उम्र चालीस से अधिक गुजर चुकी थी; पर अभी तक उन्होंने विवाह नहीं किया था। शायद उनका ख्याल था कि राजनीति के क्षेत्र में रहकर वे विवाह का आनन्द नहीं उठा सकते। वास्तव में नवीनता के मधूप थे।
उन्हे नित्य नये विनोद और आकर्षण, नित्य नये विलास और उल्लास की टोह रहती थी। दूसरों के लगाये हुये बाग की सैर करके चित्त को प्रसन्न कर लेना इससे कहीं सरल था कि अपना बाग आप लगायें और उसकी रक्षा और सजवट में अपना सिर खपायें। उनको व्यापारिक और व्याव्हारिक दॄष्टि में यह लटका उससे कहीं आसान था।
दोपहर का समय था। मि. कावर्ड नाश्ता करके सिगार पी रहे थे कि मिस जेनी रोज के अने की खबर हुयी। उन्होने तुरन्त आईने के सामने खङे होकर अपनी सूरत देखी,बिखरे बालों को सवांरा, बहुमूल्य इत्र मला और मुख से स्वागत की सहास छवि दर्शाते हुये कमरे से निकलकर मिस रोज से हांथ मिलाया।
जेनी ने कदम रखते ही कहा-अब मैं समझ गयी कि क्यों कोई सुन्दरी तुम्हारी बात नहीं पूंछती। आप अपने वादों को पूरा करना नहीं जानते।
मि. कावर्ड ने जेनी के लिये कुर्सी खींचते हुये कहा-मुझे बहुत खेद है मिस रोज कि कल मैं अपना वादा न पूरा कर सका। प्राइवेट सेक्रेट्ररी का जीवन कुत्तों के जीवन से भी हेय है। बार बार चाहता था कि दफ्तर से उठूं; पर एक न एक काल ऎसा आ जाता था कि रुक जाना पङ जाता था! मैं तुमसे क्षमा मांगता हूं। बाल में तुम्हे खूब आनन्द आया होगा?
जेनी-मैं तुम्हे तलाश करती रही। जब तुम न मिले तो मेरा जी खट्टा हो गया। मैं और किसी के साथ नहीं नाची। अगर तुम्हे नहीं जाना था तो मुझे निमन्त्रण क्यों दिया था।
कावर्ड ने जेनी को सिगार भॆंट करते हुये कहा-तुम मुझे लज्जित कर रही हो,जेनी! मेरे लिये इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती थी कि तुम्हारे साथ नाचता? एक पुराना बैचलर होने पर भी मैं उस सुख की कल्पना कर सकता हूं। बस यही समझ लो कि तङप-तङप कर रह जाता हूं।
जेनी ने कठोर मुस्कान के साथ कहा-तुम इसी योग्य हो कि बैचलर बने रहो। यही तुम्हारी सजा है।
कावर्ड ने अनुरक्त होकर उत्तर दिया-जेनी तुम बङी कठोर हो! तुम्ही क्या रमणियां सभी कठोर होती हैं। मैं कितनी ही पर्वशता दिखाऊं, तुम्हे विश्वास नहीं आयेगा। मुझे यह अरमान ही रह गया कि कोई सुन्दरी मेरे अनुराग और लगन का आदर करती।
जेनी- तुममें अनुराग हो भी तो? रमणियां ऎसे बहानेबाजों को मुंह नहीं लगाती।
कावर्ड-फ़िर बहानेबाज कहा। मजबूर क्यों नहीं कहती?
जेनी-मैं किसी को मजबुर नहीं मानती। मेरे लिये यह हर्ष और गौरव की बात नहीं हो सकती, कि आपको जब अपने सरकारी, अर्द्व सरकारी और गैर सरकारी कामोम से अवकाश मिले तो, आप मेरा मन रखने के लिये एक क्षण के लिये अपने कोमल चरणों को कष्ट दें। इसी कारण तुम अब तक झीक रहे हो।
कावर्ड ने गम्भीर भाव से कहा-तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो,जेनी! मरे अविवाहित रहने का क्या कारण है, यह कल तक मुझे खुद मालूम न था। कल आप ही आप मालूम हो गया।
जेनी ने उसका परिहास करते हुये कहा-अच्छा तो यह रहस्य आपको मालुम हो गया? तब तो आप सचमुच आत्मदर्शी हैं। जरा मैं भी तो सुनूं, क्या कारण था?
कावर्ड ने उत्साह के साथ कहा-अब तक कोई ऎसी सुन्दरी न मिली जो मुझे उन्मत्त कर सकती।
जेनी ने कठोर परिहास के साथ कहा-मेरा ख्याल था कि दुनिया में ऎसी औरत पैदा ही नहीं हुई, जो तुम्हे उन्मत्त कर सकती। तुम उन्मत्त बनाना चाहते हो, उन्मत्त बनना नहीं चाहते।
कावर्ड-तुम बङा अत्याचार करती हो जेनी!
जेनी-अपने उन्माद का प्रमाण देना चाहते हो?
कावर्ड-हृदय से जेनी! मैं उस अवसर की ताक में बैठा हूं।
उसी दिन शाम को जेनी ने मनहर से कहा-तुम्हारे सौभाग्य पर बधाई! तुम्हे वह जगह मिल गयी।
मनहर उछलकर बोला-सच! सेक्रेट्ररी से कोई बातचीत हुई थी?
जेनी-सेक्रेट्ररी से कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पङी। सब कुछ कावर्ड के हांथो में है। मैंने उसी को चंग पर चढाया। लगा मुझे इश्क जताने। पचास साल की तो उम्र है, चांद के बाल झङ गये हैं, गालों पर झुर्रियां पङ गयी हैं, पर अभी तक आपको इश्क का ख्ब्त है। अप अपने को एक ही रसिया समझते हैं। उसके बूढे चोंचले बहुत ही बुरे मालूम होते थे; मगर तुम्हारे ल्ये सब कुछ सहना पङा। खैर मेहनत सफ़ल हो गयी है। कल तुम्हे परवाना मिल जायेगा। अब सफ़र की तय्यारी करनी चाहिये।
मनहर ने गदगद होकर कहा-तुमने मुझ पर बङा एहसान किया है,जेनी!

मनहर को गुप्तचर विभग में ऊंचा पद मिला। देश के राष्ट्रीय पत्रों ने उसकी तारी फ़ों के पुल बांधे, उसकी तस्वीर छापी और राष्ट्र की ओर से उसे बधाई दी। वह पहला भारटीय था, जिसे यह ऊंचा पद प्रदा किया गया था। ब्रिटिश सरकार ने सिद्व कर दिया था कि उसकी न्याय-बुधि जातीय अभिमान और द्वेश से उच्चतर है।
मनहर और जेनी का विवाह इंग्लैण्ड में ही हो गया। हनीमून का महीना फ़्रान्स में गुजरा। वहां से दोनो हिन्दुस्तान आये। मनहर का दफ़्तर बम्बई में था। वहीं दोनो एक होटल में रहने लगे। मनहर को गुप्त अभियोग की खोज के लिये अक्सर दौरे करने पङते थे। कभी कश्मीर, कभी मद्रास, कभी रंगून। जेनी इन यात्राओं में बराबर उसके साथ रहती। नित्य नये दृष्य थे, नये विनोद, नये उल्लास। उसकी नवीनता प्रिय प्रकृति के लिये आनन्द का इससे अच्छा और क्या सामान हो सकता था?
मनहर का रहन-सहन तो विदेशी था ही, घर वालों से भी उसका सम्बन्ध विच्छेद हो गया था। वागेश्वरी के पत्रों का उत्तर देना तो दूर रहा, वह उन्हे खोलकर पढता भी नहीं था। भारत में हमेशा उसे यह शंका बनी रहती थी कि कहीं घरवालों को उसका पता न चल जाये। जेनी से वह अपनी यथार्त स्थिति को छुपाये रखना चाहता था। उसने घरवालों को आने की सूचना तक न दी थी। यहां तक कि वह हिन्दुस्तानियों से बहुत कम मिलता था। उसके मित्र अधिकांश पुलिस और फ़ौज्के अफ़सर थे। वही उसके मेहमान होते। वाकचतुर जेनी सम्मोहनकला में सिद्वहस्त थी। पुरुषों के प्रेम से खेलना उसकी सबसे अमोदमय क्रीङा थी। जलाती थी, रिझाती थी, और मनहर भी उसकी कपट्लीला का शिकार बना रहता था। उसे वह हमेशा भूल-भुलैया मॆं रखती, कभी इतना निकट कि छाती पर सवार न कभी इतना दूर कि योजन का अन्तर-कभी निष्ठुर और कठोर, और कभी प्रेम-विह्वल और व्यग्र। एक रहस्य था, जिसे वह कभी समझता था और कभी हैरान रह जाता था।
इस तरह दो वर्ष बीत गये और मनहर और जेनी कोण की दो भुजाओं की भांति एक दूसरे से दूर होते गये। मनहर इस भावना को हृदय से न निकाल सकता था कि जेनी का मेरे प्रति एक विशेष कर्तव्य है। वह चाहें उसकी संकीर्णता हो या कुल मर्यादा का असर क इवह जेनी को पाबन्द देखना चाहता था। उसकी स्वच्छन्द वृत्ति उसे लज्जास्पद मालूम होती थी। वह भूल जाता था कि जेनी से उसके सम्पर्क का आरम्भ ही स्वार्थ पर अवलम्बित था। शायद उसने समझा था कि समय के साथ जेनी को अपने कर्तव्यों का ज्ञान हो जायेगा; हालांकि उसे मालूम होना चाहिये था कि टेढी बुनियाद पर बना हुआ भवन जल्द या देर से भूमिस्थ होकर ही रहेगा। और ऊंचाई के साथ उसकी शंका और भी बढती जाती थी। इसके विपरीत जेनी का व्यवहार परिस्थिति के बिल्कुल अनुकूल था। उसने मनहर को विनोदमय तथा विलासमय जीवन का एक साधन समझा था और उसी विचार पर वह अब तक स्थित थी। इस व्यक्ति को वह मन में पति का स्थान नहीम दे सकती थी, पाषाण प्रतिमा को वह अपना देवता न बना सकती थी। पत्नी बनना उसके जीवन का स्वप्न न था, इसलिये वह मनहर के प्रति अपने किसी कर्तव्य को स्वीकार नहीम करती थी। अगर मनहर अपनी गाढी कमाई उसके चरणों पर अर्पित करता था तो कोई अहसान न करता था। मनहर उसका बनाया हुआ पुतला, उसी का लगाया हुआ वृक्ष था। उसकी छाया और उसके फ़ल का भोग करना वह अपना अधिकार समझती थी।

मनोमालिन्य बढता गया। आखिर मनहर ने उसके साथ दावतों और जलसों पर जाना छोङ दिया; पर जेनी पूर्ववत सैर करने जाती, मित्रों से मिलती, दावते करती, और दावतों में शरीक होती। मनहर के साथ न जाने से उसे लेश्मात्र भी दुःख या निराशा नहीं होती थी; बल्कि वह शायद उसकी उदासीनता पर और प्रसन्न होती थी। मनहर इस मानसिक व्यथा को शराब के नशे में डुबोने का उध्योग करता। पीना तो उसने इंग्लैण्ड में ही शुरु कर दिया था, पर अब उसकी मात्रा बहुत बढ गयी थी। वहां स्फ़ूर्ति और आनन्द के लिये पीता था, यहां स्फ़ूर्ति और आनन्द को मिटाने के लिये। वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता था। वह जानता था कि शराब मुझे पिये जा रही है, पर उसके जीवन कयही एक अवलम्ब रह गया था।
गर्मियों के दिन थे। मनहर एक मुआमले की जांच करने के लिये लखनऊ मॆं डेरा डाले हुये था। मुआमला बहुत संगीन था। उसे सेर उठाने की फ़ुरसत न मिलती थी। स्वास्थ्य भी बहुत खराब हो चला था, पर जेनी अपने सैर-सपाटे मॆम मग्न थी। आखिर उसने एक दिन कहा; मैं नैनीताल जा रही हूं। यहां की गर्मी मुझसे सही नहीं जाती।
मनहर ने लाल-लाल आंखे निकालकर कहा-नैनीताल में क्या काम है?
वह आज अपना अधिकार दिखाने पर तुल गया। जेनी भी उसके अधिकार की उपेक्षा करने पर तुली हुई थी। बोली- यहां कोई सोसायटी नही। सारा लखनऊ पहाङों पर चला गया है।
मनह्र ने जैसे म्यान से तलवार निकाल कर कहा-जब तक मैं य्हां हूं,तुम्हें कही जाने का अधिकार नहीं है। तुम्हारी शादी मेरे साथ हुयी है, सोसायटी के साथ नहीं। फ़िर तुम साफ़ देख रही हो मैं बीमार हूं, तिस पर भी तुम अपनी विलास प्रवत्ति को रोक नहीं सकतीं। मुझे तुमसे ऎसी आशा नहीं थी,जेनी! मैं तुमको शरीफ़ समझता था। मुझे स्वप्न मॆं भी गुमान न था कि तुम मेरे साथ ऎसी बेवफ़ाई करोगी।
जेनी ने अविचलित भाव से कहा-तो क्या तुम समझते थे, मैं भी तुम्हारी हिन्दुस्तानी स्त्री की तरह तुम्हारी लौण्डी बनकर रहूंगी और तुम्हारे तलवे सहलाऊंगी? मैं तुम्हे इतना नदान नहीं समझती। अगर तुम्हे हमारी अंग्रेज सभ्यता की इतनी सी बात नही मालूम, तो अब मालूम कर लो कि अंग्रेज स्त्री अपनी रुचि के सिवा और किसी की पाबन्द नहीं। तुमने मुझसे विवाह इसलिये किया था कि मेरी सहायता से तुम्हे सम्मान और पद प्राप्त हो। सभी पुरुष ऎसा करते हैं और तुमने भी वैसा ही किया। मैं इसके लिये तुम्हे बुरा नहीं कहती लिकिन जब तुम्हारा वह उद्देश्य पूरा हो गया, जिसके लिये तुमने मुझसे विवाह किया था, तो तुम मुझसे अधिक आशा कुओं रखते हो? तुम हिन्दुस्तानी हो अंग्रेज नहीं हो सकते। मैं अंग्रेज हूं हिन्दुस्तानी नहीं हो सकती; एसलिये हममें में से किसी को अधिकार नहीं है कि वह दूसरों को अपनी मर्जीका गुलाम बनाने की चेष्टा करे।
मनहर हतबुद्वि सा बैठा सुनता रहा। एक एक शब्द विष की घूंट की भांति उसके कंठ के नीचे उतर रहा था। कितना कठोर सत्य था! पद लालसा के इस प्रचण्ड आवेग में, विलास तृष्णा के उस अदम्य प्रवाह में वह भूल गया था कि जीवन में कोई ऎसा तत्व भी है, जिसके सामने पद और विलास कांच के खिलौनो से अधिक मूल्य नहीं रखते। वह विस्मृत सत्य इस समय अपने दारुण विलाप से उसकी मद्मग्न चेतना को तङपाने लगा।
शाम को जेनी नैनीताल चली गयी। मनहर ने उसकी ओर आंखे उठा कर भी नहीं देखा।

तीन दिन तक मनहर घर से न निकला। जीवन के पांच छः वर्षों मॆं उसने जितने रत्न संचित किये थे, जिन पर वह गर्व करता था; जिन्हे पाकर वह अपने को धन्य समझता था, अब परीक्षा की कसौटी पर जाकर नकली सिद्व हो रहे थे। उसकी अपमानित, ग्लानित, पराजित आत्मा एकांत रोदन के सिवा और कोई त्राण न पाती थी। अपनी टूटी झोपङी को छोङकर वह जिस जिस सुनहले कलश वाले भवन की ओर लपका था, वह मरीचिका मात्र थी और उसे अब फ़िर अपनी टूटी झोपङी याद आई, जहां उसने शांतिम प्रेम और आशीर्वाद की सुधा पी थी। यह सारा आडम्बर उसे काट खाने लगा। उस सरल, शीतल स्नेह केसामने ये सारी विभूतियां उसे तुच्छ सी जंचने लगीं। तीसरे दिन वह भीषण संकल्प करके उठा और दो पत्र लिखे। एक तो अपने पद से इस्तीफाथा, और दूसरा जेनी से अंतिम विदा की सूचना। इस्तीफे मॆं उसने लिखा- मेरा स्वास्थ्य नष्ट हो गया है और मैं इस भार को नहीं सम्भाल सकता। जेनी के पत्र में उसने लिखा-हम और तुम दोनो ने भूल की है और हमें जल्द से जल्द उस भूल को सुधार लेना चाहिये। मैं तुम्हे सारे बन्धनों से मुक्त करता हूं। तुम भी मुझे मुक्त कर दो। मेरा तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अपराध न तुम्हारा है, न मेरा। समझ का फेर तुम्हे भी था और मुझे भी । मैंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है और अब तुम्हारा मुझ पर कोई अहसान नहीं रहा। मेरे पास जो कुछ है, वह तुम्हारा है, वह सब मैं छोङे जाता हूं। मैं तो निमित्त-मात्र था स्वामिनी तुम थी। उस सभ्यता को दूर से ही सलाम है, जो विनोद और विलास के सामने किसी बन्धन को स्वीकार नहीम करती।
उसने खुद जाकर दोनों की रजिस्ट्री करायी और उत्तर का इंतजार किये बिना ही वहां से चलने को तैयार हो गया।

जेनी ने जब मनहर का पत्र पाकर पढा तो मुस्कुराई। उसे मनहर की इच्छा पर शासन करने का ऎसा अभ्यास पङ गया था कि पत्र से उसे जरा भी घबराहट नहीं हुयी। उसे विश्वास था कि दो चार दिन चिकनी-चुपङी बातें करके वह उसे फिर वशीभूत कर लेगी। अगर मनहर की इच्छा केवल धमकी देनी न होती, उसके दिल पर चोट लगी होती तो वह अब तक यहां न होता। कब का यह स्थान छोङ चुका होता। उसका यहां रहना ही बता रहा है कि वह केवल बन्दर घूङकी दे रहा है।
जेनी ने स्थिर चित्त होकर कपङे बदले और तब इस तरह मनहर के कमरे में आई, मानो कोई अभिनय करने स्टेज पर आई हो।
मनहर उसे देखते ही ठट्ठा मार कर हंसा। जेनी सहम कर पीछे हट गयी। इस हंसी में क्रोध का प्रतिकार न था। उसमें उन्माद भरा हुआ था। मनहर के सामने मेज पर बोतल और गिलास रखा हुआ था। एक दिन में उसने न जाने कितनी शराब पी ली थी। उसकी आंखो से जैसे रक्त उबला पङता था।
जेनी ने समीप आकर उसके कन्धे पर हांथ रखा और बोली-क्या रात भर पीते ही रहोगे? चलो आराम से लेटो, रात ज्यादा हो गयी है। घण्टॊ से बैठी तुम्हारा इंतजार कर रही हूं। तुम इतने निष्ठुर तो कभी नहीं थे।
मनहर खोया हुआ सा बोला-तुम कब आ गयीं वागी? देखो मैं कब से तुम्हे पुकार रहा हूं। चलो आज सैर कर आयें। उसी नदी के किनारे ,तुम वही अपना प्यारा गी सुनाना, जिसे सुनकर मैं पागल हो जाता था। क्या कहती हो, मैं बेमुरव्वत हूं? यह तुम्हारा अन्याय है वागी! मैं कसम खाकर कहता हूं, ऎसा एक दिन भी नहीं गुजरा जब तुम्हारी याद ने मुझे न रुलाया हो।
जेनी ने उसका कन्धा हिलाकर कहा-तुम यह क्या ऊल-जलूल बक रहे हो? वागी यहां कहां है?
मनहर ने उसकी ओर देखकर अपर्चित भाव से कुछ कहा, फिर जोर से हंसकर बोला- मैं यह न मानूंगा वागी! तुम्हे मेरे साथ चलना होगा। वहां मैं तुम्हारे लिये एक फूलों की एक माला बनाऊंगा।
जेनी ने समझ यह शराब बहुत पी गये हैं। बकझक कर रहे हैं। इनसे इस वक्त कुछ भी बात करना व्यर्थ है। चुपके से कमरे के बाहर चली गयी। उसे जरा सी शंका हुई थी। यहां उसका मूलोच्छेद हो गया। जिस आदमी का वाणी पर अधिकार नही, वह इच्छा पर क्या अधिकार रख सकता है?
उसघङी से मनहर को घरवालो की रट लग गयी। कभी वागेश्वरी को पुकारता, कभी अम्मां को ,कभी दादाको। उसकी आत्मा अतीत में विचरती रहती, उसातीत मॆं जब जेनी ने काली छाया की भांति प्रवेश नहीं किया था और वाग्र्श्वरी अपने सरल्व्रत से उसके जीवन में प्रकाश फैलाती थी।
दूसरे दिन जेनी ने उसे जाकर कहा-तुम इतनी शराब क्यों पीते हो? देखते नहीं तुम्हारी क्या दशा हो रही है?
मनहर ने उसकी ओर आश्चर्य से देखा-तुम कौन हो?
जेनी-तुम मुझे नहीं पहचानतेहो? इतनी जल्द भूल गये।
मनहर- मैंने तुम्हे कभी नहीं देखा। मैं तुम्हे नहीं पहचानता।
जेनी ने और अधिक बातचीत नहीं की। उसने मनहर के कमरे से शराब की बोतलें उठवा दीं और नौकरों को ताकीद कर दी कि उसे एक घूंट भी शराब की न दी जाय। उसे अब कुछ सन्देह होने लगा था। क्योंकि मनहर की दशा उससे कहीं शंकाजनक थी जितना वह सम्झती थी। मनहर का जीवित और स्वस्थ रहना उसके लिये आवश्यक था।इसी घोङे पर बैठकर वह शिकार खेलती थी। घोङे के बगैर शिकार का आनन्द कहां?
मगर एक सप्ताह हो जाने पर भी मनहर की दशा में की अंतर न हुआ। न मित्रों को पहचान्ता, न नौकरों को। पिछ्ले तीन वर्षों का जीवन एक स्वप्न की भांति मिट गया था।
सातवें दिन जेनी सिविल सर्जन को लेकर आयी तो मनहर का कहीं पता नहीं था।

पांच साल के बाद वागेश्वरी का लुट हुआ सुहाग फ़िर चेता। मां-बाप पुत्र के वियोग में रो-रोकर अन्धे हो चुके थे। वागेश्वरी निराशा में भी आस बांधे बैठी हुयी थी। उसका मायका सम्पन्न था। बार-बार बुलावे आते, बाप आया, भाई आया, पर धैर्य और व्रत की देवी घर से न टली।
जब मनहर भारत आया, तो वागेश्वरी ने सुना कि वह विलायत से एक मेम लाया है। फिर भि उसे आशा थी कि वह आयेगा, लेकिन उसकी आशा पूरी न हुयी। फिर उसने सुना वह ईसाई हो गया है। आचार-विचार त्याग दिया है। तब उसने माथा ठोंक लिया।
घर की व्यवस्था दिन दिन बिगङने लगी। वर्षा बन्द हो गयी और सागर सूखने लगा। घर बिका, कुछ जमीन थी वह बिकी, फिर गहनों की बारी आई। यहं तक कि अब केवल आकाशी वृत्तिथी। कभी चूल्हा जल गया, कभी ठंडा पङा रहा।
एक दिन संध्या समय वह कुऎ पर पानी भरने गयी थी के एक थका हुआ, जीर्ण, विपत्ति का मारा जैसा आदमी आकर कुऎ की जगत पर आकर बैठ गया। वागेश्वरी ने देखा तो मनहर! उसने तुरन्त घूंघट काढ लिया। आंखों पर विश्वास नहीं हुआ, फिर भी आनन्द और विस्मय की हृदय में फ़ुरेरियां उङने लगीं। रस्सी और कलसा कुऎ पर छोङकर लपकी हुयि घर आयी और सास से बोली-अम्मांजी, जरा कुऎ पर जाकर देखो कौन आया है। सास न कहा-तू पानी भरने गयी थी, या तमाशा देखने? घर में एक बूंद पानी की नहीम है। कौन आया है कुऎ पर?
'चलकर देख लो न'
कोई सिपाही प्यादा होगा। अब उनके सिवा कौन अने वाला है। कोई महाजन तो नहीं है?
'नही अम्मां तुम चली क्यों नहीं चलती?'
बूढी माता भांति-भांति की शंकाये करती हुयी कुऎ पर पहुंची, तो मनहर दौङकर उनके पैरों में लिपट गया। माता ने उसे छाती से लगाकर कहा-तुम्हारी यह दशा है, मानू? क्या बीमार हो? असबाब कहां है?
मनहर ने कहा-पहले कुछ खाने को दो अम्मा! बहुत भूखा हूं। मैं बङी देर से पैदल चला आ रहा हूं।
गांव मॆं खबर फैल गयी कि मनहर आया है। लोग उसे देखने दौङ पङे। किस ठाट से आया है? ऊंचे पद पर है। हजारों रुपये पाता है। अब उसके ठाट का क्या पूंछना! मेम भी साथ आयी है या नहीं?
मगर जब आकर देखा, तो आफत का मारा आदमी, फटेहाल, कपङे तार-तार, बाल बढे हुये, जैसे जेल से आया हो।
प्रश्नों की बौछार होने लगी-हमने तो सुना था तुम किसी ऊंचे पद पर हो।
मनहर ने जैसे किसी भूली बात को याद करने का विफल प्रयास किया-मैं! मैं तो किसी ओहदे पर नहीं।
'वाह! विलायत से मेम नहीं लाये थे?'
मनहर ने चकित होकर कहा-विलायत! कौन विलायत गया था?
'अरे भंग तो नहीं ख आये हो। विलायत नहीं गये थे?
मनहर मूढों की भांति हंसा-मैं विलायत क्या करने जाता?
'अजी तुमको वजीफा मिला नहीं था? यहां से तुम विलायत गये थे। तुम्हारे पत्र बराबर आते थे। अब कहते हो मैं विलायत गया ही नहीं। होश में हो, या हम लोगों को उल्लू बना रहे हो?'
मनहर ने उन लोगों की तरफ़ आंखे फाङ कर देखा और बोला-मैं तो कहीं नहीं गया था। आप लोग न जाने क्या कह रहे हैं।
अब इसमें सन्देह की गुन्जाइश न रही कि वह अपने होशोहवास में नहीं है। उसे विलायत जाने के पहले की सारी बातें याद थीं।गांव और घर के एक-एक आदमी को पहचानता था; लेकिन जब इंग्लैण्ड , अंग्रेज बीवी और ऊंचे पद का जिक्र आता तो भौचक्का होकर ताकने लगता। वागेश्वरी को अब उसके प्रेम में एक अस्वाभाविक अनुराग दीखता, जो उसे बनावटी मालूम होता था। वह चाहती थई कि उसके व्यवहार और आचरण में पहले जैसी बेतकल्लुफी हो। वह प्रेम का स्वांग नहीं, प्रेम चाहती थी। दस ही पांच दिनों में उसे ज्ञात हो गया कि इस विशेष अनुराग का कारण बनावट या दिखावा नहीं है, वरन कोई मानसिक विकार है। मनहर ने मां बाप का इतना अदब पहले कभी नहीं किया था। उसे अब मोटे से मोटा काम करने में कोई संकोच नहीं था। वह, जो बाजार से साग-सब्जी लाने में अपना अनादर समझता था, अब कुऎ से पानी खींचता, लकङ्यां फाङता और घर में झाङू लगाता थाऔर अपने घर में ही नहीं, सारे मुहल्ले में उसकी सेवा और नम्रता की चर्चा होती थी।
एक बार मुहल्ले में चोरी हो गयी। पुलिस ने बहुत दौङ-धूप की; पर चोरों का पता न चला। मनहर ने चोरी का पता ही नहीं लगा दिया, वरन माल भी बरामद करा दिया। इससे आस-पास के गांवो और मुहल्लों में उसका यश फैल गया। कोई चोरी होती तो लोग उसके पास दौङे आते और अधिकांश उध्योग उसके सफल भी होते। इस तरह उसकी जीविका की एक व्यवस्था हो गयी। वह अब वगेश्वरी के इशारों का गुलाम था। उसी की दिल्जोई और सेवा में उसके दिन कटते। अगर उसमें विकार या बीमारी का कोई लक्षण था तो ,तो वह इतना ही। यही सनक उसे सवार हो गयी थी।
वागेश्वरी को उसकी दशा पर दुःख होता; पर उसकी यह बीमारी उस स्वास्थय से उसे कहीम प्रिय थी, जब वह उसकी बात भी न पूंछता था।

छः महीनों के बाद एक दिन जेनी मनहर का पता लगाती हुयी आ पहुंची। हांथ में जो कुछ था, वह सब उङा चुकने के बाद अब उसे किसी आश्रय की खोज थी। उसके चाहने वालों में कोई ऎसा न था, जो उसकी आर्थिक सहायता करता। शायद अब जेनी को कुछ ग्लानि भी होती थी। वह अपने किये पर लज्जित थी।
द्वार पर हार्न की आवाज सुनकर मनहर बाहर निकला और इस प्रकार जेनी को देखने लगा मानो कभी देखा ही नहीं हो।
जेनी ने मोटर से उतरकर उससे हांथ मिलाया और अपनी आप-बिती सुनाने लगी-तुम इस तरह छिपकर मुझसे क्यों चले आये? और फिर आकर एक पत्र भी नहीं लिखा। आक्खिर मैंने तुम्हारे साथ क्या बुराई की थी। फिर मुझमें कोई बुराई देखी थी, तो तुम्हे था कि मुझे सावधान कर देते। छिपकर चले आने का क्या फायदा हुआ। ऎसी अच्छी जगह मिल गयी थी वोभी हांथ से निकल गयी।
मनहर काठ के उल्लू की भांति खङा रहा।
जेनी ने फिर कहा-तुम्हारे चले आने के बाद मेरे ऊपर जो संकट आये, वह सुनाऊं तो तुम घबरा जओगे। मैं इसी चिन्ता और दुःख से बीमार हो गयी। तुम्हारे बगैर मेरा जीवन निरर्थक हो गया। तुम्हारा चित्र देखकर मन को ढांढस देती थी। तुम्हारे पत्रों को आदि से अन्त तक पढना मेरे लिये सबसे मनोरंजक विषय था। तुम मेरे साथ चलो मैंने एक डाक्टर से बात की है, वह मस्तिष्क के विकारों का डाक्टर है।मुझ आशा है उसके उपचार से तुम्हे लाभ होगा।
मनहर चुपचाप विरक्त बव से खङा रहा, मानो न वह कूछ देख रहा है, न सुन रहा है।
सहसा वगेश्वरी निकल आयी। जेनी को देखते ही वह ताङ गयी कि यही मेरी यूरोपियन सौत है। वह उसे बङे आदर-सत्कार के साथ भीतर ले आयी। मनहर भी उनके पीछे-पीछे चला आया।
जेनी ने टूटी खाट पर बैठत हुये कहा। इन्होने मेरा जिक्र तो कियाही होगा। मेरी इनसे लंदन में शादी हुयी है।
वागेश्वरी बोली-यह तो मैं आपको देखते ही समझ गयी थी।
जेनी-इन्होने कभी मेरा जिक्र नहीं किया?
वागेश्वरी-कभी नहीं। इन्हें तो कुछ याद नहीं। आपको यहां आने में बङा कष्ट हुआ होगा?
जेनी-महीनों के बाद तब इनके घर का पता चला। वहां से बिना कुछ कहे सुने चल दिये।
'आपको कुछ मालूम है, इन्हे क्या शिकायत है?'
'शराब बहुत पीने लगे थे। आपने किसी डाक्टर को नहीं दिखाया?'
हमने तो किसी को नहीं दिखया।'
जेनी ने तिरस्कार से कहा-क्यों? क्या आप उन्हे हमेशा बीमार रखना चाहती हैं?
वागेश्वरी ने बेपरवाही से कहा-मेरे लिये तो इनका बीमार रहना इनके स्वस्थ रहने से कहीं अच्छा है। तब वह अपनी आत्मा को भुले हुए थे अब उसे पा गये।
फिर उसने निर्दय कटाक्ष करके कहा-मेरे विचार में तो वह तब बीमार थे, अब उसे पा गये।
जेनी ने चिढकर कहा-नान्सेंस! इनकी किसी विशेषज्ञ से चिकित्सा करानी होगी। यह जासूसू में बङे कुशल हैं। इनके सभी अफ़सर इनसे प्रसन्न थे। वह चाहें तो अब भी वह जगह उन्हें मिल सकती है। अपने विभाग मॆं ऊंचे से ऊंचेपद तक पहुंच सकते हैं। मुझे विश्वास है कि इनका रोग असाध्य नहीं है; हां, विचित्र अवश्य है। आप क्या इनकी बहन हैं?
वागेश्वरी ने मुस्कुराकर कहा-आप तो गाली दे रहीं हैं। यह मेरे स्वामी हैं।
जेनी पर मानो वज्रपात हुआ। उसके मुख पर से नम्रता का आवरण हट गया और मन में छुपा हुआ क्रोध जैसे दांत पीसने लगा।
उसकी गर्दन की नसें तन गयीं, दोनों मुट्ठियां बंध गयीं। उन्मत्त होकर बोली-बङा दगाबाज आदमी है। इसने मुझसे बङा धोका किया। मुझसे इसने कहा कि मेरी स्त्री मर गयी है। कितना बङा धूर्त है! यह पागल नहीं है। इसने पागलपन का स्वांग भरा है। मैं अदालत से इसकी सजा कराऊंगी।
क्रोधावेश के कारण वह कांप उठी। फिर रोते हुये बोली-इस दगाबाजी का मैं इसे मजा चखाऊंगी। ओह! इसने मेरा कितना घोर अपमान किया है। ऎसा विश्वास घात करने वाले को जओ दण्ड दिया जाय वह थोङा है। इसने कैसी मीठी-मीठी बातें करके मुझे फ़ांसा। मैने ही इसे जगह दिलायी, मेरे ही प्रयत्नों से यह बङा आदमी बना। इसके लिये मैने अपना घर छोङा, अपना देश छोङा और इसने मेरे साथ ऎसा कपट किया।
जेनी सिर पर हांथ रखकर बैठ गयी। फिर तैश में उठी और मनहर के पास जाकर उसको अपनी ओर खींचती हुयी बोली-मैं तुम्हे खराब करके छोङूंगी। तूने मुझे समझा क्या है_
मनहर इस तरह शान्त भाव से खङा र्हा, मानो उससे उसे कोई प्रयोजन ही नहीं है।
फिर वह सिंहनी की भांति मनहर पर टूट पङी और उसे जमीन पर गिराकर उसकी छाती पर चढ बैठी। वागेश्वरी ने उसका हांथ पकङकर अलग कर दिया।और बोली-तुम ऎसी डायन न होती, तो उनकी यह दशा क्यों होती?
जेनी ने तैश में आकर जेब से पिस्तौल निकाली और वागेश्वरी की तरफ़ बढी। सहसा मनहर तङपकर उठा, उसके हांथ से भरा हुआ पिस्तौल छीनकर फ़ेंक दिया और वागेश्वरी के सामने खङा हो गया। फिर ऎसा मुंह बना लिया मानो कुछ हुआ ही नही हो।
उसी वक्त मनहर की माताजी दोपहरी की नींद सोकर उठीं और जेनी को देखकर वागेश्वरी की ओर प्रश्न भरी आंखो से ताका।
वागेश्वरी ने उपहास भाव से कहा-यह आपकी बहू है।
बुढिया ठिनककर बोली-कैसी मेरी बहू? यह मेरी बहू बनने जोग है बंदरिया?
लङके पर न जाने क्या कर करा दिया, अब छाती पर मूंग दलने आयी है?
जेनी एक क्षण तक मनहर को खून भरी आंखो से देखती रही। फिर बिजली की भांति कौधकर उसने आंगन में पङा पिस्तौल उठा लिया और वागेश्वरी पर छोङना ही चाहती थी कि मनहर सामने आ गया। वह बेधङक जेनी के सामने चला गया। उसके हांथ से पिस्तौल छीन लिया और अपनी छाती में गोली मार ली।

प्रेमचंद



आधुनिक हिन्दी और उर्दू कथा साहित्य के पथ प्रदर्शक, मुंशी प्रेमचन्द का असली नाम धनपत राय था। उनका जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणासी के निकट एक गांव लमही में हुआ था।उनके पिता मुंशी अजायबलाल डाक घर में अत्यन्त मामूली वेतन पाने वाले एक कर्मचारी थे। आठ वर्ष की अल्पायु में ही उन्होने अपनी माँ को खो दिया। उनकी दादी ने उनकी देखभाल करने की जिम्मेदारी ली प्रन्तु वे भी शीघ्र ही इस दुनिया को छोङकर चली गयीं।
उनकी प्राम्भिक शिक्षा एक मदरसे में मौलवी द्वारा हुयी जहां उन्होने उर्दू का अधययन किया। उनका विवाह १५ वर्ष की अल्पायु में, जब वे ९वीं कक्षा मॆं पढ रहे थे, हो गया; परन्तु यह विवाह चल नहीं सका और बाद में उन्होंने दोबारा एक बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया।
बाद में उनके पिता की भी मृत्यु हो गयी और १८९८ में इण्टरमीडीयेट के बाद उन्हे अपनी पढायी छोङनी पङी। वे एक प्राईमरी स्कूल मे अध्यापन का कार्य करने लगे और कई पदोन्नतियों के बाद वे ड्प्युटी इंस्पैक्टर आफ़ स्कूल बन गये। १९१९ में उन्होने अंग्रेजी, पर्षियन,और इतिहास विषयों से स्नातक किया। महात्मा गांधी के 'असहयोग आन्दोलन' में योगदान देते हुये उन्होने अंग्रेजी सरकार की नौकरी को त्याग दिया। उसके बाद उन्होने अपना सारा ध्यान अपने लेखन की ओर लगा दिया। उनकी पहली कहानी कानपुर से प्रकाशित एक पत्रिका 'ज़माना' में प्रकाशित हुयी। उन्होने अपनी प्रारम्भिक लघुकथाओं में उस समय की देश्भक्ति की भावना का चित्रण किया है। 'सोज़-ए-वतन' नाम से उनका देशभक्ति की कहानियों का पहला संग्रह १९०७ में प्रकाशित हुआ,जिसने ब्रिटिश सरकार का ध्यान १९१४ में आकृष्ट किया।
जब प्रेमचन्द ने हिन्दी में लिखना शुरु किया तो उस समय तक उनकी पहचान उर्दू कहानी कार के रूप में बन चुकी थी।
उन्होने अपने उपन्यास और कहानियों में जीवन की वास्तविकताओं को प्रस्तुत किया है और भारतीय गांवो को अपने लेखन का प्रमुख केन्द्रबिन्दु रखा है।उनके उपन्यासों में निम्न-मध्यम वर्ग की समस्याओं और गांवो क चित्रण है। उन्होने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर भी बल दिया।
प्रेमचन्द को उर्दू लघुकथाओं का जनक कहा जाता है। लघु कथायें या 'अफ़साने' प्रेम्चन्द द्वारा ही शुरु किये गये। उनके उपन्यासों की तरह उनके अफ़साने भी समाज का आईना थे।
प्रेमचन्द पहले हिन्दी लेखक थे जिन्होने अपने लेखन में वास्तविकता का परिचय दिया। उन्होने कहानी को एक सामाजिक उद्देश्य से पथ-प्रदर्षित किया। उन्होने गांधी जी के कार्य में सहयोग देते हुये उनके राजनीति क और सामाजिक आदर्शों को अपनी लेखनी का आधार बनाया।
एक महान उपन्यास कार होने के साथ-साथ प्रेमचन्द एक समाज सुधारक और विचारक भी थे। उनके लेखन का उद्देश्य सिर्फ़ मनोरंजन कराना ही नहीं बल्कि सामाजिक कुरीतियों की ओर ध्यान आकृष्ट कराना है। वे सामाजिक क्रान्ति में विश्वास करते थे और उनका विचार था कि सभी को सुअवसर प्राप्त हो। उनकी मृत्यु १९३६ में हो गयी और तब से वो भारत ही नहीं अपितु अन्य देशों में भी उनका अध्ययन सदी के एक महान साहित्यकार के रूप में होता है।
उनकी प्रमुख रचनायें:-
उनके प्रमुख उपन्यास हैं-प्रेमा,वरदान, सेवासदन, प्रेमाश्रमा, प्रतिज्ञान, निर्मला, गबन, रंगभूमि, कायाकल्प, कर्मभूमि, गोदान, और एक अपूर्ण उपन्यास मंगलसूत्र।
उन्होने बहुत सी यादगार लघुकथाऎ लिखी। उनके प्रमुख अफ़सानों में कातिल की मा, जेवर का डिब्बा, गिल्ली डण्डा, ईदगाह, नमक का दरोगा, और कफ़न हैं। उनकी कहानियों के संग्रह प्रेम पचीसी, प्रेम बत्तीसी, वारदात, और ज़ाद-ए-राह के नाम से प्रकाशित हुये।

Wednesday, November 25, 2009

शेरनियों का सेवा सप्ताह

शहर के बीचों बीच एक स्कूल की खण्डहरनुमा खपरैल वाली इमारत. स्कूल के भीतर बच्चे जमीन पर बैठ्कर रट्टा लगा रहे थे. कमरों की बिना पल्लों वाली खिड्की पर चढ्कर कुछ शरारती बच्चे उत्सुकता वश बाहर झांक रहे थे. क्लास में अध्यापक नहीं था. शायद पूरे विध्यालय में एक या दो अध्यापिकयें ही बच्चों को पढाने के लिये रखी गयीं थीं. इनमें से किसी के पास क्लास में जाने की फ़ुर्सत नहीं थी. वो शट्लकाक की तरह इधर उधर भाग रहीं थीं. उनके हावभाव से ऐसा लग रहा था जैसे बैठे बिठाये आफ़त आ गयी हो.
बच्चों को कपडों और स्कूल की इमारत को देखकर लगता था कि यही असली भारतीय स्कूल हॊ और यहां शुध भारतीय नागरिकों की सन्तानें भारतीय माहौल में पढ्ती हैं. मल्टीनेशनल्स के प्रदूषण से बिल्कुल मुक्त.
टूटे-फूटे, बिना प्लास्टर की दीवार पर एक खूबसूरत बैनर टंगा था. बैनर पर लिखा था, 'सेवा सप्ताह....प्रायोजक : शेरनियां'. जो इन सेविकओं के बारे में पहले से न जानते रहे हों, वे बैनर पढ्कर डर भी सकते हैं. जब शेरनियां करेंगी सेवा तो शहर में बचेगा कौन? लेकिन हकीकत यह थी कि लायंस क्लब की तमाम महिलायें स्वयं को शेरनियां कहे जाने से पुलकित हो जाती हैं और गौरवान्वित मह्सूस करती हैं.
बैनर के नीचे रंग बिरंगे ईस्ट्मैन कलर वाली साडियां पहने बेडौल जिस्म की तीन-चार महिलायें भारी-भारी पर्स लट्काये खडी हैं. बेचैन सी.
कैमरा बैनर का क्लोज अप लेकर जूम बैक होता है...कट.... एक महिला की कलाई घडी का क्लोज अप. साढे दस बजे हैं,कट..
मिसेज कत्याल: उफ! साढे दस बज गये हैं. गर्मी के मारे बुरा हाल है.

एक पंखा तक नहीं है इस स्कूल में .... न जाने कब आयेंगे ज़ोनल चेयरमैन तब तक इस धूप में सारा मेक अप ही बह जायेगा. घंटा भर की मेहनत दस मिनट में बर्बाद हो जायेगी.
मिसेज शर्मा: मेक अप ही नहीं चेहरे का रंग ही बदल जायेगा...(हंसती है) घर लौटेंगी तो मिस्टर कात्याल घर में घुसने नहीं देंगे. कहेंगे पता नहीं कौन आ गयी मेरी बीवी बनकर.....(फ़िर तेज हंसी)....

मिसेज कात्याल: अपको तो मजाक सूझ रह है. लौट्कर जाइयेगा तो आपना भी चेहरा देखियेगा आईने में.....कहेंगी ओ गौड! ऎसी भूतनी लग रही थी मैं...अगली बार से तौबा कर लेंगी इस सर्विस वीक से...

मिसेज गुप्ता: यार यह तो पहला एक्सपीयरेन्स है. पहले तो मैं बहुत एक्साइटेड फ़ील कर रही थी कि स्कूल में जायेंगे, बच्चों के मुस्कुराते हुये चेहरे होंगे. उन्हें टाफ़ियां दूंगी, केले दूंगी.....पप्पी भी ले लूंगी....छिह! अब तो उबकाई आती है. कैसे गन्दे बच्चे हैं, कैसा स्कूल है .टीचर को देखा है....बूढी सी मरियल सी.....गंदी धोती पहन रखी है..स्लीपर डाल रखा है पैरों में.....यह क्या पढाती होगी बच्चों को? मैं तो महरी न रखूं इसे अपने यहां.....मेरे वो कहते हैं महरी को देखकर घर का स्टेटस पता चलता है ऎसे गन्दे कपडों में खाना दें तो बच्चे भी फ़ेंक दें.....छिह
मिसेज शर्मा: भई, हिन्दी स्कूल है. हिन्दुस्तानी पढते हैं. कोई कान्वेंट तो है नहीं.
मिसेज गुप्ता: तो क्या हम हिन्दुस्तानी नहीं हैं? हम भी तो कयदे से रहते हैं.......

मिसेज शर्मा: आप लोग बेकार की बहस में पडीं हैं. जरा सोंचिये तो कि अगर यह स्कूल कायदे का होता तो हम यहां सेवा करने क्यों आते? सोंचने वाली बात है न...... हैड क्वार्टर से मैसेज आया है कि आपने एरिया के किसी गन्दे स्कूल को सेलेक्ट कर लें और वहां जाकर सर्विस करें. पूरे वीक में करीब दो दर्जन स्कूल में सेवा की जानी है. इसकी रिपोर्ट भी छ्पेगी अपनी मैगजीन में फ़ोटो के साथ. अच्छी सेवा करने वाले डिस्ट्रिक को प्राइज भी मिलेगा.
मिसेज कात्याल: अरे मिसेज सरोज आप कैमरा तो लाईं हैं न? जब जोनल चेयरमैन आयेंगे तो पांच छ: फ़ोटो खींच लीजियेगा.....एक दो ठो तो ठीक आ ही जायेंगी. और देखिये मैं प्रेसीडेण्ट हूं, जब बच्चों को केले दूंगी तो मुझे सेंटर में रखियेगा.....और खींचने से पहले बोल दीजियेगा...... ऎसा न हो कि चेहरे से पसीना बहता नजर आये फ़ोटो में.
मिसेज सरोज: मैं तो एक दो फ़ोटो से ज्यादा नहीं खीचूंगी....बडी महंगी आती है फ़िल्म. कौन देगा पैसे?
मिसेज गुप्ता: अरे दो चार फ़ोटो भी सर्विस वीक में डोनेट नहीं कर सकतीं? मैं छ दर्जन केले लेकर आयी हूं और मिसेज शर्मा दो सौ टफ़ियां लेकर आयी हैं.

मिसेज सरोज: दो फ़ोटो की बात नहीं है. जब तक पूरा रोल खत्म नहीं होगा, रील निकलेगी नहीं....फ़ोटो खींचना बेकार है.
मिसेज कत्याल: आप लोग फ़िर बेवक्त की शहनाई बजाने लगीं. यहां गर्मी के मारे मेरी जान निकली जा रही है, लगता है मैं बेहोश हो जाऊंगी....मिसेज सरोज मेरी एक फ़ोटो सर्विस करते हुए होगी और दूसरी फ़ोटो जब मैं घण्टा प्रेज़ेण्ट करूंगी तब की...... बस.

मिसेज गुप्ता: घंटा तो दूसरे स्कूल में देना है.....?
मिसेज कात्याल: अब मैं दूसरे स्कूल में नहीं जा पाऊंगी. यहीं पर इतनी देर हो गयी है. मेरे हस्बैंड को हाई टैम्प्रेचर है, परेशान हो रहे होंगे...ऎसा करते हैं कि घंटा प्रेज़ेण्ट करते समय फ़ोटो यहां पर ले ली जायेगी और बाद में घंटा दूसरे स्कूल में दे दिया जायेगा. फ़ोटो भी जल्दी भेजनी है न वर्ना मैगज़ीन छ्प जायेगी और फ़ोटो धरी रह जायेगी. हमारे डिस्ट्रिक का सर्विस वीक में नाम नहीं हो पायेगा.....
मिसेज सरोज: अगर घंटा लेने के बाद टीचर ने वापस नहीं किया तो.....?

मिसेज कत्याल: ठीक कह रहीं हैं आप......अभी समझा देते हैं टीचर को...

एक बूढी टीचर को बुलाकर समझाया जाता है कि घंटा प्रेज़ेण्ट करते समय फ़ोटो खिंचेगी और फ़ोटो खींचने के बाद घंटा तुरन्त वापस कर देना है. मिसेज गुप्ता फ़ुसफ़ुसाती हैं मिसेज सरोज से, 'देखो, ३५ रुपये का घंटा है और ६५ रुपये दिखाकर चार्ज कर लेंगी. मैंने तो छ दर्जन केलेओ खरीदे हैं अपनी जेब से....'
तभी शोर उठता है कि जोनल चेयरमैन आ गये. एक लम्बी सी गाडी से जोनल चेयरमैन उतरते हैं. एक मिनट के भीतर ही सभी शेरनिअयां पर्स से आईना, लिपिस्ट्क, कंघी निकलकर मेक अप में व्यस्त हो जाती हैं. जब तक जोनल चेयरमैन कार से उतर कर स्कूल के भीतर प्रवेश करते हैं. तब तक शेरनिअयों के चेहरे की डेंटिग पेंटिग का काम युधस्तर पर पूरा हो जाता है.
जोनल चेयरमैन को शेरनिअयां घेर लेती हैं. उनके सामने बूढी आध्यापिका को घंटा भेंट किया जाता है. फ़ोटो खिंचती है. एक शेरनी आगे बढ्कर अध्यापिका से घंटा वापस ले लेती है. केले बंट्ना शुरु होते हैं. टफ़ियां भी बंट्ने लगती हैं. बच्चों की संख्या केलोंं से ज्यादा है. केले कम पड जाते हैं. मिसेज कत्याल सुझाव देती हैं कि जिन बच्चों को केले नहीं मिले हैं उन्हें दो दो टाफ़ियां और दे दी जायें. लेकिन मिसेज शर्मा टाफ़ियां देने से इन्कार कर देती हैं. बच्चों के चेहरे उतर जाते हैं और जिन बच्चों को केले मिले हैं वो जल्दी जल्दी खाने लगते हैं तकि कोई उनका केला छीन न ले.

टाफ़ी और केले के वितरण के बाद जोनल चेयरमैन सर्विस वीक के महत्व पर आठ दस लाइन का भषण देते हैं. मिसेज सरोज फ़ोटो खींचने में लगी हैं. शेरनियां कनखियों से कैमरे के लेन्स का एंगिल देख देख कर अपने होंठो को लाल करती नज़र आती हैं.
भषण खत्म होता है. जोनल चेयरमैन चले जाते हैं. उनके जाते ही शेरनियां इस तरह भगती हैं जैसे घण्टा बजने पर बच्चे भागते हैं. आचानक एक शेरनी उल्टे पैर वापस लौट्ती है और दीवार पर टंगा बैनर खींच लेती है..... कट!

--स्नेह मधुर

Wednesday, November 18, 2009

यह आदमी

यह आदमी
सुधा इस अदमी से अब बुरी तरह तंग आ चुकी है। 'इस आदमी' से अर्थात अपने पति शिवनाथ से। पुराने संस्कारों के कारण वह अपने पति को नाम लेकर तो संबोधित नहीं कर सकती है, किन्तु प्रचलित परंपरा के अनुसार अपने बच्चों के नाम लेकर 'शेखर के डैडी' या 'सरो के बाबू' कहकर भी उसे अपने पति को सम्बोधित करना अच्छा नहीं लगता। पता नहीं क्योंइस तरह के सम्बोधनों से उसे ढलती उम्र या बुढापे के अरुआये-बसियाये दाम्पत्य की बू आती है। इसलिये शिवनाथ के लिये वह हमेशा 'इस आदमी' या 'यह आदमी' जैसे सर्वनामों का ही प्रयोग करती है।
शादी के बाद कुछ दिनों तक यह आदमी उसे थोङा अटपटा सा....कुछ-कुछ खक्की किस्म का जरूर लगा था, लिकिन वैसा कुछ नहीं जिसको लेकर चिन्तित हुआ जाये या इसके बारे में कुछ अन्यथा सोंचा जाय। बात बेबात खिजते कुढते रहना या छोटी-छोटी बातों पर भी उत्तेजित होकर देर तक बङबङाते- भूनभुनाते रहने जैसी इसकी हरक्तों को सुधा इस आदमी का स्वभाव ही मानकर अपने मन को तसल्ली दे दिया करती थी।
उसे विश्वास था कि उसके अनुभवी पिता अपनी बेटी की शादी किसी सिरफिरे पगलेट से नहीं कर सकते। इस आदमी के बारे में पूरी तरह जांच-पङताल करके और देखसुनक्र ही उन्होंने उसका रिशा तय किया था।
उसके पिता ने इस आदमी को दो साल तक हाई स्कूल में पढाया भी था और इसके पिता से भी उनकी पुरानी जान-पहचान थी। ऎसी स्थिति में धोखा खाने जैसी किसी बात की सम्भावना नहीं की जा सकती थी। रिश्ता तय करके जब पिता जी घर लौटे थे तो इस आदमी की तारीफ करते नहीं अघाते थे। जो कोई भी लङके और उसके घ र परिवार के बारे मेंउनसे पूंछता,वे एक ही बात पर जोर देकर सबसे कहते, "देखो भई, हमने धन-दौलत, कोठा अभारी नहीं देखी है, बस केवल लङका देखा है जो लाखों मॆं एक है। वैसा सज्जन, सच्चरित्र और मेधावी लङका आज के युग में विरले ही मिलता है। 'सिंपल लिविंग और हाई थिंकिग वाला लङका है। सरकारी नौकरी में भी लगा है। वैसे घर पर साधारण खेती-बाङी भी है। उसके पिता मिडिल स्कूल के प्राधानाध्यापक के पद से पिछले साल ही सेवानिवृत्त हुये हैं। पुरानी जान-पहचान और दोस्ती थी, इसलिये यह काम इतनी आसानी से बन गया, अन्यथा आज के जमाने में सरकाई नौकई में लगे लङकों की कीमत कितनी बढ गई है, आप सब लोग जानते ही हैं। मेरी सुधा बिटिया बङी किस्मतवाली है कि ऎसा लङका इतनी आसानी से मिल गया।"
इसलिये सुधा आश्वस्त थी कि यह आदमी दूसरे लोगों से थोङा भिन्न जरूर है, लिकिन पागल वागल तो कतई नहीं है। वैसे भी इस आदमी में सुधा को कुछ खास खराबी नहीं दिखाई देती है। पढा-लिखा है, व्यक्तित्व भी आकर्षक है, जुआ शराब, औरतबाजी या इस तरह की कोई बुरी लत भी नहीं है। और सबसे बङी बात जो यह कि शादी के पहले से ही अच्छी सरकारी नौकरी में लगा है। लोकनिर्माण विभाग में जूनियर इंजीनियर की नौकरी कोई ऎसी वैसी साधारण नौकरी तो नहीम है! इसी नौकरी में रहकर कितने लोगों ने लाखों-लाख कमाये हैं, जमीन मकान खङे कर लिये हैं....क्या-क्या न कर लिया है! अब कोई कुछ करना ही न चाहे तो इसमें पद और विभाग का क्या दोष?
सुधा जनती है कि उस जैसी एक साधारण शिक्षक की हाईस्कूल पास बेटी को इससे बढिया दूल्हा मिल भी कैसे सकता था! अपनी शिक्षा, रूप-गुण और परिवार की स्थिति की सीमाओं को देखते हुये उसने अपने पति के रूप में किसी आई.ए.एस-आई.पी.एस य बङे घराने के किसी राजकुमार का सपना भी नहीं देखा था। इसलिये शादी के स्मय शिवनाथ जैसा सुन्दर, स्वस्थ, वरित्र्वान और कमाऊ पति पाकर उसने अपने भाग्य को सराहा भी था।
लेकिन तब उसे कहां मालूम था कि यह आदमी ऎसा भी होगा। वेश-भूषा, रहन-सहन और बात-व्यवहार में इतना सीधा-सरल....एकदम सिधुआ सा, किंतु भीतर-भीतर तितलौकी सा कङवा....कच्चे कोयले की अंगीठी सा अंदर ही अंदर धुंआते-सुलगते रहने वाला. तेज आंच में पक रही बेसन की कढी सा भीतर ही भीतर खदबदाते, खौलते रहने वाला.....
कभी कभी तो वह इस आदमी की हरकतों से इतनी खीज और झल्ला उठती है कि अपने सिर पर दोहत्ती मार-मारकर अपने करम को कोसने लगती है। उसकी समझ में नहीं आता कि यह आदमी सारी दुनिया से खार खाये क्यूं बैठा रहता है! हर बात और हर आदमी से इसे शिकायत ही शिकायत क्यों र्हती है? क्या अपने देश में, अपने समाज में, आफिसों में, सरकार में कहीं भी कुछ अच्छा नही हो रहा है? क्या कहीं कुछ भी नहीं ऎसा जो इस आदमी को अच्छा लगे? जिसकी यह तारीफ कर सके?

सब लोग जनते हैं कि सरकार गरीबों की भलाई के लिये तरह-तरह की योजनायें चला रही है। लाखों लोगो को गरीबी की रेखा से ऊपर उठा दिया गया है, बेघर-बार लोगों के लिये घर बनाकर दिये जा रहे हैं। ये सारी बातें तो रोज-रोज अखबारों में भी छपती हैं रेडियो में भी सुनायी जाती हैं। क्या रेडियो और अखबार झूठ बोलते हैं? लेकिन यह आदमी मानता ही नहीं है। जब भी अखबार मॆं ऎसी कोई खबर छपती है, या रेडियो में सुनाई जाती है, इस आदमी पर बकने-बोलने के दौरे पङने लगते हैं। रेडियो और अखबार वालों को गाली देने लगता है, "साले सब के सब सरकार के दलाल बन गये हैं....पैसों पर बिक गये हैं। ये लोग देश और जनता के गद्दार हैं। झूठ बोलकर लोगों को फुसलाते -बरगलाते हैं। कहां गरीबी मिटी है? किसकी गरीबी मिटी है? लोग तो पहले से भी अधिक गरीब होते जा रहे हैं...."

बकता जायेगा...बकता रहेगा यह आदमी बिना सांस लिए। चाहें कोई सुने या नहीं, इसका भाषण जारी रहेगा। हर समय खीजे-कुढे रहना, चिङचिङाये-पिनपिनाये रहना, बङबङाते-मिनमिनाते रहना-भला यह भी कोई ढंग है! हमेशा थोबङा लटकाये रहेगा, जैसे दुनिया जहान की सारी विपत्ति इसी के सर आ पङी है। क्या तुम्हारे कुढने बङबङाने और थोबङा लटकाये रहने से कहीं कुछ बदल जायेगा? क्या देश-दुनिया से अत्याचार, अन्याय शोषण-उत्पीङन, गुंडागर्दी और रिश्वतखोरी तुम्हारे कुढने-बङबङाने से मिट जायेगी? क्क्या तुम्हारे कहने से सरकार पूंजीपतियों-उद्योगपतियों से धन छीनकर गरीबों में बांट देगी? क्या मंत्री और नेता लोग अपने सजे -सजाये विशाल बंगलों और फ्लैटों में झोपङपट्टी और फुटपाथ वालों को बुलाकर बैठा लेंगे? अगर कभी इसकी ऎसी आलतू-फाल्तू बातें सुनते-सुनते मन ऊब जाता है और कुछ बोल देती हुं, तो इसे जैसे मिर्ची लग जाती है और अधिक बौखला कर बोलने लगता है। कहता है, "जब ये बेईमान दगाबाज लोग खुद अपनी बातों पर अमल नहीं करते, तो मंच पर खङे होकर जनता के सामने ऎसा भाषण देते ही क्यों हैं? चुनाव के समय झूठे वायदे क्यों करते हैं?"

अब भला इस सिरफिरे आदमी को कौन समझाये कि मंच से भाषण देना तथा चुनाव के समय लम्बी लम्बी बातें करना दीगर बात है औ उस पर अमल करना दीगर बात। लाखों रुपये जो चुनाव में फूंकेगा, वह किसी न किसी तरह अपने रुपए निकालेगा कि नहीं? फिर उसे आगे भी तो चुनाव लङना है। कमायेगा नहीं तो अगले चुनाव में खर्च कहां से करेगा?
माना कि हर विभाग और महकमे में कुछ न कुछ गङबङी है। हर आफिस में भ्रष्टाचार है। काम ठीक ढंग से नहीं होता है। घूस-रिश्वत का बाजार है, गलत ढंग के लोगों का बोलबाला बढ गया है। लेकिन क्या तुम यह सब रोक सकते हो? क्या तुम्हारे पास इसे रोकने-बदलने की कुव्वत है? जब तुम्हारे किये कुछ होने वाला नहीं तो कुढ-खीजकर अपनी सेहत खराब करने का क्या फायदा? पहाङ से सिर टकराओगे तो तुम्हारा ही सिर फूटेगा, पहाङ का क्या बिगङेगा?
जब भी समझाने की कोशिश करती हूं, यह आदमी और भङक उठता है। लगता है चीखने-चिल्लाने और बकवास करने। मुझसे कहता है, "तुम्हारे जैसे सङे-गले बीमार दिमाग वालों के चलते ही इस देश में न सामाजिक परिवर्तन हो पा रहा है, न आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन। सूअर की तरह गंदगी को ही अपना स्वर्ग मानकर जैसे-तैसे अपनी जिन्दगी गुजार देने वाले लोग ही ॓सी बेहूदी बातें कर स्कते हैं। ऎसे ही लोग कह सकते हैं कि पहाङ से सिर टकराने से क्या होगा? गलत को गलत कहने से क्या होगा? करने से सब्कुछ होता है, सब कुछ हो स्कता है देवी जी! कभी न कभी तो टूटेगा ही। आदमी में बदलने और तोङने की इच्छा होनी चाहिये। दृढ संकल्प और पक्का इरादा होना चाहिये। अत्याचार अन्याय को सिर झुकाकर चुपचाप सहते रहकर जीने और उसका विरोध कर करते हुये उसे अस्वीकार करते हुये जीने में बहुत फर्क होता है...बहुत।"

इस तरह की अनाप-शनाप बातें बकता रहता है यह आदमी। पूरा पागल है पागल। मुझे सङियल दिमाग और नाबदान का कीङा कहता है। भला कोई सही दिमाग वाला आदमी अपनी पत्नी को ऎसा कहता है?

इसी पागलपन के चलते तो आज तक इनको पदोन्नति नहीं हुई। इससे जूनियर शर्मा भाई साहब अभियन्ता बन गये। जमीन खरीदकर इसी शहर में अपना दोमंजिला मकान बनवा लिया। पांच-पांच बच्चों को पब्लिक स्कूल में डाल रखा है। फ्रिज, टीवी, वीसीआर क्या नहीं है उनके घर में?इधर खुद सरकारी क्वार्टर में रहते हैं उधर हर महीने डेढ हजार रुपये अपने मकान का भाङा भी उथाते हैं। और एक यह आदमी है....सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र! दो ही तो बच्चे हैं, उन्हें भी नगर पालिका के स्कूल में डाला हुआ है। बच्चे छिप-छिप कर पङोसियों के घर टीवी देखने जाते हैं। मैंने कई बार कहा कि न बङा वाला तो एक छोटा वाला ही टीवी लेलो। किरानियों और चपरासियों के घर तक में टीवी आ गया है। क्या हम उनसे भी गये-गुजरे हैं? लेकिन इसके कान पर जूं तक नहीं रेंगती। एक दिन बहुत जिद करने लगी तो अलमारी में से सेविंग बैंक की पासबुक निकालकर मेरे आगे पटक दी, " लो, देख लो, तीन सौ इकत्तीस रुपये पङे हैं बैंक में। अगर इतने में टीवी मिलता हो तो जाकर आज ही खरीद लाओ बाजार से।"

भला तीन सौ इकतीस रुपये में कहीं टीवी मिलता है? टीवी फ्रिज तो गया भाङ चूल्हे में, शादी के बाद से अभी तक इस आदमी ने एक भी धंग की साङी दी है मुझे खरीदकर! कहीं आने-जाने के लिये सिल्क की एक अच्छी साङी लेने का मन कितने दिनों से कर रहा है। जब भी कहती हूं, लगता है दुनिया भर का लेक्चर झाङने कि इस महंगाई के जामाने में पेट में डालने के लिये मोटा अन्न और तन ढकने के लिये कैसा भी कपङा मिल जाये यही बहुत है। ये सिल्क और टेरेलीन बङे लोगों के चोंचले हैं। हम लोग एसा शौक नहीं पाल सकते। जानती हो इसी देश में हजारों लाखों लोग हैं जो कपङे और अन्न के अभाव में नंगे-भूंखे रहते हैं, दवा के बिना घुट-घुट कर मर रहे हैं और तुम चार-पांच सौ की एक साङी पहनना चाहती हो?
अब इस पगले को कैसे बताया जाय कि उन लाखों करोङो के अन्न-वस्त्र और दवा के बारे मॆं चिन्ता करने की जिम्मेदारी सरकार की है, तुम्हारी नहीं। काजी जी को शहर के अंदेशों से दुबला होने की जरूरत नहीं। तुम्हारे खद्दर के कुर्ता-पायजामा पहनने से सिल्क और टेरेलीन की बिक्री इस देश में रुक तो नहीं गई है!

मैं पूंछती हूं, उसी आफिस मॆं शर्मा भाईसाहब भी तो काम करते हैं, सक्सेना जी और तिवारी जी भी तो करते हैं! तुम्हारी तरह कौन अपने बङे आफिसरों और ठेकेदारों से लङता झगङता रहता है? ठीक है, तुम बङे संत महात्मा हो, तो मत लो घूस और रिश्वत, मत करो ठेकेदारों के जाली बिलों पर हस्ताक्षर, मत करो उनके गलत बिल पास, लेकिन दूसरों के पीछे लट्ठ लेकर क्यों पङे रहते हो? तुमने क्या दुनिया-जहन को सुधारने का ठेका ले रखा है? लेकिन यह आदमी मेरी कुछ सुने तब न! कभी इस आफिसर से लङाई करके बौखलाया हुआ घर लौटेगा, तो कभी उस आफिसर से डांट-फटकार खाकर घोंघा जैसा मुंह बनाये घर लौटेगा। ठेकेदार लोग धमकी देते रहते हैं। किसी दिन कोई गुंडा-बदमाश पीछॆ लगा देगा तब इसकी बात समझ में आयेगी। हड्डी -पसली तोङ कर रख देंगे सब।

मुझे तो कभी-कभी इस आदमी की हरकतों पर हंसी भी आती है और रोना भी। अब भला अखबार में छपी किसी खबर को लेकर कोई किसी से गाली-गलौज और हाथापाई करता है। अभी चार-पांच दिन पहले की ही बात है। अखबार मॆं कोई खबर छपी थी किबिहार के किसी गांव के उच्चवर्ग के लोगों ने हरिजलों के घर में आग लगा दी, जिससे सात हरिजन जिन्दा ही जलमरे। इनमें बच्चे और बूढे भी थे।
तिवारी भाई साहब भी वहीं बैठे थे। खबर पढने के बाद वे केवल इतना ही बोले थे, " ठीक किया बिहार वालों ने, इन लोगों को अप्नी औकात पर ल दिया।"

इतना सुनना था कि यह आदमी अगिया बेताल बन गया। लगा तिवारी जी से तू-तङाक करने। गुस्से मॆं आकर उन्हे गालियां बकने लगा, " देखो तिवारी, मेरे सामने ऎसी घिनौनी बातें करोगे तो ठीक नहीं होगा। तुममें और जानवर में कोई अन्तर नहीं है। तुम्हारा दिमाग सङ गया है। तुम्हारे भीतर आदमीयत नाम की चीज है ही नहीं। इतनी शर्मनाक अमानुषिक घटना घट गई और तुम कह रहे हो ठीक हुआ!
हरिजन क्या आदमी नहीं है? उन्हे क्या हमारे तुम्हारे जैसा जीने और रहने का अधिकार नहीं है? शर्म नहीं आती तुम्हे इस तरह की बातें करते हुये और सोंचते हुये?"

इस पर तिवारी जी भङक उठे थे। दोनो मॆं हाथा पाई की नौबत आ गई थी। वह तो पङिसी नन्द्लाल बाबू आकर बीच बचाव न करते तो उस दिन न जाने क्या हो जाता।

अब भला अखबार में छपी बात को लेकर कोई किसी से झगङा करता है! अखबार में तो रोज ही ऎसी रोज ही झूठी-सच्ची खबरें छपती रहती हैं। कौन उनको लेकर अपना सिर धुनता है। कल ही तो खबर छपी थी कि पुलिसवालों ने हिरासत में बन्द एक औरत के साथ जबर्दस्टी मुंह काला किया। खबर पढने के बाद घांटॊ यह आदमी बकता-झकता रहा, सरकार और पुलिसवालों को गालियां देता रहा, अपना सिर पीटता रहा, और फिर इसी चिन्ता में बिना खाये-पिये ही आफिस चला गया।

यह सब पागलपन नहीं है तो और क्या है? अपने बाल-बच्चों और घर-परिवार की चिन्ता नहीं और दुनिया जहान के बारे में सोंचकर अपना खून जलाते रहना। मुझे तो लगता है, यह आदमी कुछ ही दिनों में पूरा का पूरा पागल हो जायेगा। तीन बार नौकरी से सस्पेंड किया जा चुका है। इस बार किसी से लङ झगङ लिया तो नौकरी से ही निकाल दिया जायेगा। हे भगवान! तब क्या होगा हमारे बाल-बच्चों का?

लेकिन अचरज तो मुझे इस बात पर होता है कि आज भी मेरे पिता जी इस आदमी की तारीफ करते नहीं थकते। कहते हैं, "अगर इस देश में थोङे से नौजवान भी मेरे शिवनाथ बेटे जैसे हो जायं तो इस देश का नक्शा ही बदल जाय। आज देश को ऎसे ही युवकों की जरूरत है।"

खाक जरूरत है! ऎसे पागलों से कहीं देश का नक्शा बदलता है!
पता नहीं मेरे पिताजी के दिमाग में भी कोई गङबङी शुरु हो गई है क्या? न जाने कैसी एक हवा चली है, बहुत लोग इसी तरह के पागल हो रहे हैं। हे भगवान! मेरे शेखर और सरो को बचाना इस बीमारी से। सुनती हूं, यह बीमारी खानदानी होती है। तो क्या मेरे बच्चे भी...

-जवाहर सिंह