Wednesday, November 18, 2009

गोपाल दास सक्सेना 'नीरज'


गोपाल दास सक्सेना नीरज का जन्म ४ जनवरी १९२५ को उत्तर प्रदेश के जिला इटावा के गांव पुरावली में हुआ। उन्होंने सन १९५३ में प्रथम श्रेणी में एम.ए. किया। सालों तक सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों में टाइपिसट और क्लर्क की नौकरियां की। बाद में मेरठ कालेज में हिन्दी प्राध्यापक हुये फिर अलीगढ के एक कालेज में पढाया। देश भर में कवि सम्मेलनों में हिस्सा लिया। फिल्मों में यादगार गीत लिखे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर अनेक विश्वविद्यालयों में शोध कार्य हुआ। भारत सरकार द्वारा पदम श्री के अलावा उन्हें अनेक और भी पुरस्कार और सम्मान मिले।
नीरज कहते हैं, “मेरी भाषा के प्रति लोगों की शिकायत रही है कि न तो वह हिंदी है और न उर्दू. उनकी यह शिकायत सही है और इसका कारण यह है कि मेरे काव्य का जो विषय मानव प्रेम है उसकी भाषा भी इन दोनों में से कोई नहीं है।"

अंधियार ढल कर ही रहेगा।

रोशनी पूंजी नहीं है, जो तिजोरी में समाये,
वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर गाहक लगाये,
वह पसीने की हंसी है, वह शहीदों की उमर है,
जो नया सूरज उगाये जब तड़पकर तिलमिलाये,
उग रही लौ को न टोको,
ज्योति के रथ को न रोको,
यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

दीप कैसा हो, कहीं हो, सूर्य का अवतार है वह,
धूप में कुछ भी न, तम में किन्तु पहरेदार है वह,
दूर से तो एक ही बस फूंक का वह है तमाशा,
देह से छू जाय तो फिर विप्लवी अंगार है वह,
व्यर्थ है दीवार गढना,
लाख लाख किवाड़ जड़ना,
मृतिका के हांथ में अमरित मचलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

है जवानी तो हवा हर एक घूंघट खोलती है,
टोक दो तो आंधियों की बोलियों में बोलती है,
वह नहीं कानून जाने, वह नहीं प्रतिबन्ध माने,
वह पहाड़ों पर बदलियों सी उछलती डोलती है,
जाल चांदी का लपेटो,
खून का सौदा समेटो,
आदमी हर कैद से बाहर निकलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

वक्त को जिसने नहीं समझा उसे मिटना पड़ा है,
बच गया तलवार से तो फूल से कटना पड़ा है,
क्यों न कितनी ही बड़ी हो, क्यों न कितनी ही कठिन हो,
हर नदी की राह से चट्टान को हटना पड़ा है,
उस सुबह से सन्धि कर लो,
हर किरन की मांग भर लो,
है जगा इन्सान तो मौसम बदलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

--गोपाल दास नीरज

Monday, November 16, 2009

चौराहा

पुरानी सड़क का सबसे खूबसूरत बाजार चंदनी चौक है। जहां सदा मेला लगा रहता है। सड़क के दोनों ओर फुटपाथ पर दुकाने सजी हुई हैं। रंग-बिरंगे खिलौने। भालू, बंदर, गाय, बत्तख और न जाने कैसे कैसे खिलौने थे जिन्हें देखकर किसका मन न ललचाये। एक दुकान पर कुछ लड़कियां चूड़ियां खरीद रही थीं। १० वर्षीय रीना दूर से खड़ी चूड़ियों की दुकान को देख रही थी। फिर कुछ सोंचकर दुकान पर आई और दुकानदार से पूंछा, "ये हरी-हरी चूड़ियां कैसी दीं?" "२४ रुपये दर्जन"। "२ चूड़ियां देना।" दुकानदार ने उसे दो चूड़ियां दीं। वह एक एक चूड़ी दोनों हांथों में पहनकर बहुत खुश हुई। फिर उसे ध्यान आया कि उसके पास तो पैसे भी नहीं हैं। घर में पैसे नहीं हैं यह बात वह बहुत अच्छे से जानती थी। पिता बीमार रहते थे। मां लोगों के घर बर्तन साफ करती थी। जैसे तैसे घर का खर्चा चल रहा था। रीना पिता की देखभाल व घर का चूल्हा चौका करती। उसने भी कुछ काम करके पैसे कमाने की सोंची। फिर वह काम मांगने इधर उधर जाने लगी। पर सब उसे बच्ची कहकर भगा देते। तभी उसे विचार आया कि वह चौराहे पर जाकर अपने लिये कोई काम देखे। अक्सर उसके सोनू भईया वहां अखबार बेचते और राधा गजक बेचती। यह सब देखकर रीना ने सोंचा कि वह भी कुछ काम करेगी। कभी कभी रीना सोंचती वह भीख मांगेगी पर लोग क्या कहेंगे। वह यह जानती थी कि भीक मांगना अच्छी बात नहीं है। चोरी करना भी पाप है। पर नाटक तो किया ही जा सकता है। उसने कुछ सोंचकर अपना एक हांथ फ्राक में छुपा लिया और भीक मांगने लगी। "बाबू जी पैसे दे दो। एक नहीं तो दो दे दो!" ऎसे कभी उसे पैसे मिलते कभी दुत्कार। एक बार रीना चौराहे पर भीक मांग रही थी। लाल बत्ती हुई तो एक तिपहिया आकर रुका। रीना ने उससे पैसे मांगे। तिपहिये में बैठे व्यक्ति ने उससे पूंछा, "बिटिया तुम भीख क्यों मांग रही हो? तुम्हारी क्या मजबूरी है?" "मुझे हरी हरी चूड़ियां खरीदनी हैं अंकल जी। मैं आपसे भीक नहीं मांग रही बल्कि अपना अभिनय दिखा रही हूं।" "पर तुम्हारा तो एक ही हांथ है फिर २ चूड़ियां क्या करोगी?" "नहीं अंकल जी मेरा हांथ टूटा नहीं है बल्कि मैं अपाहिज होने का नाटक कर रही हूं।" कहते हुये उसने अपना हांथ फ्राक से बाहर निकाल दिया। "तुम एक दिन महान अभिनेत्री बनोगी।" कहते हुये उस व्यक्ति ने रीना के हांथ में बीस रुपये पकड़ा दिये। "पर अकंल इतने पैसे.." बत्ती हरी हो चुकी थी। अंकल जी का तिपहिया जा चुका था। लाल से हरी व संतरी होती बत्तियों को देखते हुये रीना सोंच रही थी कि क्या वह कभी बड़ी अभिनेत्री बन सकेगी।
--शरद आलोक

श्री शरद आलोक



श्री शरद आलोक जी का वास्तविक नाम सुरेश चन्द्र शुक्ल है। वे गत २१ वर्षों से नार्वे में हिन्दी की पत्रिकाओं 'परिचय' और 'स्पाइल' का संपादन कर रहे हैं।वे हिन्दी के सुपरिचित कवि, लेखक, और पत्र कार हैं।
डा. शुक्ल अनेक भाषाओं में लिखते रहे हैं। हिन्दी में आपके सात कविता संग्रह और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उर्दू में एक कहानी संग्रह और नार्वेजियन भाषा में एक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुका है।

सोनांचल साहित्यकार संस्थान, सोनभद्र आपके नाम पर देश-विदेश के चुने हुये साहित्यकारों को सुरेशचन्द्र शुक्ल नामित राष्ट्र भाषा प्रचार पुरस्कार प्रदान करता है

Saturday, November 14, 2009

यशपाल


यशपाल हिन्दी के उन प्रमुख कथाकारों में से हैं, जिन्होंने प्रेमचन्द की प्रगतिशील परम्पराओं को आगे बढाते हुये कथा साहित्य को जीवन की कथोर वास्तविकताओं से जोड़ा। अपनी प्रत्येक कहानी में वे किसी न किसी पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर हो रहे शोषण और अत्याचार के विरुद्व वे आवाज उठात हैं।
यशपाल मार्क्सवादी जीवन दर्शन से प्रभावित हैं। साहित्य और राजनीति में एक साथ और समान रूप से सक्रिय हस्तक्षेप करने वाले यशपाल जी का वैयक्तिक जीवन घटनाओं और दुर्घटनाओं का लम्बा और प्रेरक दस्तावेज है।
सन १९०३ में फिरोजपुर छावनी में जन्म लेने वाले यशपाल जी प्रारम्भ से ही पर्याप्त साहसी और निडर थे। आगे चलकर जब ये कालेज जीवन में प्रविष्ट हुये तो देश की राजनीति में इनकी गहरी दिलचस्पी हुई। इस दिलचस्पी ने ही इन्हें विद्रोही बनाया। फलतः ये चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह के विद्रोही दल से जा मिले।
केवल कहानीकार ही नहीं, एक सफल उपन्यासकार और सधे व्यंग्यकार के रूप में भी यशपाल हिन्दी जगत में विख्यात रहे हैं। इनकी कहानियों की लोकप्रियता का मूलकारण टेकनीक या भाषा न होकर कथा वस्तु है।

यशपाल की रचनायें

कहानी सांग्रह
लैम्प शेड, धर्मयुद्व, ओ भैरवी, उत्तराधिकारी, चित्र का शीर्षक, अभिशप्त, वो दुनिया, ज्ञान दान, पिंजड़े की उड़ान, तर्क का तूफान, फूलों का कुत्ता, भस्मावृत चिंगारी, भूख के तीन दिन।
[यशपाल की सम्पूर्ण कहानियां चार खन्डों में]
उपन्यास
झूठा सच, मेरी तेरी उसकी बात, देशद्रोही, दादा कामरेड,गीता पार्टी कामरेड, मनुष्य के रूप, पक्का कदम, दिव्या, अमिता, बारह घन्टे, जुलैखां, अप्सरा का शाप।
यात्रा विवरण
लोहे की दीवार के दोनो ओर, राहबीती, स्वर्गयोद्यान बिना सांप।
संस्मरण
सिंहावलोकन [चार भागों में]
निबन्ध
रामराज्य की कथा, गांधीवाद की शव परीक्षा, मार्क्सवाद, देखा सोंचा समझा, चक्कर क्लब, बात-बात में बात, न्याय का संघर्ष, जग का मुजरा, [सम्पूर्ण निबन्ध दो खंडो में विभाजित
नाटक
नशे-नशे की बात

करवा का व्रत - यशपाल

कन्हैया लाल अपने दफ्तर के हमजोलियों और मित्रों से दो-तीन बरस बड़ा ही था, परन्तु ब्याह उसका उन लोगों के बाद ही हुआ था। उसके बहुत अनुरोध करने पर भी साहब ने उसे ब्याह के लिये सप्ताह भर से अधिक छुट्टी न दी थी। लौटा तो उसके अन्तरंग मित्रों ने भी उससे वही प्रश्न पूंछे जो प्रायः ऎसे अवसरों पर पूंछॆ जाए हैं और फिर वही परामर्श उसे दिये जो अनुभवी लोग नव-विवाहितों को दिया करते हैं।

हेमराज को कन्हैया लाल समझदार मानता था। हेमराज ने समझाया- बहू को प्यार तो करना ही चाहिये , पर प्यार में उसे बिगाड़ लेना या सर चढा लेना भी ठीक नहीं है। औरत सरकश हो जाती है, तो आदमी को उम्र भर जोरू का गुलाम ही बना रहना पड़ता है। उसकी जरूरतें पूरी करो पर रखो अपने काबू में। मार-पीट बुरी बात है पर यह भी नहीं कि औरत को मर्द का डर ही न रहे। डर उसे रहना ही चाहिये....मारे नहीं तो कम से कम गुर्रा तो जरूर दे। तीन बात उसकी मानो तो एक बात में न भी कर दो। यह न समझ ले कि जो चाहे कर या करा सकती है। उसे तुम्हारी खुशी या नाराजगी की परवाह रहे। हमारे साहब जैसा हाल न हो जाय।.....मैं तो देखकर हैरान रह गया। एम्पोरियम से कुछ चीजें लेने के लिये जा रहे थे तो घरवाली को पुकार कर पैसे लिये। बीवी ने कह दिया - 'कालीन इस महीने रहने दो। अगले महीने सही', तो भीगी बिल्ली की तरह बोले- 'अच्छा!' मर्द को रुपया पैसा अपने हांथ में रखना चाहिये। मालिक तो मर्द है।

कन्हैया के विवाह के समय नक्षत्रों का योग ऎसा था कि ससुराल वाले लड़की की विदाई कराने के लिये किसी तरह तैयार न हुये। अधिक छुट्टी नहीं थी इसलिये गौने की बात 'फिर पर ही टल गई थी। एक तरह से अच्छा ही हुआ। हेमराज ने कन्हैया को लिखा पढा दिया कि पहले तुम ऎसा मत करना कि वह समझे कि तुम उसके बिना रह नहीं सकते, या बहुत खुशामद करने लगो। .....अपनी मर्जी रखना समझे। औरत और बिल्ली की जात एक। पहले दिन के व्यवहार का असर उस पर सदा रहता है। तभी तो कहते हैं कि 'गुर्बारा वररोज़े अव्वल कुश्तन'- बिल्ली के आते ही पहले दिन हाथ लगा दे तो फिर रास्ता नहीं पकड़ती। ....तुम कहते हो, पढी लिखी है, तो तुम्हें और भी चौकस रहना चाहिये। पढी लिखी यों भी मिजाज दिखाती हैं।

निःस्वार्थ भाव से हेमराज की दी हुई सीख कन्हैया ने पल्ले बांध ली थी। सोंचा मुझे बाजार होटल में खाना पड़े या खुद चौका बर्तन करना पड़े तो शादी का लाभ क्या? इसलिये वह लाजो को दिल्ली ले आया था। दिल्ली में सबसे बड़ी दिक्कत मकान की होती है। रेलवे में काम करने वाले, कन्हैया के जिले के बाबू ने उसे अपने क्वार्टर का एक कमरा और रसोई की जगह सस्ते किराये पर दे दी थी। सो सवा साल से मजे में चल रहा था।

लाजवन्ती अलीगढ में आठवी जमात तक पढी थी। बहुत सी चीज़ों के शौक थे। कई ऎसी चीज़ों के भी जिन्हें दूसरे घरों की लड़कियों या नई ब्याही बहुओं को करते देखकर मन मसोस कर रह जाना पड़ता था। उसके पिता और भाई पुराने खयाल के थे। सोंचती थी, ब्याह के बाद सही। उन चीज़ों के लिये कन्हैया से कहती। लाजो के कहने का ढंग ऎसा था कि कन्हैया का दिल इन्कार करने को न करता, पर इस ख्याल से कि वह बहुत सरकश न हो जाय, दो बातें मानकर तीसरी पर इन्कार भी कर देता। लाजो मुंह फुलाती तो सोंचती कि मनायेंगे तो मान जाऊंगी, आखिर तो मनायेंगे ही। पर कन्हैया मनाने की अपेक्षा डांट ही देता। एक-आध बार उसने थप्पड़ भी चला दिया। मनौती की प्रतीक्षा में जब थप्पड़ पड़ जाता तो दिल कटकर रह जाता और लाजो अकेले में फूट फूट कर रोती। फिर उसने सोंच लिया- 'चलो, किस्मत में यही है तो क्या हो सकता है?' वह हार मानकर खुद ही बोल पड़ती।

कन्हैया का हांथ पहली दो बार तो क्रोध की बेबसी में ही चला था, जब चल गया, तो उसे अपने अधिकार और शक्ति का सन्तोष अनुभव होने लगा। अपनी शक्ति अनुभव करने के नशे से बड़ा नशा और दूसरा कौन सा होगा? इस नशे में राजा देश पर दॆश समेटते जाते थे, जमींदार गांव पर गांव और सेठ बैंक और मिल खरीदते जाते हैं।इस नशे की सीमा नहीं। यह चस्का पड़ा तो कन्हैया लाल के हांथ उतना क्रोध आने की प्रतीक्षा किये बिना भी चल जाते।

मार से लाजो को शारीरिक पीड़ा तो होती ही थी, पर उससे अधिक होती थी अपमान की पीड़ा। ऎसा होने पर वह कई दिन के लिये उदास हो जाती थी। घर का सब काम करती। बुलाने पर उत्तर भी दे देती। इच्छा न होने पर भी कन्हैया की इच्छा का विरोध नहीं करती, पर मन ही मन सोंचती रहती, इससे तो अच्छा है मर जाऊं। और फिर समय पीड़ा को कम कर देता। जीवन था तो हंसने और खुश होने की इच्छा भी फूट ही पड़ती और लाजो हंसने लगती। सोंच यह लिया था, 'मेरा पति है, जैसा भी है मेरे लिये तो यही सब कुछ है। जैसे वह चाहता है वैसे ही मैं चलूं।' लाजो के सब तरह आधीन हो जाने पर भी कन्हैया की तेजी बढती ही जा रही थी। वह जितनी अधिक बेपरवाही और स्वच्छन्दता लाजो के प्रति दिखा सकता, अपने मन में उसे उतना ही अधिक अपनी समझने और प्यार का सन्तोष पाता।

क्वांर के अन्त में पड़ोस की स्त्रियां करवा चौथ के व्रत की बात करने लगीं। एक-दूसरे को बता रही थी उनके मायके से करवे में क्या आया। पहले बरस लाजो का भाई आकर करवा दे गया था। इस बरस भी वह प्रतीक्षा में थी। जिनके मायके शहर से दूर थे, उनके यहां मायके से रुपये आ गये थे। कन्हैया अपनी चिट्ठी-पत्री दफ्तर के पते से ही मंगाता था। दफ्तर से आकर उसने बताया, 'तुम्हारे भाई ने करवे के दो रुपये भेजे हैं।'

करवे के रुपये आ जाने से लाजो को सन्तोष हो गया। सोंचा भईया इतनी दूर कैसे आते? कन्हैया दफ्तर जा रहा था तो उसने अभिमान से गर्दन कन्धे पर टेढी कर और लाढ के स्वर में याद दिलाया--'हमारे लिये सरघी में क्या-क्या लाओगे....?' और लाजो ने ऎसे अवसर पर लायी जाने वाली चीजे याद दिला दीं। लाजो पड़ोस में कह आई कि उसने भी सरघी का सामान मंगाया है। करवा चौथ का व्रत भला कौन हिन्दू स्त्री नहीं करती? जनम जनम यही पति मिले, इस्लिये दूसरे व्रतों की परवाह न करने वाली पढी लिखी स्त्रियां भी इस व्रत की उपेक्षा नहीं कर सकतीं।

अवसर की बात, उस दिन कन्हैया ने लंच की छुट्टी में साथियों के साथ ऎसे काबू में आ गया कि सवा तीन रुपये खर्च हो गये। उसने लाजो को बताया कि सरघी का सामान घर नहीं ला सका। कन्हैया खाली हांथ घर लौटा तो लाजो का मन बुझ गया। उसने गम खाना सीखकर रूठना छोड़ दिया था, परन्तु उस सांझ मुंह लटक ही गया। आंसू पोंछ लिये और बिना बोले चौके बर्तन के काम में लग गई। रात के भोजन के समय कन्हैया ने देखा कि लाजो मुंह सुजाये है, बोल नहीं रही है, तो अपनी भूल कबूल कर उसे मनाने या कोई और प्रबन्ध करने का आश्वासन देने के बजाय उसने उसे डांट दिया।

लाजो का मन और भी बिंध गया। कुछ ऎसा ख्याल आने लगा--इन्हीं के लिये तो व्रत कर रही हूं और यही ऎसी रुखाई दिखा रहे हैं।.....मैं व्रत कर रही हूं कि अगले जनम में भी इनसे ही ब्याह हो और इन्हें मैं सुहा ही नहीं रही हूं...। अपनी उपेक्षा और निरादर से भी रोना आ गया। कुछ खाते न बना। ऎसे ही सो गई।

तड़के पड़ोस में रोज की अपेक्षा जल्दी ही बर्तन भांडे खड़कने की आवाज आने लगी। लाजो को याद आने लगा--शान्ति बता रही थी कि उसके बाबू सरघी के लिये फेनियां लाये हैं, तार वाले बाबू की घरवाली ने बताया कि खोये की मिठाई लाये हैं। लाजो ने सोंचा, उन मर्दों को ख्याल है कि हमारी बहू हमारे लिये व्रत कर रही है; इन्हें जरा भी ख्याल नहीं है।

लाजो का मन इतना खिन्न हो गया कि उसने सरघी में कुछ भी न खाया। न खाने पर पति के नाम पर व्रत कैसे न रखती! सुबह सुबह पड़ोस की स्त्रियों के साथ उसने भी करवे का व्रत रखने वाली रानी और करवे का व्रत रखने वाली राजा की प्रेयसी दासी की कथा सुनने और व्रत के दूसर उपचार निबाहे। खाना बनाकर कन्हैयालाल को दफ्तर जाने के समय खिला दिया। कन्हैया ने दफ्तर जाते समय देखा कि लाजो मुंह सुजाये है। उसने फिर डांटा--'मालूम होता है दो चार खाये बिना तुम सीधी नहीं होगी।'

लाजो को और भी रुलाई आ गई। कन्हैया दफ्तर चला गया तो वह अकेली बैठी कुछ देर रोती रही। क्या जुल्म है! इन्हीं के लिये व्रत कर रही हूं और इन्हीं को गुस्सा आ रहा है।...जन्म जन्म में ये ही मिलें इसी लिये मैं भूखी मर रही हूं।....बड़ा सुख मिल रहा है न ! ....अगले जन्म में और बड़ा सुख दॆंगे!....ये ही जन्म निबाहना मुश्किल हो रहा है। इस जन्म में तो इस मुसीबत से मर जाना अच्छा लगता है, दूसरे जन्म के लिये वही मुसीबत पक्की कर रही हूं।...

लाजो पिछली रात भूखी थी, बल्कि पिछली दोपहर से पहले ही खाया हुआ था। भूंख के मारे आंते कुड़मुड़ा रही थीं और उस पर पति का निर्दयी व्यवहार। जन्म जन्म, कितने जन्म तक उसे यह व्यवहार सहना पड़ेगा! सोंचकर लाजो का मन डूबने लगा। सिर में दर्द होने लगा तो वह धोती के आंचल से सिर बांधकर खाट पर लेटने लगी तो झिझक गई--करवे के दिन बान पर नहीं लेटा या बैठा जाता। वह दीवार के साथ फर्श पर ही लेट रही।

लाजो को पड़ोसनों की पुकार सुनाई दी। वे उसे बुलाने आईं थी। करवा चौथ का व्रत होने के कारण सभी स्त्रियां उपवास करने पर भी प्रसन्न थीं। आज करवे के कारण नित्य की तरह दोपहर के समय सीने-पिरोने का काम नहीं किया जा सकता था; करवे के दिन सुई, सलाई और चरखा छुआ नहीं जाता था। काज से छुट्टी थी और विनोद के लिये ताश या जुऎ की बैठक जमाने का उपक्रम हो रहा था। वे लाजो को भी इसी के लिये बुलाने आईं थीं। सिर-दर्द और बदन टूटने की बात कहकर वह टाल गई और फिर सोंचने लगी--ये सब तो सुबह सरघी खाये हुये हैं। जान तो मेरी ही निकल रही है। ...फिर अपने दुखी जीवन के कारण मर जाने का ख्याल आया और कल्पना करने लगी कि करवा चौथ के दिन उपवास किये हुये मर जाये, तो इस पुण्य से जरूर अगले जन्म में यही पति मिले....

लाजो की कल्पना बावली हो उठी। वह सोंचने लगी--मैं मर जाऊं तो इनका क्या है, और ब्याह कर लेंगे। जो आयेगी वह भी करवा चौथ का व्रत करेगी। अगले जनम में दोंनो का ब्याह इन्हीं से होगा, हम सौतें बनेंगी। सौत का ख्याल उसे और भी बुरा लगा। फिर अपने आप समाधान हो गया--नहीं पहले मुझसे ब्याह होगा, मैं मर जाऊंगी तो दूसरी से होगा। अपने उपवास के इतने भयंकर परिणाम से मन अधीर हो गया। भूख अलग व्याकुल किये थी। उसने सोंचा--क्यों मैं अपना अगला जनम बरबाद करूं? भूख के कारण शरीर निढाल होने पर भी खाने का मन नहीं हो रहा था, परन्तु उपवास के परिणाम की कल्पना से मन क्रोध से जल उठा; वह उठ खड़ी हुई।

कन्हैया लाल के लिये उसने जो सुबह खाना बनाया था उसमें से बची दो रोटियां कटोरदान में पड़ी थीं। लाजो उठी और उपवास के फल से बचने के लिये उसने मन को वश में करके एक रोटी रूखी ही खा ली और एक गिलास पानी पीकर फिर लेट गई। मन बहुत खिन्न था। कभी सोंचती -- यह मैंने क्या किया! ....व्रत तोड़ दिया। कभी सोंचती ठीक ही तो किया, अपना अगला जन्म क्यों बरबाद करूं? ऎसे पड़े पड़े झपकी आ गई।

कमरे के किवाड़ पर धम-धम सुनकर लाजो ने देखा, रोशन दान से रोशनी की जगह अन्धकार भीतर आ रहा है। समझ गई दफ्तर से लौटे हैं। उसने किवाड़ खोले और चुपचाप एक ओर हट गई।

कन्हैया लाल ने क्रोध से उसकी ओर देखा-'अभी तक पारा नहीं उतरा! मालूम होता है झाड़े बिना नहीं उतरेगा।'
लाजो के दुखे दिल पर और चोट लगी और पीड़ा क्रोध में बदल गई। कुछ उत्तर न दे वह घूमकर फिर दीवार के सहारे फर्श पर बैठ गई।
कन्हैया लाल का गुस्सा भी उबल पड़ा-'यह अकड़ है!....आज तुझे ठीक ही कर दूं।' उसने कहा और लाजो को बांह से पकड़, खींचकर गिराते हुये दो थप्पड़ पूरे हांथ के जोर से ताबड़तोड़ जड़ दिये और हांफते हुये लात उठाकर कहा, 'और मिजाज दिखा?.. खड़ी हो सीधी।'

लाजो का क्रोध भी सीमा पार कर चुका था। खींची जाने पर भी फर्श से नहीं उठी। और मार खाने के लिये तैयार होकर उसने चिल्लाकर कहा, 'मार ले मार ले! जान से मार डाल! पीछा छूटे! आज ही तो मारेगा! मैंने कौन सा व्रत रखा है तेरे लिये जो जनम जनम मार खाऊंगी। मार, मार डाल!'

कन्हैया लाल का लात मारने के लिये उठा पांव अधर में ही रुक गया। लाजो का हांथ उसके हांथ से छूट गया। वह स्तब्ध रह गया। मुंह में आई गाली भी मुंह में रह गी। ऎसे जान पड़ा कि अंधेरे में कुत्ते के धोखे से जिस जानवर को मार बैठा था उसकी गुर्राहट से जाना कि वह शेर था; या लाजो को डांट या मार सकने का अधिकार एक भ्रम ही था। कुछ क्षण वह हांफता हुआ खड़ा सोंचता रहा फिर खाट पर बैठकर चिन्ता में डूब गया। लाजो फर्श पर पड़ी रो रही थी। उस ओर देखने का साहस कन्हैया लाल को न हो रहा था। वह उठा और बाहर चला गया।

लाजो फर्श पर पड़ी फूट-फूटकर रोती रही। जब घन्टे भर रो चुकी तो उठी। चूल्हा जला कर कम से कम कन्हैया के लिये तो खाना बनाना ही था। बड़े बेमन से उसने खाना बनाया। बना चुकी तब भी कन्हैया लाल लौटा नहीं था। लाजो ने खाना ढक दिया और कमरे के किवाड़ उढकाकर फिर फर्श पर लेट गई। यही सोंच रही थी, क्या मुसीबत है ये ज़िन्दगी। यही झेलना था तो पैदा ही क्यों हुई थी? मैंने क्या किया था जो मारने लगे।

किवाड़ों के खुलने का शब्द सुनाई दिया। वह उठने के लिये आंसुओं से भीगे चेहरे को आंचल से पोंछने लगी। कन्हैया लाल ने आते ही एक नज़र उसकी ओर डाली। उसे पुकारे बिना ही वह दीवार के साथ बिछी चटाई पर चुपचाप बैठ गया। कन्हैया लाल का ऎसे चुप बैठ जाना एक नई बात थी, पर लाजो गुस्से में कुछ न बोल रसोई की ओर चली गई। आसन डाल थाली कटोरी रख खाना परोस दिया और लोटे मॆं पानी लेकर हांथ धुलाने के लिये खड़ी थी। जब पांच मिनट हो गये कन्हैया लाल नहीं आया तो उसे पुकारना ही पड़ा, 'खाना परस दिया है।'

कन्हैया लाल आया तो हांथ नल से धोकर झाड़ते हुये भीतर आया। अब तक हांथ धुलाने के लिये लाजो ही उठकर पानी देती थी। कन्हैया लाल दो ही रोटी खाकर उठ गया। लाजो और देने लगी तो उसने कह दिया , 'बस हो गया, और नहीं चाहिये।' कन्हैया लाल खाकर उठा तो रोज की तरह हांथ धुलाने को न कहकर नल की ओर चला गया।

लाजो मन मारकर स्वयं खाने बैठी तो देखा कद्दू की तरकारी बिल्कुल कड़वी हो रही थी। मन की अवस्था ठीक न होने से हल्दी नमक दो बार पड़ गया था। बड़ी लज्जा अनुभव हुई, 'हाय इन्होंने कुछ कहा भी नहीं! यह तो जरा कम ज्यादा होने पर डांट देते थे।'

लाजो से दुःख में खाया नहीं गया। यों ही कुल्ला कर, हांथ धोकर इधर आई कि बिस्तर ठीक कर दे, चौका फिर समेट देगी। देखा तो कन्हैया लाल स्वयं बिस्तर झाड़ कर बिछा रहा था। लाजो जिस दिन से इस घर में थी ऎसा कभी नहीं हुआ था।

लाजो ने शर्मा कर कहा, 'मैं आ गई रहने दो। किये देती हूं।' और पति के हांथ से दरी चादर पकड़ ली। लाजो बिस्तर ठीक करने लगी तो कन्हैया लाल दूसरी तरफ से मदद करता रहा। फिर लाजो को सम्बोधन किया, तुमने कुछ खाया नहीं। कद्दू में नमक ज्यादा हो गया है। सुबह और पिछली रात भी तुमने कुछ नहीं खाया था। ठहरो मैं तुम्हारे लिये दूध ले आऊं।'

लाजो के प्रति इतनी चिन्ता कन्हैया लाल ने कभी नहीं दिखाई थी। जरूरत भी नहीं समझी थी। लाजो को उसने अपनी चीज़ समझा था। आज वह ऎसे बात कर रहा था जैसे लाजो भी इन्सान हो; उसका भी ख्याल किया जाना चाहिये। लाजो को शर्म तो आ रही थी अच्छा भी लग रहा था। उसी रात से कन्हैया लाल के व्यवहार में एक नर्मी सी आ गई। कड़े बोल की तो बात ही क्या, बल्कि एक झिझक सी हर बात में, जैसे लाजो के किसी बात के बुरा मान जाने की या नाराज हो जाने की आशंका हो। कोई काम अधूरा देखता तो स्वयं करने लगता। लाजो को मलेरिया बुखार आ गया तो उसने उसे चौके के समीप नहीं जाने दिया। बर्तन भी खुद साफ कर दिये। कई दिन तो लाजो को बड़ी उलझन और शर्म मालूम हुई, पर फिर पति पर और अधिक प्यार आने लगा। जहां तक बन पड़ता, घर का काम उसे नहीं करने देती। प्यार से डांट देती, 'यह काम करते मर्द अच्छे नहीं लगते....।'

उन लोगों का जीवन कुछ दूसरी ही तरह का हो गया। लाजो खाने के लिये पुकारती तो कन्हैया जिद करता, 'तुम सब बना लो, फिर एक साथ बैठकर खायेंगे।' कन्हैया पहले कोई पुस्तक या पत्रिका लाता था तो अकेला मन ही मन पढा करता था। अब लाजो को सुनाकर पढता या खुद सुन लेता। यह भी पूंछ लेता 'तुम्हें नींद तो नहीं आ रही है?'

साल बीतते मालूम न पड़ा। फिर करवा चौथ का व्रत आ गया। जाने क्यों लाजो के भाई का मनी आर्डर करवे के लिये न पहुंचा था। करवा चौथ से पहले दिन कन्हैया लाल द्फ्तर जा रहा था। लाजो ने खिन्नता और लज्जा से कहा, 'भैया करवा भेजना शायद भूल गये।'

क्न्हैया लाल ने सांत्वना के स्वर में कहा, 'तो क्या हुआ? उन्होंने जरूर भेजा होगा। डाकखाने का हाल आजकल बुरा है। शायद आज आ जाये या और दो दिन बाद आये। तुम व्रत उपवास के झगड़े में न पड़ना। तबीयत खराब हो जाती है। यों कुछ मगाना ही है तो बता दो । लेते आयेंगे। पर व्रत उपवास से होता क्या है। सब ढकोसले हैं।'

'वाह, यह कैसे हो सकता है! हम तो जरूर रखेंगे व्रत। भैया ने करवा न भेजा तो न सही। बात तो व्रत की है, करवे की थोड़ी है।' लाजो ने बेपरवाही से कहा।

सन्धया-समय कन्हैया लाल आया तो रूमाल में बंधी छोटी गांठ लाजो को थमाकर बोला, 'लो, फेनी तो मैं ले आया हूं, पर व्रत-व्रत के झगड़े में न पड़ना।' लाजो ने मुस्कुराकर रुमाल लेकर अलमारी में रख दिया। अगले दिन लाजो ने समय पर खाना तैयार करके कन्हैया को रसोई में पुकारा, 'आओ, खाना परस दिया है।
कन्हैया ने जाकर देखा, खाना एक ही आदमी का परोसा था- 'और तुम?' उसने लाजो की ओर देखा।

'वाह मेरा तो व्रत है! सुबह सरघी भी खा ली। तुम अभी सो ही रहे थे।' लाजो ने मुस्कुराकर प्यार से बताया।
'यह बात....! तो हमारा भी व्रत रहा।' आसन से उठते हुये कन्हैया लाल ने कहा।
लाजो ने पति का हांथ पकड़कर समझाया, 'क्या पागल हो, कहीं मर्द भी करवा चौथ का व्रत करते हैं! ....तुमने सरघी कहां खाई?' नहीं, नहीं यह कैसे हो सकता है!' कन्हैया नहीं माना, 'तुम्हें अगले जन्म में मेरी जरूरत है तो क्या मुझे तुम्हारी नहीं है? या तुम भी व्रत न रखो आज!'
लाजो पति की ओर कातर आंखो से देखती हार मान गई। पति के उपासे दफ्तर जाने पर उसका हृदय गर्व से फूला नहीं समा रहा था|
--यशपाल

Friday, November 13, 2009

प्लीज मम्मी डोन्ट गो....।

अपने एक मित्र के साथ उनके एक ब्रिगेडियर दोस्त के घर जाने का मौका मिला।
ब्रिगेडियर दोस्त की नियुक्ति कहीं बाहर है और उनकी पत्नी अपने बच्चों के
साथ इसी शहर में अकेले रहती हैं।
जब उनके घर पहुंचा उस समय ब्रिगेडियर की पत्नी कहीं जाने की जल्दी में
थीं और तैयार होकर बस निकलने ही वालीं थीं। बाल संवारना, पफ करना, नौकर
को हिदायत देना, उतरे हुये कपड़े इधर उधर फेंकना, तीन साल की बच्ची पिंकी
को नाश्ता वक्त पर करने का निर्देश देना, आठ साल के बेटे सुदर्शन के
स्कूल से लौटने पर उसे क्या नाश्ता देना है इसके बारे में नौकर को
समझाना, ढेर सारी कापी किताबों को समेटना, टामी को गोदी में लेकर
दुलराना, हमारा हाल-चाल पूंछना और कोल्ड ड्रिंक्स लाने के लिये नौकर को
पुकारना। बिजली के बिल, कार में आयी खराबी और टुल्लू के जल जाने से
हिन्दी के एक समाचार पत्र के सम्पादक के साथ हुई भेंट का जिक्र करना और
खुशवंत सिंह के स्तम्भ "सरदार इन बल्व" की प्रशंसा करना आदि सब-कुछ एक
साथ चल रहा था। ऎसा लग रहा था कि घर मॆं फुल वाल्यूम में टेलीविजन चल रहा
है, रेडियो बज रहा है, टेपरिकार्डर भी चल रहा है, कूलर के साथ एयर
कन्डीशनर भी चल रहा है और पंखे भी जोर-जोर से घड़घड़ा रहे हैं। इतनी ढेर
सारी आवाज़ों के बीच लगता था जैसे घर के सारे नल भी खुले हों और बाल्टियों
में पानी गिरने की आवाज के साथ टेलीफ़ोन पर जोर-जोर से बात करने की आवाज़
भी उसी में घुसी जा रही हो। हे भगवान! रसोई से आमलेट जलने की गन्ध मिलना
बाकी रह गया था।
शटल काक की तरह एक कमरे से दूसरे कमरे में नाचती हुई अंततः जब वह कन्धे
पर पर्स डाले और हांथ में कापियों का ढेर उठाये और पैर में सैन्डल डालने
की बार-बार कोशिश करती हुई सामने स्थिर हो गयीं तो लगा जैसे भूकम्प की
तबाही के बाद की शान्ति हो। मित्र ने पूंछा, "भाभी जी कहीं जा रहीं हैं
क्या...कहीं यूनीवर्सिटी में रिसर्च तो शुरु नहीं कर दिया है?"
"नहीं आई एम नाट सो लकी। मन तो बहौत करता है बट यू नो, देयर इज़ नो टाइम।
गर की रिस्पान्सिबिलिटी से फ़्री हों तो कुछ करें भी। सारी लाइफ स्पाइल हो
गयी। बस एक स्कूल ज्वाइन किया है, वहीं पढ़ाने जा रही हूं।"
"स्कूल में पढ़ाना तो फुल टाइम जाब है, कैसे मैनेज करती हैं? इंटर सेक्शन
में हैं कि हाईस्कूल में?"
"अरे कहां हाईस्कूल और इंटर मीडीयेट? पास ही में बच्चों की एक नर्सरी है,
उसी में टाइम पास करती हूं।"
नर्सरी स्कूल में पढ़ाती हैं आप? कितने पैसे देते होंगे? सात-आठ सौ रुपये बस?"
"नहीं यार ,इतने भी नहीं। बट यू नो, मनी इज़ नो कन्सीडरेशन फॉर मी...।
हसबेंड को ही फाइव फिगर मिल जाता है। पैसे की भूख नहीं है...आय एम नाट
रनिंग आफ्टर मनी...आय वान्ट टु वर्क फॉर माय सैटिस्फैक्शन, फॉर सम
काज़...।बच्चों को हेल्प हो जाती है और मेरा भी टाइम पास हो जाता है। आखिर
एक इंसान को जिस्मानी जरूरतों के अलावा अपनी मानसिक खुराक के बारे में भी
तो सोचना चाहिये। अदरवाइज़, व्हाट इज़ डिफरेंस बिटवीन अ मैन एण्ड एन
ऎनीमल..? स्कूल में तो अच्छा खासा टाइम पास हो जाता है... यू नो, पढ़ाने
का पढ़ाना और आउटिंग की आउटिंग...। घर के मोनोटोनस एंड डिप्रेसिंग
एटमास्फियर से कुछ देर के लिये छुट्टी मिल जाती है। घर में बैठे-बैठे बोर
हो जाते हैं। सारी एजूकेशन बेकार हो गयी। यू नो, वन शुड डू समथिंग
क्रियेटिव। स्कूल में, दीज़ लोअर क्लास टीचर्स से भी इन्टरेक्शन हो जाता
है। दे आर वेरी क्रियेटिव एण्ड इमोशनल। दे मिस देयर फेमिली व्हेन दे आर
वर्किंग आउटसाइड। एक्चूअली, इन्स्पाइट आफ फाइनेंशियल क्राइसेस एंड हैविंग
गुड नालिज, दे डोन्ट वान्ट टु वर्क.....बट आयरनी इज़ दैट, दे आर फोर्स्ड
टु वर्क... आय रियली इन्जाय देयर कम्पनी। इट्स क्वाइट थ्रिलिंग फार मी टु
शेयर देयर एक्सपीरियंस। मेरे क्लास की और लेडीज़ तो दिन भर किटी पार्टीज़
में लगी रहती हैं...आय हेट किटी पार्टीज़। बस साड़ी गहनों की बात करो। आय
एम फेड अप विद दीज़ थिंग्ज़।"
"कितने दिनों से पढ़ा रही हैं?"
"अभी तो तीन महीने ही हुये हैं और यू नो, पूरे स्कूल के बच्चे मेरे पास
आते हैं और कहते हैं कि मैडम आपकी क्लास में ही पढूंगा..। सारे बच्चे
मुझसे ही कापी करेक्ट कराने आते हैं । एक दिन मैनेजर से झगड़ा हो गया।
मैंने तो कह दिया मैं काम नहीं करूंगी। बट यू नो, व्हाट हैपेन्ड? सारे
बच्चों ने मुझे कार्ड्स लिखकर दिये..प्लीज़ मैम, डोन्ट लीव अस...।आय
स्टार्टेड क्राइंग। बच्चे लव्ज़ मी वेरी मच। मैनेजर ने भी मुझे तीन
क्लासेज़ दे रखी हैं। मैं तो काम के मारे मरी जा रही हूं। घर पर लाकर
कापियां करेक्ट करनी पड़ती हैं रात-रात भर जागकर। लाइफ हैज़ बिकम हैल। अदर
टीचर्स तो दिन में चार पांच पीरीयड ही पढाती हैं, नोबडी गिव्ज़ देम
कार्ड्स...दे आर नाट पापुलर एमंग्स चिल्ड्रेन।"
इसी बीच पिंकी आकर मैडम की साड़ी पकड़कर खड़ी हो गयी और रह रह कर साड़ी
अपनी ओर खींचती जा रही थी। मैडम बात करने में इतनी मशगूल थीं कि पिंकी की
रुंआसी आवाज़ मम्मी के कानों तक नहीं पहुंच पा रही थी, मम्मी, प्लीज़ मम्मी
डोन्ट गो...प्लीज़ डोन्ट गो मम्मी..।"
मैडम को अचानक अहसास हुआ कि पिंकी उनकी साड़ी से लपटी खङी है। उन्होंने
पिंकी की करुण पुकार को अनसुना करतेहुये झाड़ लगायी "पिंकी...गो टु योर
बेड,..आय सेड गो टु योर बेड।" मम्मी की घूरती आंखो को देखकर वह सहमकर
अपने कमरे में चली गयी।
"यू नो शी इज़ पिंकी...माय पूअर चाइल्ड, शीहैज़ गाट फीवर...परसों से चढ़ा
है। १०२, १०३ डिग्री है, उतरता ही नहीं। अरे हां! याद आया वुड यू प्लीज़
हेल्प मी...? आय हैव रिटेन सम पोयम्स...गुड पोयम्स...आय वान्ट देम टु बी
पब्लिस्ड इन सम पेपर...। कैन यू ट्राय फार योर पेपर..।
"आप इंग्लिस में लिखती हैं और हमारा पेपर हिन्दी में निकलता है\ किसी
अंग्रेजी पत्रिका में कोशिश करिये।"
"अरे नहीं, यू मिस अन्डरस्टुड मी...आय राइट इन हिन्दी। हिन्दी इज़ माय मदर
टन्ग। मेरा पूरा एक्स्प्रेशन हिन्दी में ही है। आय लव टु एक्स्प्रेस माय
सेल्फ़ इन हिन्दी..। आय आलसो फ़ील फ़ुल कान्फीडेन्स व्हाइल राइटिंग इन
हिन्दी...। मेरी पोयम्स का कलेक्शन बुक फार्म में निकलने जा रहा है। उससे
पहले आय मीन, इन द मीन टाइम मैं चाहती हूं कि कुछ पोयम्स पेपर में निकल
जाय तो अच्छा रहेगा।..."
"आपने अपने सम्पादक मित्र से अनुरोध नहीं किया?"
"आय हैव ट्राइड हिम, ही विल डेफिनेटली गिव, बट आपके पेपर में भी निकल जाय
तो यू नो स्टेटस पर फर्क पड़ता है न...है न।"
"सो तो है।"
"प्लीज़ डू ट्राय...। आपकी डाटर किस स्कूल में पढ़ती
है?"
"ग्रीन लाइन्स नर्सरी में।"
"ओह, कैसी रेफुटेशन है स्कूल की?"
"अच्छी है। क्या पिंकी का एड्मिशन कराना है?"
अरे नहीं, इन सड़ियल स्कूलों में पिंकी को नहीं डालूंगी, दे आर
राटेन...कैसे-कैसे गन्दले बच्चे आते हैं...कैसी-कैसी फूहड़ टीचर्स आती
हैं। घर में पकायेंगी रोटी, करेंगी झाड़ू पोंछा और चली जायेंगी स्कूल में
पढ़ाने...आय हेट देम..।
"फिर किस लिये पूंछ रही हैं ग्रीन लाइन नर्सरी के बारे में?"
"बुलाया है मुझे...एक्चुअली दे आर आफरिंग मी नाइन हन्ड्रेड रुपीज़...।
मैंने भी कहला दिया कि राउन्ड फिगर की बात करो...वन थाउज़ेन्ड। बट यू नो?
मनी इज़ नाट मैटर। द ओनली थिंग इज़ इट्स एन अपार्च्यूनिटी। मुझे तीन महीने
ही हुये हैं पढाना शुरु किये हुये और आय एम गैटिंग आफर्ज़...कितने सालों
से पढाने वाली टीचर्स भी हैं..बट दे नेवर गाट ऎनी आफर फ्राम ऎनी व्हेयर।
आय वान्ट टु अवेल दिस अपार्च्यूनिटी...बट यू नो चिल्ड्रेन विल डेफिनेटली
मिस मी... आय एम वेरी इमोशनल...आय कान्ट हर्ट देम। प्लीज़ टेल मी कि मैं
क्या करूं... मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि व्हाट टु डू... प्लीज़ हेल्प
मी...।"
--स्नेह मधुर

स्नेह मधुर


स्नेह मधुर

इलाहाबाद विश्वविध्यालय से विधि स्नातक।
विगत लगभग दो दशकों से लेखन व पत्रिकारिता में सक्रिय। रचनात्मक लेखन में विशेष रुचि।
फिल्मों में अभिनय सहित निर्माण और पटकथा लेखन में भागीदारी।
सीरिया के स्वतन्त्रता दिवस पर भारत के सांस्कृतिक प्रतिनिध के रूप में वर्ष १९९८ में सीरिया की यात्रा।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पत्रकारिता पुरस्कार के निर्णायक मण्डल के सदस्य भी रहे।
काव्य संग्रह 'पहाङ खामोश है' प्रकाशित। कविता व व्यंग्य के अतिरिक्त इन दिनों एक उपन्यास लिखने में व्यस्त|
सम्प्रति : हिन्दुस्तान के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्व।

सम्पर्क : ए-११ पत्रकार कालोनी,
अशोक नगर
इलाहाबाद. २११००१